कल कमरे की
खुली खिड़की से
चाँद मुस्कराता
नज़र आया
खुल गई भूली बिसरी
यादो की पिटारी...
हवा ने जब
गालों को सहलाया,
उतरा नयनो में
फ़िर कोई लम्हा
जीवन के
उदास तपते पल को
मिली जैसे "तरुवर की छाया.."
कांटे बने फूल फ़िर राह के ..
दिल फ़िर से क्यों भरमाया..?
हुई यह पदचाप फ़िर किसकी..?
दिल के आँगन में
जैसे गुलमोहर खिल आया..
कहा ...दिल ने कुछ तड़प कर
जो चाहा था ,वही तो पाया..!!
वक्त ने कहा मुस्करा कर...
कहाँ परिणाम तुम्हे समझ में आया?
तब तो रखा बंद
मन का हर झरोखा
आज फ़िर क्यों
गीत, प्रीत का गुनगुनाया?
भरे नैनों की बदरी बोली
छलक कर....
खोनी ही जब प्रीत तो....
फ़िर क्यों दिखती "प्रीत की छाया..!!! "
#रंजू #डायरी के पुराने पन्नो से
13 comments:
आपकी लिखी रचना सोमवार 17 अक्टूबर 2022 को
पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
आपकी लिखी रचना सोमवार 17 अक्टूबर 2022 को
पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
आपकी लिखी रचना सोमवार 17 अक्टूबर 2022 को
पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
सुंदर प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज सोमवार 17 अक्टूबर, 2022 को "पर्व अहोई-अष्टमी, व्रत-पूजन का पर्व" (चर्चा अंक-4584) पर भी होगी।
--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खोनी ही जब प्रीत तो....
फ़िर क्यों दिखती "प्रीत की छाया..!!! "
.. प्रीत की सार्थकता को परभाषित करती बेहतरीन रचना।
वक्त ने कहा मुस्करा कर...
कहाँ परिणाम तुम्हे समझ में आया?
सही कहा असली परिणाम तो वक्त के ही हाथ होता है
बहुत सार्थक सृजन।
प्रीत की छाया जीवन को कभी खुशी तो कभी दर्द दे जाती है।
बहुत सुंदर लेखन।
सादर।
प्रीत की प्रकृति को परिभाषित करती बहुत सुन्दर रचना ।
वियोग शृंगार का हृदय स्पर्शी सृजन।
बहुत सुंदर।
बहुत सुंदर रचना। बिछोह के दर्द का मर्मस्पर्शी चित्रण।
छाया कभी हाथ आयी है क्या ? मन यूँ ही भ्रमित होता रहता ।
उतरा नयनो में
फ़िर कोई लम्हा
जीवन के
उदास तपते पल को
मिली जैसे "तरुवर की छाया- बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति रंजू जी!
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