Tuesday, November 11, 2008

देवरानी जेठानी की कहानी


आज हम कितने ही हिन्दी उपन्यास पढ़ते हैं ..पर क्या आप जानते हैं कि पहला हिन्दी का उपन्यास कौन सा है .. हिन्दी का प्रथम उपन्यास है देवरानी जेठानी की कहानी" यह लिखा हुआ पंडित गौरी दत्त जी के द्बारा | इस उपन्यास को न केवल अपने अपने प्रकाशक वर्ष १८७० वरन अपनी लिखे जाने के लिहाज से भी पंडित गौरीदत्त की कृति देवरानी जेठानी की कहानी को हिन्दी का पहला उपन्यास होने का श्रेय जाता है | इस में लिखा इतना बढ़िया है कि उस समय का पूरा समाज ही ध्वनित होता है .जैसे बालविवाह ,विवाह में फिजूल खर्ची .स्त्रियों का गहनों से लगाव .बंटवारा .वृद्धों और बहुओं को समस्या .शिक्षा ,स्त्री शिक्षा ..अपनी अनगढ़ ईमानदारी में यह उपन्यास कहीं चूकता नहीं |

डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति

इसको भाषा इतनी जीवंत है कि आज के साहित्याकारों को भी दिशा दिखा देती है ..और अपने लेखन से नए समय के आने की आहट देती है | यदि डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति को जानना हो तो इस उपन्यास से बेहतर कोई साधन नही हैं ..| पंडित गौरी दत्त के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिन्दी के प्रचार प्रसार में अपनी सारी जायदाद तक लगा दी थी |इस के लिए उनकी समानता मालवीय जी .महावीर प्रसाद दिवेद्धी.बाल कुमुन्द गुप्त तक से की जाती है |

५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने

प्रथम हिन्दी उपन्यास देवरानी जेठानी की कहानी १८७० में मेरठ के एक लीथो प्रेस छापाखाना ऐ जियाई में प्रकाशित हुआ था |तब इसकी ५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने था | कुछ समय तक इस उपन्यास को नारी शिक्षा विषयक कह कर उसके समुचित गौरव से इसको वंचित रखा गया किंतु अपनी गहरी सामाजिक दृष्टि और मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यह एक ऐसा उपन्यास बन गया जिसकी तुलना किसी से नही की जा सकती है | छोटे आकार की सिर्फ़ पैंतीस पृष्ठों की यह कृति उस वक्त के सामाजिक समस्याओं को इतने अच्छे तरीके से बताती है कि प्रथम उपन्यास में ही यह कमाल देख कर हैरानी होती है | उस वक्त के इन समस्याओं के साथ साथ जीवन के चटख रंगों में पूरे प्रमाण के साथ लिखा गया है | इसकी भाषा उस वक्त की जन भाषा से जुड़ी हुई है | किस्सागोई का अनूठा प्रयोग है और लोक भाषा के अर्थ गर्भित शब्दों के सचेत प्रयोग किए गए हैं .जैसे ..

""जब वह सायंकाल को सारे दिन का थका हारा घर आता ,नून तेल का झींकना ले बैठती | कभी कहती मुझे गहना बना दे ,रोती झींकती ,लड़ती भिड़ती |उसे रोती न करने देती |कहती कि फलाने की बहू को देख ,गहने से लद रही है |उसका मालिक नित नई चीज लावे है |मेरे तो इस घर में आ के भाग फूट गए | वह कहता ,अरी भगवान् ,जाने भगवान रोटियों की क्यों कर गुजारा कर रहे हैं ,तुझे गहने -पाते की सूझ रही है?"

