Thursday, May 22, 2008

क्या आज का सिनेमा टीवी हमे सिर्फ़ यांत्रिक मानव बना रहा है ?

आज का युग केबल युग है ..दिन की शुरुआत होती है टीवी को आन करने से और फ़िर दिमाग पर छाने लगता है जादू रुपहले परदे का ..कभी यह चैनल कभी वह चैनल कहीं नाचते सितारे कहीं हत्या और कहीं एक्सीडेंट .इन सब के बीच में हर ख़बर चैनल पर भविष्य बताता हुआ कोई बाबानुमा व्यक्ति ...अखबार के विज्ञापन से शुरू हुई अभिनेता और अभिनेत्री को देखने की यात्रा रात को किसी घटिया पिक्चर या बेहूदे से किसी सीरियल की कहानी पर खत्म होती है ..पहले फ़िल्म देखते थे तो लगता था जैसे कुछ अपने अन्दर समेट के ले आए हैं ..अब सिनेमा हाल में जाते ही बत्ती गुल होते ही दिमाग की बत्ती भी गुल हो जाती है ..जैसे दिमाग तीन घंटे तक किसी समाधि में चला जाता है और पिक्चर खत्म होते ही शुरू हो जाता है दिमाग में बिम्बों और छवि का छाना..पहले हम सिनेमा देखते थे अब सिनेमा हमे देखता है क्यूंकि इस आने वाली अब तस्वीरे इतनी आक्रामक और उतेजित होती हैं जो हमारी कल्पना की दुनिया से हमे कहीं दूर ले जाती हैं ......आज कल बनने वाली फिल्मों में कुछ एक आध फिल्म ही दिल को छू पाती है पर अधिकतर तो पता नही कब आई कब गई की तर्ज़ पर ही बन रही हैं .पहले सिनेमा में सिर्फ़ दो ही सिथ्ती होती थी एक गांव और एक शहर की संस्कृति अब यह जो सिनेमा की छवि है वह सिर्फ़ सिनेमाई संस्कृति है जो हमे सच की दुनिया से दूर लेती जा रही है .हमारे दिलोदिमाग को टीवी और सिनेमा के इन दृश्यों ने इतना कब्जा कर लिया है कि अब हमारे दिमाग दिल में कल्पना के लिए जैसे कोई जगह ही नही बची है दिमाग में हमारे ..यदि कोई कुदरत का नज़ारा कुछ देर के दिल को किसी कल्पना तक ले भी जाना चाहता है तो उसी वक्त कोई अजब सी पोशाके पहने इस तरह का गाना शुरू हो जाता है कि हमारा ध्यान उस कुदरत के नजारे से निकल कर उन्ही की अदाओं और पोशाकों में उलझ के रह जाता है, जिस में रह जाता है सिर्फ़ शब्दों का नकली दिखावा बड़े भव्य सेट्स झिलमिलाती अधनंगी सी पौशाके जिनको हम तो देख ही रहे हैं पर उस पर त्रासदी यह है की आने वाली भावी पीढ़ी को भी हम कुछ दे नही पा रहे हैं इन के द्वारा अब चाहे वह सिनेमा हो या केबल से जुडा घर का टीवी बक्सा ....क्यों आखिर हो रहा है ऐसा ? क्यूंकि यह सब हमारे जीवन की किसी भावात्मक और कलात्मक सोच को नही बताते बलिक यह सिर्फ़ कुछ पल के लिए एक उतेजना देते हैं जो हमारी किसी सोच को कल्पना नही दे पाते हैं ..यदि यही हाल रहा तो भविष्य में सिर्फ़ फेंत्सी ही ज़िंदगी बन के रह जायेगी और हम टीवी या सिनेमा नही देखेंगे यह हम पर इतना इस कदर हावी हो जायेंगे की हम कल्पना अपनी सोच सब भूल के सिर्फ़ एक यांत्रिक मानव बन के रह जायेंगे ..

6 comments:

Alpana Verma said...

Bahut sahi likha hai ranju ji aapne...yahan to TV ghar ke sadsy[member] ki tarah hai..jis din us ki awaz na suno to lagta hai kuch missing hai..

Mohinder56 said...

आदमी अपने जीवन की रोजमर्रा के रूटीन से अलग कुछ देखना ज्यादा पसन्द करता है... और जब टी वी और सिनेमा यह परोसता है तो निश्चय ही उसके प्रति आक्रषण स्वाभाविक है...

बाकी सब का अपना अपना टेस्ट है किसी को कोई बांध ले यह मुमकिन नहीं :)

डॉ .अनुराग said...

बूढे आश्रम मे है ,बचपन कहानिया टी.वी मे खोज रहा है ,सबकी अपनी जरूरते है...जिंदगी मे रिश्ते - नाते सब priorty बेस पर है.......दरअसल हम ख़ुद ही अपनी इचछायो के गुलाम हो गए है......

कुश said...

हमने तो कब का टी वी को तलाक़ दे डाला..

Udan Tashtari said...

टीवी और सिनेमा हाबी हो जाता मगर उब कर देखना छोड़ दिया और इसके लिये आभारी हूँ मैं सभी खबरिया चैनलों का एवं एकता कपूर का. सिनेमा के लिए मेरा आभार जाता है जोधा अकबर को. :)वैसे आपकी बात से सहमत हूँ.

राकेश खंडेलवाल said...

अपनी अनुपलब्धियों की छटपटाहट और सपनों में विचरण करने का आकर्षण जब सर पर चढ़ने लगें तो विवेक साथ छोड़ ही देता है. संतुलन एक आवश्यकता है.....