Thursday, June 25, 2009

कविता सुनाने के लिए पैसे :)


कविता लिखना और फिर उसको सुनाने के लिए कितनी कोशिश करनी पढ़ती है ,यह तो कोई कविता लिखने वाला ही बता सकता है :) हम भी दिन रात आपको अपनी लिखी कविताएं सुनाने में लगे ही रहते हैं ..ब्लाग जगत में आने का सबसे बड़ा फायदा यही हुआ है कि जो दिल में आये लिखो और उसको ब्लॉग पर समप्रित कर दो ..वरना कविता कहने वालों के बारे में तो कहा जाता है कि यदि किसी लिखने वाले को कविता पाठ के लिए बुला लिया जाए तो वह माइक छोड़ने को तैयार ही नहीं होते .सोचते हैं कि लगे हाथ अब माइक हाथ में आया है तो दो चार कविताएं और ठेल ही देते हैं ..नहीं नहीं मैं आप पर यह जुल्म कतई नहीं करने वाली :) बस इसी से जुडा एक वाक्या पढा तो लगा वो आप सब के साथ शेयर करती हूँ :)
सच्चा वाक्या है यह किस्सा .सन १९६० के आस पास की बात है दिल्ली के जामा मस्जिद के पास उर्दू बाजार का .यहाँ एक दुकान थी मौलवी सामी उल्ला की ॥जहाँ हर इतवार को एक कवि गोष्ठी आयोजित की जाती ..कुछ कवि लोग वहां पहुँच कर अपनी कविताएं सुनाया करते सुना करते और कुछ चर्चा भी कर लेते | सभी अधिकतर शायर होते कविता लिखने ,सुनाने के शौकीन ,सुनने वाला भी कौन होता वही स्वयं कवि एक दूजे की सुनते , वाह वाह करते और एक दूजे को दाद देते रहते |
इस अनौपचारिक गोष्टी का तब संचालन करते थे गुलजार कवि जुत्शी देहलवी | मंच संचालन का सबसे बड़ा फायदा उन्हें यह होता कि वह अनेक छोटी बड़ी कविताएं ,शेर फोकट में सुना लेते और इस प्रकार अपने लिखे को सुनाने की उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती और दिल तृप्त | इस वजह से वह वहां पहुचे हुए कवियों में वह सबसे अधिक भाग्यशाली माने जाते |
एक दिन इतवार को इसी प्रकार गोष्टी चल रही थी तभी वहां सबकी नजर एक नए आये बुजुर्ग पर पढ़ी | उन्होंने उस बुजुर्ग को अपना परिचय दे कर कुछ लिखा सुनाने के लिए कहा | किंतु वह बुजुर्गवार अपने स्थान पर बैठे रहे ,और बोले कि मैं कवि नहीं हूँ ,कविता या शेर कहना मुझे नहीं आता है बस पता चला कि यहाँ हर इतवार महफ़िल जमती है तो चला आया , बस सुनने का शौकीन हूँ | वहां बैठे लोगों ने कई बार उन्हें कहा कि शायद संकोच वश कुछ सुना नहीं रहे हैं ,पर उनका जवाब हर बार यही रहा |
इसी महफिल में अति ख्यातिप्राप्त साहित्याकार देवेंदर सत्यार्थी भी बैठे थे| वह यह देख कर सुन कर अपने स्थान से उठे और उस बुजुर्ग वार के पास गए ,उन्होंने उनको अच्छा तरह से अपने गले से लगाया और बोले --- मैं तो आप जैसे श्रोता को पा कर यहाँ धन्य हो गया | हम तो रिक्शा वाले को पैसे दे कर अपनी कविता सुनाते हैं ॥अब क्या करें कोई सुनने वाला ही नहीं मिलता ।यह सुनते ही सारी महफिल ठहाकों से गूंज उठी .सब ताजगी से भर गए और फिर से कविता पाठ की महफिल जम गयी | कितनी मज़बूरी है न रिक्शे वालों को पैसे दे कर अपनी शायरी सुनाने की पर लगता नहीं कि आज कल रिक्शे वाले भी यह सुनना पसन्द करेंगे या नहीं :)

39 comments:

रंजन said...

