Sunday, January 18, 2009

एक यात्रा...

कहाँ है
अब वह
प्रकति के सब ढंग,
धरती के ,पर्वत के
सब उड़ गए हैं रंग..


पिछले दिनों हिसार जाना हुआ यह रास्ता मुझे वैसे भी बहुत भावुक कर देता है |रोहतक जहाँ बचपन बीता उसके साथ लगता कलानौर जहाँ जन्म लिया ..क्या वह घर अब भी वैसा होगा .कच्चा या वहां भी कुछ नया बन गया होगा ..बाग़ खेत ..कई यादे एक साथ घूम जाती है ..दिल्ली के कंक्रीट जंगल से कुछ पल सिर्फ़ राहत मिल जाती है और लगता है कि अभी भी कोई कोना तो है दिल्ली के आस पास जो कुछ हरियाला है ..मेट्रो के कारण दिल्ली जगह जगह से उधडी हुई है .एक जगह से दूसरी जगह जाने में एक युग सा लगता है ..वही हुआ बस तो आई एस बी टी से ही मिलनी थी ,जिसने दिल्ली से बाहर निकलते निकलते ही ३ घंटे लगा दिए ...और उसके बाद का रास्ता ही सिर्फ़ तीन घंटे का है .रोहतक तक आते आते अब खेत कुछ कम दिखायी देते हैं वहां भी अब ओमेक्स के फ्लेट्स का बोर्ड लहरा रहा है | नींव तो पड़ ही चुकी है एक और कंक्रीट के जंगल की ......मन में चिंता होती है कि यूँ ही सब मकान बनते रहे तो खेत कहाँ रहेंगे ...और खेत नही रहेंगे तो खाने को क्या मिलेगा ...पर रोहतक से हिसार के दूर दूर तक फैले पीले सरंसों के फूल ,गेहूं की नवजात बालियाँ यह आश्वासन देती लगती है कि चिंता मत करो अभी हम है ,पर कब तक यह कह नही सकते...तभी बीडी के धुएँ से बस के अन्दर ध्यान जाता है .....हरियाणा की बस है सो कम्बल लपेटे बेबाक से कई ताऊ जी बैठे हैं .कुछ ताई जी भी हैं जो अभी भी हाथ भर घूँघट में हैं पर उनकी आँखे बाहर देख रही रही ..दिल्ली से एक लड़के को सीट नही मिली है और रोहतक से आगे बस आ चुकी है ,वह सीट के साथ बैठे ताऊ को थोड़ा अपना कम्बल समेट लेने को कहता है ,जिस से वह वहां बैठ सके .पर ताऊ बड़ी सी हम्बे कर के उसको देखता है और फ़ैल कर बैठ जाता है ..लड़का फ़िर कहता है कि 'मैंने भी टिकट ली है ,बैठने दो मुझे यहाँ "'...ताऊ उसको घूर कर कहता है कि "थम जा अभी महम आने पर मैं उतारूंगा तब यहाँ बैठ लीजो ..टिकट रख ले अपने खीसे में ....".और शान से अपनी बीडी का धुंआ फेंकता है जो सीधे मेरी तरफ़ आता है और मैं रुमाल से अपना नाक बंद कर लेती हूँ ...लगता है कि इसको कुछ कहूँ पर लड़के को दिये जवाब से चुप हो जाती हूँ ...और ब्लागर ताऊ जी की इब खूंटे पर याद करके मुस्कराने लगती हूँ ...ताऊ जी के लिखे कई कारनामे याद आने लगते हैं ...ब्लागिंग से जुड़े कई काम याद आने लगते हैं ..

