Saturday, June 11, 2022

गर्मी की छुट्टियां और मेरा बचपन

वापसी......


पिछले हफ्ते से अपने ब्लॉग *कुछ मेरी कलम से* पर वापसी की है। ब्लॉग के  वक्त की  दुनिया मुझे अपने मायके जैसी लगती है, जहां प्यार है ,दुलार है मनुहार है। है तो यह घर अपना ही पर हम ही घुमक्कड़ बने हुए हैं 😊 

 ब्लॉग लिखना मुझे जैसे उस वक्त की याद दिलाता है जैसे जब लिखने की दुनिया में "पैयाँ पैयाँ" चलना शुरू किया था। बहुत कुछ सीखा और एक विश्वास हासिल किया । बहुत से दोस्त बनाए कुछ आज तक जुड़े हुए हैं कुछ कहीं खो गए पर रह रह कर उस ब्लॉग की दुनिया में झांक आती थी ,कभी उसके आंगन में टहल कर कुछ लिख कर ,कुछ दोस्तों के ब्लॉग पर झांक कर। 

कुछ वक्त से अब रेगुलर बुक्स पढ़ना शुरू किया और पढ़ते हुए फिर से बहुत कुछ लिखने की इच्छा जागने लगी। महसूस किया कि जब आप अच्छा और नियमित पढ़ते हैं तो लिखने से खुद को रोक नहीं पाते ।आखिर मन के उमड़ते भावों को जो अधिक शब्दों के भी हो सकते हैं ,उसका अपने ब्लॉग घर के सिवा सही ठिकाना और क्या हो सकता है। 😊फेसबुक तो ससुराल की तरह कम शब्दों में अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने की करता है।

और यह देख कर जान कर खुशी हुई कि कुछ पुराने मित्र आज भी ब्लॉग के लिंक शेयर करके होंसला बड़ा रहे हैं। मैं तहे दिल से अपने उन दोस्तों का शुक्रिया अदा करती हूं। @dr रूपचंद शास्त्री, @संगीता जी वा अन्य सभी दोस्तों का 🙏🙏

  आज कुछ यादों से अपने बचपन के बीते पल सांझे कर रही हूं..जो पीछे बीते lockdown में लिखी। 

गर्मी की छुट्टियां और मेरा बचपन..



   गर्मी की छुट्टियां बचपन की ,बहुत सी यादों से जुड़ी है । आज कल जब हम सब अपने घरों में बन्द है । घर के बाहर से आने वाली ताज़ी हवा और कोई प्रदूषण नहीं मुझे उन दिनों में वापस ले जाती है । तब भी कोई शोर नहीं ,सिर्फ पत्तों की आवाज़ और कूकती कोयल की तान ,दिल कहता है कि वापस इसी आवाज़ के साथ गांव में चली जाऊं । जहां अपने बचपन में हर छुट्टियों में जाने का इंतज़ार रहता था । 

    मेरा जन्म मेरे दादा जी के घर जो जिला" रोहतक के कस्बे में बसा "कलानौर" नाम का छोटा सा गांव जैसा ही था ।उसके एक मिट्टी के कच्चे कमरे में हुआ । अपने बहुत यंग माता पिता की मैं पहली संतान हूँ । उस वक़्त न जाने किन सुविधाओं के तहत मेरी माँ ने मुझे वहां गांव में जन्म दिया होगा ,नहीं समझ पाती । पर बुआ बताती है कि जब मैं हुई तो बहुत लाल टमाटर सी और गोल मोल थी । 

    मिट्टी के उस कमरे की खूशबू शायद तभी मेरे अंतस तक बसी हुई है जहां मैं पहली बार रोई ,मुस्कराई ,और आंखे खोली। पापा की जॉब ट्रान्सफर वाली थी सो अलग अलग जगह रहते थे हर तीन साल के अंतराल के बाद । मेरे बाद मेरी दो बहनों का जन्म और हुआ ,क्रमश साल और पांच साल के अंतर में। स्कूल शहर के रहे और बीच मे होने वाली छुट्टियां गांव दादी ,और रोहतक में रहने वाली नानी का घर जाने का मुख्य आकर्षण रही। 

    अप्रैल आते आते इनका इंतज़ार शुरू हो जाता था । और पहली छुट्टी होते ही वहां पहुंचने की जल्दी। चूंकि दोनों जगह ,नानी ,दादी का घर दो घण्टे पर बस की दूरी पर थे । तो आधी छुट्टियां दादी के घर और आधी नानी के घर बिताते थे । दोनो ही जगह के अपने ही आकर्षण थे। दादी के घर का खुला आंगन मिट्टी के कमरे ,कच्चे आंगन में बनी रसोई और सबसे अधिक वहां के बने बाथरूम और वाशरूम अभी भी याद आते हैं। उस घर मे सिर्फ एक ही पक्का कमरा और एक ही पक्का आंगन था । जिस पर दादा जी का कब्ज़ा रहता था , एक ही रिवॉलिंग पंखे के साथ । मजाल है कि उस पंखे को कोई अपनी तरफ कर सके । 

