Wednesday, October 17, 2007

"'ढाई आखर प्रेम के [दूसरी कड़ी ]



प्रेम एकांत है
नाम नही
जब नाम बनता है
एकांत ख़त्म हो जाता है !!


प्रेम विषय पर लिखते लिखते मुझे यहाँ लव गुरु की उपाधि दे गयी है :) बहुत बड़ी उपाधि है यह
और मैं तो अभी प्रेम के ढाई आखर को समझने में लगी हूँ ...वैसे प्रेम ही एक ऐसी चीज़ है जिसको दोनो हाथो से लुटाओ वो उतना ही बढता जाता है ...इसी से जुड़ी अगली कड़ी "'ढाई आखर प्रेम के ''में कुछ और बाते प्रेम पर ....वैसे इस पर जितना लिखा जाए उतना कम है क्यूंकि यह विषय अपनी प्रकति, नाम के अनुसार इतना गहरा है की जितना इस में डूबेंगे उतना ही इसको समझ पाएँगे ....
जब यह हो जाए तो कहाँ देखता है उम्र ,,कहाँ देखता है जगहा ,और कहाँ अपने आस पास की दुनिया को देख पाता है बस डुबो देता है ख़ुद में और पंहुचा देता है उन ऊंचाई पर जहाँ कोई रूप धर लेता है मीरा का तो कही वो बदल जाता है रांझा में .....पर सच्चा प्रेम त्याग चाहता है ,बलिदान चाहता है उस में दर्द नही खुशी का भाव होना चाहिये
हम सभी ईश्वर से प्रेम करते हैं और साथ ही यह भी चाहते हैं की ज्यादा से ज्यादा लोग उस ईश्वर से प्रेम करें पूजा करें वहाँ पर हम ईश्वर पर अपना अधिकार नही जताते !हम सब प्रेमी है और उसका प्यार चाहते हैं परन्तु जब यही प्रेम किसी इंसान के साथ हो जाता है तो बस उस पर अपना पूर्ण अधिकार चाहते हैं और फिर ना सिर्फ़ अधिकार चाहते हैं बल्कि आगे तक बढ जाते हैं और फिर पैदा होती है शंका ..अविश्वास ...और यह दोनो बाते फिर खत्म कर देती हैं प्रेम को ...मीरा को कभी भी श्री कृष्णा और अपने प्यार पर कभी अविश्वास नही हुआ जबकि राधा को होता था अपने उसी प्रेम विश्वास के कारण कृष्णा को मीरा को लेने ख़ुद आना पड़ा प्रेम चाहता है सम्पूर्णता , मन का सम्पर्ण ,आत्मा का सम्पर्ण ....तन शाश्वत है .,.हमेशा नही रहेगा इसलिए तन से जुड़ा प्रेम भी शाश्वत नही रहता जिस प्रेम में अविश्वास है तो वह तन का प्रेम है वह मन से जुड़ा प्रेम नही है जिस प्रेम में शंका है वह अधिकार का प्रेम है........
कुछ समय पहले इस पर लिखी कुछ पंक्तियां थी ...

""जिन्दगी के सफर में चलते चलते तुम मिले
मिले तो थे तुम खुशबुओं के झोंको की तरह
लेकिन देह की परिभाषा पढ़ते पढ़ते
जाने कहाँ तुम गुम हो गए !
काश की इस रूह को छू पाते तुम
काश की इस रूह को महसूस कर पाते तुम
अगर छुआ होता तुमने रूह से रूह को
तो यह जीवन का मिलन कितना मधुर हो गया होता
पा जाता प्रेम भी अपनी सम्पूर्णता
यदि तुमने इसको सिर्फ़ दिल से रूह से महसूस किया होता !!""



फिर मिलूंगी आपसे .इस सुंदर विषय पर सुंदर बाते ले के !!


रंजना [रंजू]

13 comments:

Atul Chauhan said...

रूह और देह की काफी गहरी समीक्षा की है आपने। आपके लेखों को पढने के बाद आपको "लव गुरू" की उपाधि यदि दी है तो गलत नहीं है। आजकल प्रेम ………………"देह की भूख" तक सिमट गया है। प्यार की तडफ,दर्द,अह्सास,कशिश,तम्मनाएं,
खुमारी…………सब दूर की कौडी दिखाई देती हैं। इस विषय पर किसी महिला लेखक की बेबाक टिप्पणी…………वाकई सोचने पर मजबूर कर रही है।

Sanjeet Tripathi said...

चिंतन के लिए मजबूर करता लेखन!!
जारी रखें

हरिराम said...