महम आ गया है और वह ताऊ जी उतर गए हैं ...लड़का लपक के वह सीट ले लेता है ..बस फ़िर आगे को भागने लगती है ...तभी मेरे सेल की घंटी बजती है और बहन पूछती है कि कहाँ तक पहुँची तुम ... .महम से बस निकल चुकी है कुछ ही देर हुई है ..मैं कहती हूँ कि हांसी आने वाला है पहुँच जाउंगी कुछ देर में ..तभी आगे की सीट पर उंघती महिला एक दम से चौकस हो जाती है और खिड़की से बाहर देख कर मेरी तरफ़ देख के कहती है अभी हांसी दूर है ..उन्होंने शायद वहीँ उतरना है इस लिए एक दम से चौंक गई है ...सेल पर मेरी बात सुन कर ..मैं कुछ सोच कर मुस्करा देती हूँ ...मैं भी बाहर देखने लगती हूँ .. गांव है ,घरों के आगे चारपाई पर हुक्के सुलगे हुए हैं .कई बुजुर्गवार बैठे हैं .....घर के आगे की हवेली में ट्रेक्टर और भेंसे बंधी हुई हैं ....सड़क के साथ ही एक स्कूल से लड़के नीली वर्दी पहने निकल रहे हैं और जाते हुए ट्रेक्टर में लदे गन्नों को लपकने की कोशिश में हैं ....लडकियां नही दिखती नीली वर्दी में ..कुछ आगे जाने पर दिखती है चेहरा ढके हुए ..कुछ सिर पर घडा रखे हैं ,पानी भरने जा रही है ,किसी के सिर पर चारा है और कोई भेंसों को नहला कर घर की और ले जा रही है ..इस रास्ते से आते जाते अब तक कई सालों से लड़कियों को सिर्फ़ इसी तरह से देखा है ...
....आगे बैठा लड़का अब शायद अपनी गर्ल फ्रेंड से बात कर रहा है ..सेल पर उसकी आवाज़ तेज है जो सुनाई दे रही है किसी बात पर मनाने की कोशिश है ,आवाज़ में बेचारगी है पर चेहरे पर आक्रोश है .अभी अभी आँखों में खिले सपने हैं ..उसको देख कर नजर फेर लेती हूँ कहीं मेरे यूँ देखने से वह परेशान न हो जाए पर मेरे कान उसकी बातो को न चाहते हुए भी सुनते रहते हैं ...और फ़िर कुछ देर पहले उस औरत पर जो मुस्कराहट आई थी वह अपने ऊपर आ जाती है .......इंसानी फितरत स्वभाव से मजबूर है .क्या करें ...

वापसी पर भी वही सब है भरी बस ,कम्बल लपेटे ताऊ जी ,आधे घूँघट में ताई जी और बीडी का धुंआ ......जो रोहतक आते आते कम हो जाता है ....हिसार से रोहतक तक तेज रफ़्तार और दिल्ली की शुरुआत होते ही वही कंक्रीट के जंगल ..मेट्रो का रास्ता बनाते मजदूर .बस अड्डे से ऑटो ले कर घर का रास्ता तय हो ही रहा होता है | रास्ते में कई झुग्गियां टूटी हुई है ..यहाँ पर अब मेट्रो का रास्ता बनेगा .फ़िर यह मजदूर और कागज़ बीनने वाले कहाँ रहेगे ? ठण्ड भी कितनी है, बारिश भी हो रही है ...उनके टूटे घरों में चूल्हा जल रहा है शायद खाने पीने का काम जल्दी से ख़त्म कर के सोने की कोई जगह तलाश करेंगे |
तभी एक जोर की ब्रेक ले कर ऑटो एक दम से घूम जाता है सामने के नजारा देख कर मेरी रूह कांप जाती है .एक बाइक वाले ने सीधे जाते जाते एक दम से यू टर्न ले लिया था, उसको बचाने के चक्कर में ऑटो वाले ने एक दम से ब्रेक लागने की कोशिश की और एक ब्लू लाइन बस हमारे ऑटो को छूती हुई निकल गई ..यानी कुछ पल यदि नही संभलते तो अपना टिकट ऊपर का काटने वाला था ...ऑटो वाला सकते में कुछ पल यूँ ही खड़ा रहता है ....और फ़िर धीरे से कहता है "मैडम आज तो बच गए "....मैं भी कुछ पल तक जैसे सकते में आ जाती हूँ .....मन ही मन जय श्री कृष्ण और बाबा जी का शुक्रिया अदा करती हूँ ,और रास्ते में फ़िर से टूटी झुग्गियों को देख कर सोचती हूँ कि इतनी ठण्ड में यह अब कैसे रहेंगे ...कुछ समय पहले लिखी अपनी कुछ पंक्तियाँ याद आने लगती है ..