नारी शिक्षा ,बाल विवाह ,विधवा विवाह
नारी शिक्षा किस प्रकार सामजिक परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निबाह कर सकती है इस पर उस वक्त भी उपन्यास कार सोचता है ..उस वक्त बाल विवाह खूब हो रहे थे .किंतु छोटी बहू और उसका पति छोटेलाल अपने पुत्र मोहन को खूब पद्वाना चाहते हैं ."नन्हे की सगाई कई जगह से आई पर छोटेलाल और उसको बहू ने फेर दी | और यह कहा की पन्द्रह -सोलह वर्ष का होगा तब विवाह सगाई करेंगे |" उस समय के समाज में यह बहुत बड़ी बात थी बहुत बड़ा निर्णय | छोटे छोटे बच्चो ५ या ६ साल के इस से भी पहेल विवाह हो जाया करते थे |विधवा विवाह की तो हिन्दी उपन्यास में बहुत बाद में चर्चा की गई शायद सेवा सदन में प्रेमचंद के उपन्यास में किंतु प्रथम उपन्यास में इस और भी ध्यान दिया गया | छोटे लाल की बहू की मामा की बेटी का नौ वर्ष की आयु में विवाह हुआ था ,और उसका पति पतंग उडाते हुए छत से नीचे गिर गया और प्राण त्याग दिए | इस तरह वह मात्र दस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई | वह सात फेरों की गुनाहगार अपने जीवन के सब रास रंग खो देती है | जिसके अभी खेलने खाने के दिन थे वह दिन उसको कठिन वैधव्य में बीतने पड़े | पुनर्विवाह उस वक्त सबसे बड़ा पाप समझा जाता था ,पर १८७० में लिखे इस उपन्यास में यह क्रांतिकारी कदम भी दिखाया गया है |

लुप्त होते शब्द

बहुत से इस उपन्यास में इस तरह के शब्द भी आये हैं जो शायद कुछ समय बाद बिल्कुल विलुप्त हो जायेंगे या हो चुके हैं | जैसे मंझोली ..यह शब्द बैलगाडी और बैल टाँगे के मध्य की चीज के लिए उस वक्त इस्तेमाल किया जाता था | मांदी शब्द का इस्तेमाल लम्बी बीमारी के लिए हुआ है किंतु अब मेरठ क्षेत्र से यह शब्द पुरानी पीढी के साथ गायब होता जा रहा है | नौमी को आज भी कौरवी जन भाषा में नौमी ही कहा जाता है नवमी नहीं | उस वक्त के जन्म मरण .विवाह गौना ,आदि के समस्त लोकाचार का बहुत ही रसपूर्ण वर्णन है इस उपन्यास में |

इस तरह यह उपन्यास हमारी हिन्दी भाषा के लिए एक अनमोल धरोहर है | जिसको पढ़ कर उस वक्त के समय को समझा जा सकता है | अपने कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से देवरानी जेठानी की कहानी हिन्दी का प्रथम गौरव पूर्ण कृति ही नहीं है वरन यह हिन्दी उपन्यास के इतिहास में अपना दुबारा मूल्यांकन भी मांगती है |


यह लेख इस बार ९.११.०८ राजस्थान पत्रिका के रविवारीय अंक में भी प्रकाशित हुआ है ..आप इसको वहां भी पढ़ सकते हैं ...


17 comments:

Manvinder said...

aree waah ranju.....
ye to bahut achcha kiya.....
badhaaee bhi sweekaaro

Anonymous said...

waah itna puarana upanyas,pata bhi na tha ,aur kitmat bas 12 aane,tab bhi lekhak nari ki unnati ke bare mein sochta tha,bahut badhiya jankari rahi.

संगीता पुरी said...

अरे ! अच्‍छी जानकारी दी। कहां मिल सकती है अभी यह पुस्‍तक ?

परमजीत सिहँ बाली said...

जानकारी के लिए आभार।

Udan Tashtari said...

बढ़िया समीक्षा. मौका मिला तो पढ़ने की इच्छा रहेगी.

Abhishek Ojha said...

अरे वाह इतनी अच्छी जानकारी और हमें पता ही नहीं था !

कुश said...

arey waah ye to bahut badhiya jaankari rahi..

डॉ .अनुराग said...

जानकारी के लिए आभार।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बढ़िया जानकारी के लिए आभार।

राज भाटिय़ा said...

धन्यवाद इस अच्छी जानकारी के लिये, मै अभी इसे ढुढता हूं

Smart Indian said...

इस ऐतिहासिक पुस्तक के बारे में इतनी जानकारी के लिए आभार। चित्र तो किसी हालिया पुनर्प्रकाशन का लगता है। क्या इस नए संस्करण की कुछ जानकारी मिल सकती है?

Alpana Verma said...

achchee samikhsha ki hai--jaankari ke liye dhnywaad

seema gupta said...

"interesting to read, thanks for sharing this information"

Regards

Satish Saxena said...

नयी जानकारी दी आपने ! रोचक लगा !

pallavi trivedi said...

bahut badhiya jaankari aur sameeksha....shukriya

मोहन वशिष्‍ठ said...

रंजना जी इतनी अच्‍छी जानकारी देने के लिए बारम्‍बार धन्‍यवाद सच आजतक पता ही नहीं था

Anonymous said...

अच्छी जानकारी दी है