सच कहा है आपने, "प्रेम देह की वस्तु नहीं"

जो प्रेम को शारीरिक क्रिया तक सीमित मानते हैं, वे जरा सोचें, यदि एक प्रेमी की प्रेमिका अचानक मर जाए, तो क्या वह उसके सुन्दर "शव" के साथ वो सबकुछ करेगा?

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दरता से बात रखी है. खास कर इस पर रचित कविता-

पा जाता प्रेम भी अपनी सम्पूर्णता
यदि तुमने इसको सिर्फ़ दिल से रूह से महसूस किया होता !!

-बहुत खूबसूरत. बाधाई. आगे इन्तजार है.

अमिताभ मीत said...

विषय भी सुंदर है और रचना भी. विचारों की गहराई बहुत सराहनीय है. पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.

मीत

Divine India said...

आप उस उपाधी की पूरी तरह से हकदार हैं…
आपकी कविताएँ होती है प्रेममय जो आजकल
की लेखनी में कहाँ देखने को मिलती है… आज
तो लोग एक बात पर कई बातें कर करके उसका
चेहरा ही बिगाड़ देते हैं आप तो कम से कम प्रेम
और स्नेह से उसे सुधारने का मात्र प्रयत्न कर रही हैं।
शानदार लेख लिखा है बहुत गहरा बहुत उम्दा!!!

sanjay patel said...

प्रेम में सात्विकता ख़त्म हो रही है इन दिनो...प्रेम को बस देह या स्त्री - पुरूष के इर्दगिर्द देखा जा रहा है. जैसे मेरा एक मित्र है जिससे मेरा इतना सघन प्रेम है कि मैं बस दिल में ख़याल लाता हूँ और उसका फ़ोन आ जाता है. कई बातें ऐसी हैं जीवन के संघर्ष की जो मैं अपनी जीवन संगीनी नहीं अपने मित्र से करता हूँ ..इसका कारण एक तरह का रूहानी प्रेम ही है. वो मिठाई बेचता है...मैं क़लम चला कर गुज़ारा करता हूँ ..लेकिन प्रेम अखंड है . तो मुझे लगता है कि देह और स्त्री-पुरूष से ऊपर उठ देखा जाना चाहिये प्रेम को. मीरा और श्रीकृष्ण का प्रेम सिर्फ़ भक्ति पदों में नहीं जीवन में उतारने के लिये होना चाहिये.

Asha Joglekar said...

प्रेम अनुभव करने की भावना है । देह की जरूरतें तो सबकी पूरी हो ही जाती हैं प्रेम नसीब वालों को ही मिलता है । आपका लेख वाकई एचछा है ।

Kavi Kulwant said...

Rooh tak choo lena..
shayad yahi pyaar hai..
Han yahi pyaar hai..
bahut din baad aaya yahan.. bahut achcha laga aap ke yeh rachana dekh kar.. badhayi sweekaren.. is khoobsurat rachana ke liye..
kavi kulwant
Aaj Roman mein likh raha hun kyoki is pc mein hindi font nahi hai.. kshama chata hun..

अजित वडनेरकर said...

बहुत सुंदर रंजूजी। प्रतिक्रिया देर से दे रहा हूं इसके लिए मुआफी चाहूंगा।
साथियों ने जो कुछ लिखा है वही सारे मिले-जुले भाव मेरे भी हैं आपके लेखने के बारे में ।
सफर चलता रहे। शुभकामनाएं और शुक्रिया दोनो ही...

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav said...

क्या परिभाषा दी है प्रेम की...
ठीक ही दी है लव गुरू की संज्ञा आपको

प्रदीप सिंह said...

bahut achcha liha ranju ne; dil khush ho gaya.

धीरेन्द्र सिंह said...

मन का कहा जब शब्दों में परिवर्तित हो जाता है तो उसका अहसास अपनी पूरे अस्तित्व के साथ जुड़ता है और पाठक उस दुनिया में मुग्धावस्था में देर तक भ्रमण करते रहता है। ढाई आखर प्रेम के... एक लेख नहीं बल्कि एक प्रंम नगर की यात्रा लगा जो मेरी निज़ता में पैठते हुए न जाने किन-किन लोकों को भ्रमण कराया। सोने पर सुहागा कर्सर से जुड़ा गुलाबी दिल लगा। मुझे यह प्रेम की वर्चुअल यात्रा लगी। आज का दिन प्रंम दिवस के रूप में मनाया जा रहा है और मैं प्रेम की गहराई में झांकने का अनुभव प्राप्त कर रहा हूँ, कुछ विशेष रहा मेरे लिए, यह.