दिख रहा है ......
जल्द ही
दिल्ली का नक्शा बदल जायेगा
खेल कूद के लिए ख़ुद रहा है
दिल्ली की सड़कों का सीना
हर तरफ़ मिटटी खोदते
संवारते यह हाथ
न जाने कहाँ खो जायंगे

सजाती दिल्ली को
यह प्रेत से साए
गुमनामी में गुम हो जायेंगे

घने ठंड के कुहरे में
दूर गावं से आए यह मजदूर
फटे पुराने कपडों से ढकते तन को
ख़ुद को दे सके न चाहे एक छत
पर आने वाले वक्त को
मेट्रो और सुंदर घरों का
एक तोहफा
सजा संवार के दे जायेंगे !!

रंजना[रंजू ] भाटिया

29 comments:

Vinay said...

सुन्दर , पढ़कर अच्छा लगा

---मेरे पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम | तकनीक दृष्टा/Tech Prevue | आनंद बक्षी | तख़लीक़-ए-नज़र

seema gupta said...

"वापसी पर भी वही सब है भरी बस ,कम्बल लपेटे ताऊ जी ,आधे घूँघट में ताई जी और बीडी का धुंआ ......"
यात्रा का व्रतांत बेहद रोचक रहा ..कुछ बचपन की यादे, वही गलियां वही रस्ते ....और फ़िर जिन्दगी का एक अँधा सफर..... मगर ये ताऊ का नया ही रूप सामने आया यहाँ तो हा हा हा हा हा कही ये वही तो नही ...वही अपने ब्लॉग वाले....हा हा हा "

Regards

निर्मला कपिला said...

इस रोचक यात्रा ने हमे भी सैर करवा दी धन्यवाद्

Alpana Verma said...

क्या बात है...ताऊ जी के किसी न किसी रूप के दर्शन आप को भी हो गए.
खूंटे को कोई क्या भूलेगा??
आप का संस्मरण पढ़ा और गाँव का नजारा देखा..
दूसरी और आप की नज़रें विकास की आंधी कितने घरों की छतों को उडाती भी देख रही है.
और ट्राफिक की बरसों से बनी हुई वही हालत..
और--

--सजाती दिल्ली को
यह प्रेत से साए
गुमनामी में गुम हो जायेंगे'

बहुत सही कहा है..

जितेन्द़ भगत said...

बढ़ि‍या और रोचक वुतांत। काफी चीजें समेटी है आपने।

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छा लगा पढकर......आपका यह रोचक यात्रा वृतांत।

कुश said...

पढ़ कर लगा बस जगह के नाम बदल गये.. मेरा शहर भी तो कुछ ऐसा ही है...

PD said...

वह दीदी.. क्या खाका खिंचा है.. एक एक चीज का ऐसा रेखा चित्र खिंचा जैसे हमारे सामने ही हो..
और हाँ, आगे से जरा संभल कर.. :)

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

यात्रा व्रतांत पढ़ कर लगा उसी बस मे है ताऊ के पीछे .

सुशील छौक्कर said...