अब कहीं मिल रहे हो तो हम भी चले जाये पार्ट टाईम..:)

Himanshu Pandey said...

हाँ, सही है कि ब्लॉग-जगत में कविता सुनाने के लिये सिफारिश नहीं करनी पड़ती । कुछ श्रोता तो मिल ही जाते हैं वाह-वाह करते ।

देवेन्द्र सत्यार्थी जी का जिक्र छेड़कर आपने उनके महनीय कृतित्व और व्यक्तित्व का स्मरण करा दिया । आभार ।

सदा said...

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Atmaram Sharma said...

कवि न होऊं, नहिं चतुर कहावऊँ... वाली विनम्रता अब दुर्लभ है. रोचक पोस्ट. साधुवाद.

ओम आर्य said...

bahut hi badhiya jaankari ..........ek achchhi post

उन्मुक्त said...

अन्तरजाल का केवल चिट्ठा ही फायदा नहीं है। कविता का पॉडकास्ट कर दो, बहुत से लोग सुनने वाले मिल जाते हैं।

विवेक सिंह said...

किसी चुटकुले में सुना था कि कवि घर में कुर्सी पर फ़ेवीकोल लगाकर रखते हैं :)

ताऊ रामपुरिया said...

हम भी रंजन जी के साथ चले जाते हैं.:)

रामराम.

डॉ .अनुराग said...

अब ऐसे मुशायरे नहीं होते .कवी सम्मलेन के नाम पर दि- अर्थी चुटकुले या फूहड़ तुकबंदी की जाती है....गंभीर कवि स्टेज पे जाने से हिचकिचाते है ..जाहिर है सुनने वाले कम ही होगे.....खैर माइक मोह के शिकार हमने बहुतेरे देखे है ...ऐसे के फेवी क्विक के एड को मात देदे ....ऐसे भी इंटरव्यू लेने वाले या किसी के बारे में लिखने वाले देखे है जो अपनी भाषा के ज्ञान दिखाने में ज्यादा दिलचस्पी रखते है....की बेचारा जिसका इंटरव्यू लिया गया है या जिसके बारे में लिखा गया है .वो गौण रह जाता है... वो अनूप शुक्ल जी कहते है न एक वर्ड.....आत्म प्रचार...

MANVINDER BHIMBER said...

essa bhi hota hai,,,,,achcha wakya sunaya ....

Vinay said...

मेरा तो जवाब है कि नहीं करेंगे, मँहगाई की मार बहुत बड़ी है उन पर! बेचारे धूप में चलते रहते हैं!

नीरज गोस्वामी said...

बिलकुल सच्ची बात कही है आपने रंजना जी...यहाँ नशिस्त में जाने के बाद मैंने ये ही देखा की शायर अपनी शायरी सुनाते हैं दूसरी की शायरी पर बिना सुने ध्यान दिए भी दाद देते हैं क्या करें अब कविता या ग़ज़ल सुनने की किसे फुर्सत है...जिस बात को सुन कर दो पैसे का फायदा ना हो उस बात को वैसे भी कोई नहीं सुनता...
नीरज

राज भाटिय़ा said...

