Tuesday, June 30, 2009

कैसे कैसे पेड़

दुनिया अजूबों से भरी है ,कुछ कुदरत के बने हुए हैं अजूबे तो कुछ मानव द्वारा निर्मित ,जैसे अभी मुंबई में बना सी ब्रिज ..जिसे आज विधिवत शुरू किया जा रहा है ..
मनाली हिमाचल प्रदेश में एक गांव है कन्याल ..यहाँ एक बहुत बड़ा देवदार का पेड़ है .कोई सवा सौ फीट ...यह पेड़ पाच सौ साल पुराना है ..इसका तना बहुत ही मोटा है कोई तीस से पेंतीस फीट घेरे वाला ..यदि इसके अन्दर से काट कर एक सड़क बना दे तो बस ट्रक सब आसानी से इस में से निकल सकते हैं ...और चाहे तो वहां थ्री वे रोड भी बन सकती है ..

एक खजूर का पेड़ बहुत अनोखा है ..यह कलकत्ता जनपद में था बीसवीं सदी के शुरू में .उसके साथ ही था एक मन्दिर .दिन भर यह पेड़ सीधा खड़ा रहता पर शाम को मन्दिर की घंटी बजते हो यह झुकने लगता और पूरी पूजा आरती के समय चाहे वह सुबह हो या शाम यह पूरा झुक जाता .जैसे ईश्वर को नमन कर रहा हो ....यह रहस्य आज भी एक रहस्य है कि इस तरह से क्यों होता था यह ..शायद ईश्वर ने जता दिया कि वह हर चीज में मौजूद है ..

Thursday, June 25, 2009

कविता सुनाने के लिए पैसे :)


कविता लिखना और फिर उसको सुनाने के लिए कितनी कोशिश करनी पढ़ती है ,यह तो कोई कविता लिखने वाला ही बता सकता है :) हम भी दिन रात आपको अपनी लिखी कविताएं सुनाने में लगे ही रहते हैं ..ब्लाग जगत में आने का सबसे बड़ा फायदा यही हुआ है कि जो दिल में आये लिखो और उसको ब्लॉग पर समप्रित कर दो ..वरना कविता कहने वालों के बारे में तो कहा जाता है कि यदि किसी लिखने वाले को कविता पाठ के लिए बुला लिया जाए तो वह माइक छोड़ने को तैयार ही नहीं होते .सोचते हैं कि लगे हाथ अब माइक हाथ में आया है तो दो चार कविताएं और ठेल ही देते हैं ..नहीं नहीं मैं आप पर यह जुल्म कतई नहीं करने वाली :) बस इसी से जुडा एक वाक्या पढा तो लगा वो आप सब के साथ शेयर करती हूँ :)
सच्चा वाक्या है यह किस्सा .सन १९६० के आस पास की बात है दिल्ली के जामा मस्जिद के पास उर्दू बाजार का .यहाँ एक दुकान थी मौलवी सामी उल्ला की ॥जहाँ हर इतवार को एक कवि गोष्ठी आयोजित की जाती ..कुछ कवि लोग वहां पहुँच कर अपनी कविताएं सुनाया करते सुना करते और कुछ चर्चा भी कर लेते | सभी अधिकतर शायर होते कविता लिखने ,सुनाने के शौकीन ,सुनने वाला भी कौन होता वही स्वयं कवि एक दूजे की सुनते , वाह वाह करते और एक दूजे को दाद देते रहते |
इस अनौपचारिक गोष्टी का तब संचालन करते थे गुलजार कवि जुत्शी देहलवी | मंच संचालन का सबसे बड़ा फायदा उन्हें यह होता कि वह अनेक छोटी बड़ी कविताएं ,शेर फोकट में सुना लेते और इस प्रकार अपने लिखे को सुनाने की उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती और दिल तृप्त | इस वजह से वह वहां पहुचे हुए कवियों में वह सबसे अधिक भाग्यशाली माने जाते |
एक दिन इतवार को इसी प्रकार गोष्टी चल रही थी तभी वहां सबकी नजर एक नए आये बुजुर्ग पर पढ़ी | उन्होंने उस बुजुर्ग को अपना परिचय दे कर कुछ लिखा सुनाने के लिए कहा | किंतु वह बुजुर्गवार अपने स्थान पर बैठे रहे ,और बोले कि मैं कवि नहीं हूँ ,कविता या शेर कहना मुझे नहीं आता है बस पता चला कि यहाँ हर इतवार महफ़िल जमती है तो चला आया , बस सुनने का शौकीन हूँ | वहां बैठे लोगों ने कई बार उन्हें कहा कि शायद संकोच वश कुछ सुना नहीं रहे हैं ,पर उनका जवाब हर बार यही रहा |
इसी महफिल में अति ख्यातिप्राप्त साहित्याकार देवेंदर सत्यार्थी भी बैठे थे| वह यह देख कर सुन कर अपने स्थान से उठे और उस बुजुर्ग वार के पास गए ,उन्होंने उनको अच्छा तरह से अपने गले से लगाया और बोले --- मैं तो आप जैसे श्रोता को पा कर यहाँ धन्य हो गया | हम तो रिक्शा वाले को पैसे दे कर अपनी कविता सुनाते हैं ॥अब क्या करें कोई सुनने वाला ही नहीं मिलता ।यह सुनते ही सारी महफिल ठहाकों से गूंज उठी .सब ताजगी से भर गए और फिर से कविता पाठ की महफिल जम गयी | कितनी मज़बूरी है न रिक्शे वालों को पैसे दे कर अपनी शायरी सुनाने की पर लगता नहीं कि आज कल रिक्शे वाले भी यह सुनना पसन्द करेंगे या नहीं :)

Tuesday, June 09, 2009

दिलो के फासले


यूँ ही जाने -अनजाने
महसूस होता है
रिश्तो की गर्मी
शीत की तरह
जम गई है ...
न जाने कहाँ गई
वह मिल बैठ कर
खाने की बातें
वह सोंधी सी
तेरी -मेरे ....
घर की सब्जी
रोटी की महक सी
मीठी मुस्कान ....

अब तो रिश्ते भी
शादी में सजे
बुफे सिस्टम से
सजे सजाये दिखते हैं
प्यार के दो मीठे बोल भी
जमी आइस क्रीम की तरह
धीरे से असर करते हैं
कहने वाले कहते हैं
कि घट रही धीरे धीरे
अब हर जगह की दूरी
पर क्या आपको नही लगता
कि दिलो के फासले अब
और महंगे .....
और बढ़ते जा रहे हैं??