आपके इस यात्रा संस्मरण को पढकर मुझे भी अपनी हिसार की यात्रा की याद आ गई। बहुत साल पहले की। पीले सरंसों के फूल ,गेहूं की नवजात बालियाँ भागती हई नजर आती थी। मैं भी बाहर देखने लगती हूँ .. गांव है ,घरों के आगे चारपाई पर हुक्के सुलगे हुए हैं .कई बुजुर्गवार बैठे हैं .....घर के आगे की हवेली में ट्रेक्टर और भेंसे बंधी हुई हैं ....सड़क के साथ ही एक स्कूल से लड़के नीली वर्दी पहने निकल रहे हैं और जाते हुए ट्रेक्टर में लदे गन्नों को लपकने की कोशिश में हैं।

सच पूछिए तो रंजू जी मुझे गाँव की मिट्टी की वो खूशबू का अहसास हो रहा है जब मैं अपने बेलों को पानी पीलाने तालाब पर ले जाता था तो पैरों पर वो गाँव की मिट्टी लग जाती थी और भेसों,बेलो के दोडने से जो मिट्टी उड़ती थी उसकी महक आज फिर से याद आ गई। वो चीजे मुझे अपनी तरफ खीचती है पर मै जा नही पाता। अजीब जिदंगी हो गई है। खैर आपकी पोस्ट पढकर अच्छा लगा। पुरानी यादों में खो गया।

नीरज गोस्वामी said...

रंजना जी ...आप ने अपने शब्द कौशल से दिल्ली से हांसी की यात्रा को कितना यादगार बना दिया है...आपकी लेख़नीपूरे चित्र खींचने में कामयाब हुई है...बहुत अच्छा लगा आप की इस यात्रा का विवरण पढ़ कर...आप बच gayin kyun की आप को बचना ही था...अभी तो आप से हम को ऐसीबहुत सी बातें जो सुननी हैं...ishwar को मालूम है ना...आप सौ वर्ष खुशी खुशी जिए...ये कामना करते हैं.
नीरज

Unknown said...

bahut accha yaatra vritaant raha....
aur sahi men wo din dur nahi jab charo taraf concrete ke jangal hi dikenge..

सुशील छौक्कर said...

अरे यादों में ऐसा खोया कि बाद की बातों को तो भूल गया। "मैडम आज तो बच गए "
ये तो बडे बुर्जुगों का आशीर्वाद और छोटों का प्यार होता है जो कही भी हमें बचा लेता है।
घने ठंड के कुहरे में
दूर गावं से आए यह मजदूर
फटे पुराने कपडों से ढकते तन को
ख़ुद को दे सके न चाहे एक छत
पर आने वाले वक्त को
मेट्रो और सुंदर घरों का
एक तोहफा
सजा संवार के दे जायेंगे !!

सच कैसी विड्म्बना हैं। अच्छा लिखा है।

डॉ .अनुराग said...

हमारा तो जी टी रोड से रिश्ता पुराना है जी....उस हाई वे पर हमने कई बिल्डिंगो के संस्करण ओर नए बोर्ड देखे है.....पानी पट पर ओवर ब्रिद्ज के बाद ड्राइविंग का मजा कुछ ओर ही है......ताऊ जी ने पहेली नही पूछी ?

आलोक साहिल said...

mere grihshahar ki yad aa gayi madam ji,khubsurat andaaj...
ALOK SINGH "SAHIL"

mehek said...

bahut achha yatra vivaran aur puarane dino ki yaadein rahi.

Himanshu Pandey said...

अच्छा विवरण. अच्छा लगा पढ़कर. धन्यवाद.

Tapashwani Kumar Anand said...

bahut hi sundar bhav abhivyakti hai. aapki pakad gadhya aur kavya par bahut hi achchi hai sukun mila padh kar
bahut badhiya......

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह संस्मरण तो है ही, एक संपूर्ण कहानी भी है। बहुत बहुत सुंदर मुझे सत्तर के दशक की कहानियाँ याद आ गईं।

ताऊ रामपुरिया said...