अजी रिक्क्षा वाले को क्यो,हम बताते है आप सब जेब ठीली करो ओर जितनी कविता , शॆर सुनाने है सुनाओ, लेकिन पहले भाव कर लेना ,प्रति शॆर पेसे देने है, या प्रति शायर, ओर पेसे नगद देने है या चेक,
रंजना जी बहुत सुंदर लगा, आप का यह लेख, कई साल पहले मै भारत आ रहा था, एक भारतीया सज्जन मेरे बगल मे बेठे थे, जब पता चला कि वो शायर है तो मेने उन्हे एक आध शॆर सुनाने का पंगा ले लिया.... फ़िर तो मुझे अपनी सीट ही बदलबानी पडी....
धन्यवाद

Crazy Codes said...

aaj hindi sahitya ki jo sthiti hai use dekhkar roj ho ro padta hun.. humesha sonchta hun kyon main hindi mein likhne laga... kyon na main bhi english mein koi bhi bekaar si kahaani likhkar us mein 2-4 page ant-rang sambandho ke daal dun... nove chhap jayegi aur bestseller bhi ho jayegi-- lage hathon meri novel par filmein bhi ban jayengi... paise kama lunga...

main apne sath beeta hi ek vakya batata hun... jab main apni kuchh kavitaon ko ek jane mane hindi publication ke paas le gaya to uske author ka kahna tha "aaj hindi ka baazar nahi hai. fir bhi aap agar apni kitab chhapwana chahte hai to chhapayi ka kharch aapko hi uthana hoga. hum risk nahi le sakte" main apni kavitayein lekar wapas aa gaya aur sonch mein padkar kya aaj hindi "risk" ban kar rah gayi hai?

दिनेशराय द्विवेदी said...

हम भी पहले कविताएँ सुनने ही जाते थे । फिर मार मार कर कवियों ने कवि बना दिया।

admin said...

कविता के बारे में एक किस्‍सा मशहूर है। दो लोग एक सीट पर बैठे थे। एक ने पूछा कि भाई साहब आप क्‍या करते हैं। दूसरे ने कहा मैं कवि हूँ। इसपर पहले वाले ने तुरन्‍त कहा कि मैं बहरा हूँ।

ह ह हा।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

दिगम्बर नासवा said...

bloging jyaada अच्छी है........... कोई padhe n padhe sune n sune ................

Ashish Khandelwal said...

अब क्या कहें... यही सोचकर हम कविता-शायरी नहीं करते :)

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

हमारे यहाँ लुधियाना में भी इसी तरह की एक महफिल महफिल-ए-अदब नाम से महीने के आखिरी रविवार को सजती है. एक दो बार भाई मुफलिस जी जबरदस्ती साथ खींच कर ले गए, अब हम गए तो श्रोता की हैसीयत से थे,लेकिन सभी लोग पीछे पड गए कि शर्मा जी आप भी कुछ सुनाईये. अब भला हमारा तो कविता/शायरी से दूर दूर तक भी कोई वास्ता नहीं. बहुत ही मुश्किल से जान छुडाकर वहाँ से निकले।
हमारे लिए तो ब्लागरी भली, जहां कोई जोर जबरदस्ती नहीं....मन किया तो पढा न मन किया तो न सही।

Unknown said...

bada achha anubhav bataya ....
maza aa gaya
badhaai !

सुशील छौक्कर said...

रंजू जी कहाँ से ले आई ये बेहतरीन किस्सा।

कुश said...

हमको तो रिक्शे वाले खुद पैसे दे जाते है कि भय्या पैसे लेलो पर कोई कविता मत सुनाना..

Arvind Mishra said...

ड्राप सीन रह आज्ञा -वह सज्जन कौन थे ?

डॉ. मनोज मिश्र said...

किसको फुर्सत है ? मजेदार पोस्ट .

Abhishek Ojha said...

कविता तो फिर भी पैसे लेके कोई सुन लेगा हम गणित पढाएं तो कोई पैसे लेके भी नहीं पढेगा :) बताइए आपका ग़म कम हुआ या नहीं. हा हा ! मजेदार पोस्ट.

शोभना चौरे said...

|किसी जमाने में सं ६५से ७० केबीच हम कवि सम्मेलन में जाते थे तो साथ में नोट बुक ओर पेन लेकर जाते थे ताकि कविताये नोट कर सक|आपका आलेख पढ़कर उस जमाने के कवि और कविताओ की स्मृति आज भी ह्रदय में अंकित है |
आपको बधाई इतना अच्छा संस्मरण सुनाने के लिए |

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

:-)
रंजू जी ये शायरों की नस्ल ही अजीबा होती है मजेदार किस्स्सा सुनवाया आपने

- लावण्या

Udan Tashtari said...

इतनी ज्यादा सच बयानी..बाप रे इस हिम्मत को नमस्ते!!

निर्मला कपिला said...

अब हमारी ही बात ले लो हमारे यहाँ भी हर माह कवि गोष्ठी होती है तो उसमे सब लेखक ही होते हैं मैं तो भाई अपने पति देव को ही ले जाती हूँ और सब की नज़रों मे जो उब की इज़्ज़त होती है उस से एक कविता और बन जाती है और जब घर वापिस आते हैं तो खाना भी नहीं बनाना पडता उनका पेट तो कविता सुनते सुनते ही भर जाता है पैसे खर्छ करने से तो अच्छा ही है हा हा हा

निर्मला कपिला said...

अब हमारी ही बात ले लो हमारे यहाँ भी हर माह कवि गोष्ठी होती है तो उसमे सब लेखक ही होते हैं मैं तो भाई अपने पति देव को ही ले जाती हूँ और सब की नज़रों मे जो उब की इज़्ज़त होती है उस से एक कविता और बन जाती है और जब घर वापिस आते हैं तो खाना भी नहीं बनाना पडता उनका पेट तो कविता सुनते सुनते ही भर जाता है पैसे खर्छ करने से तो अच्छा ही है हा हा हा

अविनाश वाचस्पति said...

हमारे यहां रिक्‍शे वाले को कहो कि कविता सुनोगे तो वो कहता है कि कहां चलोगे, हम फ्री छोड़ देंगे और इच्‍छा हो तो चाय भी पिलायेंगे। रिक्‍शेवालों को शायद अभी ब्‍लॉगिंग की जानकारी नहीं हुई है।

रश्मि प्रभा... said...

achha hua jo humne blog bana liya...hahaha

Gee said...

wah wah , aapne to kavi mann ki vyatha katha keh daali:)

मुकेश कुमार तिवारी said...

Ranjana Ji,

A very special Thanks for a very nice Post.

With every moment one goes deep in with feeling and surprises on onen having poetic interst. A humourous yet informative & eloborative post connecting today's people with Great Legacies of Hindi Litreature Development.

With Best Regards,


Mukesh Kumar Tiwari

प्रकाश गोविंद said...

देखा जाए तो कवियों के लिए ब्लॉग एक वरदान सरीखी चीज है !
फोकट में पचासों श्रोता बैठे- बिठाए मिल जाते हैं !
दाद भी ऐसी मिलती है की हजारों महरूम कवियों और शायरों की रूहें करवट बदलती होंगी !

बहरहाल मजा आ गया आपकी पोस्ट पढ़कर !

आज की आवाज

!!अक्षय-मन!! said...

ham to apna aur sabka blog dekhkar hi khush ho lete hain..[:)]

kya karain koi milta hi nahi..[:)]

bahut hi accha likha....
magar ek baat ka afsous hai aaj wo kal wali baat nahi....

Alpana Verma said...

बहुत ही रोचक वाकया था यह Ranjanaजी..!

shanti se सब ko सुनने वाले वह sajjan aakhir the kaun??

-kaviyon aur gayakon की yahi halat hoti ...सब bachte rahte hain..hee hee hee...

@pandit vats जी एक कविता तो आप ने भी लिखी hai..apne blog par![zindagi par]आप भी kaviyon की shreni mein aa ही gaye!

Alpana Verma said...

रंजना जी ,आप की नयी प्रोफाइल तस्वीर बहुत अच्छी लगी..ब्लैक व्हाइट वाली पिक्चर की जगह अब इसे ही रखीये.

गौतम राजऋषि said...

सारे कवियों का दर्द समेटे हुये ये पोस्ट....