सबसे पहले तो आपकी सलामती के लिये ईश्वर को धन्यवाद. आपके स्वस्थ सुन्दर और सुदिर्घ जीवन की कामना है इश्वर से.

असल मे आज भी गांव मे ताऊ जिन्दा है. कहीं नही गया है. हम लोग शहरों के ढकोसले और अंधी दौड मे इस ताऊत्व से दूर हो गये हैं और इसी वजह से परेशान हैं.

निजी रुप से मैं साल मे १५ दिन आज भी गांव (स्वाभाविक है हरयाणा मे ही है) चला जाता हूं. चूंकी वहा आज भी खेती किसानी और भैसे गाये हैं तो उनके बीच शहर की आपाधापी कहां पीछे छूट जाती है? पता ही नही चलता.

लेकिन इस सुंदर पृष्ष्ठभूमी के पीछे का एक सच और है कि गांवों मे ताऊ लोग अब जरा दारू सेवन करने लगे हैं और ये बात वहां का माहोल खराब करती है. फ़िर भी अबभी मुझे गांव पसंद है. क्योंकि गांव भी अब जीवन की हकीकत के ज्यादा से ज्यादा नजदीक हैं. और एक अच्छी बात कि वहां पर अब ये नीले ड्रेस वाले लडके लडकियां बहुत अच्छी और शिक्षा मे रुझान रखते हैं, ज्यादातर ग्रामीण लडकिया शिक्षित हैं, ये उपलब्धि ही है. मेरे देखते २ यह बदलाव आया है.

रामराम.

Nikhil said...

अच्छी लगी आपकी यात्रा हमें भी....आगे भी आता रहूंगा आपके ब्लॉग पर...

निखिल

Vineeta Yashsavi said...

घने ठंड के कुहरे में
दूर गावं से आए यह मजदूर
फटे पुराने कपडों से ढकते तन को
ख़ुद को दे सके न चाहे एक छत
पर आने वाले वक्त को
मेट्रो और सुंदर घरों का
एक तोहफा
सजा संवार के दे जायेंगे !!

Kavita aur yatra vritant dono hi bahut achhe.

Vineeta Yashsavi said...

घने ठंड के कुहरे में
दूर गावं से आए यह मजदूर
फटे पुराने कपडों से ढकते तन को
ख़ुद को दे सके न चाहे एक छत
पर आने वाले वक्त को
मेट्रो और सुंदर घरों का
एक तोहफा
सजा संवार के दे जायेंगे !!

Kavita aur yatra vritant dono hi bahut achhe.

Anonymous said...

प्रगती की कीमत कोई ना कोई चुकाता ही है. सुंदर यात्रा विव्रण. आभार.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बहुत सजीव लिखा आपने ऐसा लगा मानोँ हम भी आपके सँग ही हो लिये हैँ और अच्छा है
सब ठीक रहा

Arvind Mishra said...

अवचेतन ब्लागिंग के साथ चेतन जगत की बहुत कुछ बयां करती यह संस्मरण यात्रा -

दिगम्बर नासवा said...

आपका यात्रा प्रवाह समय के साथ साथ आए बदलाव को बारीकी से बयान करता है बदलती व्यवस्था, बदलता परिवेश इंट गारे के बढ़ते जंगल..............एक सफर को बयान करते है. ताऊ की याद आपका ब्लॉग पढ़ते हुवे मुस्कान ले आयी.......सार्थकता है ये उनकी लेखनी की

अभिषेक मिश्र said...

वर्षों पहले एक क्रन्तिकारी कवि ने सवाल उठाया था, जिन हाथों ने बिल्डिंग्स, universities, theaters बनाये वो आज कहाँ हैं. आपकी कविता आज भी उन सवालों के जवाब ढूंढ़ रही है.

Science Bloggers Association said...

रोचक एवं प्रभावपूर्ण यात्रा वृत्‍तान्‍त। बधाई।