   सुबह 6 बजे तक हम सब को उठा दिया जाता था । उठते ही वाशरूम जिनके दरवाज़े ही नहीं होते थे । कच्ची सी एक टॉयलेट सीट होती थी ,जिसके पीछे बाहर की तरफ एक टीन का पर्दा सा लगा होता ,जिस से दोपहर में आ कर कोई जमादारिन उसको साफ़ करके जाती थी । पर उसके साफ़ करने से पहले ही वहां घूमते सुहर साफ कर जाते थे । बहुत रिस्की एडवेंचर लगता था वाशरूम जाना । वही कोने में घड़े में पानी और एक अलमुनियम का मग्गा रखा रहता था । जिसमें से पानी न खराब करने की सख्त हिदायत होती थी । दांत साफ नीम के दातुन से करते थे ।शहर में ब्रश करने वाले हम बच्चों के लिए यह भी मजेदार टास्क होता था। नहाने के लिए एक छोटी सी टँकी थी जिस से राशन में नहाने को पानी मिलता । क्योंकि वहां उस वक़्त कोई नल नहीं थे ।जिन घर मे हैंडपम्प था वहां से बुआ ,ममी पानी भर कर लाती और जिस दिन कपडे धुलने होते तो टिन के डिब्बे में ,मैले कपडे और एक चौड़ा सा बर्तन जिसको तसला कहते थे ,लकड़ी की थापी रख कर हम लोग बुआ के साथ कुछ दूर बनी एक नहर पर जाते । वो दिन पिकनिक जैसा हो जाता था । जी भर कर नहर में नहाना और घने पीपल के पेड़ की ठंडी हवा में खेलना आज भी यादों में बसा है । 

   दादी के हाथ के आटे के पूड़े और देसी घी के परांठों की चूरी का नाश्ता होता। दोपहर में सांझे तंदूर पर सबकी रोटी बनती । यह तंदूर गली के एक कोने में सबके लिए दिन और रात सांझा जलता । कांसे की थलियाँ ,कटोरियाँ और लस्सी के भरे वो गिलास ,सब आज भी जहन में जिंदा है । 

    दादा जी मास्टर थे । सो यहां आ कर भी पढ़ाई से पीछा नहीं छूटता था । नाश्ते के बाद 2 घण्टे की पढ़ाई करनी हर बच्चे के लिए जरूरी थी । फिर उसका अंत दादा जी द्वारा लाये गए बड़े से मीठे तरबूज को काट कर इनाम के रूप में मिलता । 

    शाम 4 बजे हमारे ही घर के आंगन में जहां छाया आ जाती थी ,वहां कथा होती थी । रोज़ ही इस होने वाली कथा में अंत मे मिलने वाला मीठे सफेद से चने और मिश्री का इंतज़ार रहता । 6 बजे शाम को हम चने और मक्की, गेहूं भुनवाने पास ही गली के कोने में बने किसी भड़भूजे ही कहा था उन्हें उसकी दुकान पर जाते थे । पैसे तो याद नहीं कितने देते थे। पर यह याद है कि जो भी भुनवाते उसका वह कुछ हिस्सा अपने मेहनताने के रूप में रख लेता था । 

    माखन , दही ,लस्सी तो यूँ ही किसी गाय भैंस वाले घर से ले आते थे ,बिना कोई दाम दिए । सिर्फ दूध के पैसे दादा जी देते थे। उन दिनों बर्फ की मलाई और ठप्पा लगाने वाली कुल्फी मिलती थी जो दादी आले में कंघी से उतरे हुए बाल या कपड़ों की कतरन के बदले होती थी । 

   रात 9 बजते बजते गायत्रीमंत्र का पाठ सब एक साथ करते । दादी आदम भू और कई तरह की मैजिकल कहानियां सुनाती ,जिनको आज मैं अपने नातिनों को सुनाऊं तो वो हंस देगी कि ऐसी भी कोई कहानियां होती है । पर मेरे मन के किसी कोने में वो सभी कहानियां आज भी मुस्कराती हैं । उन्हीं कहानियों के सहारे ही कितनी काल्पनिक जगह की सैर की है इस बाल मन ने यह मैं ही समझ सकती हूं । यह तो था दादी के घर के हिस्से की 15 दिन की छुट्टियां । बाकी बचे कुछ दिन हम रोहतक नानी के घर बिताते थे । बस में जाना, और इस छोटे से सफर में संतरे की खट्टी मीठी गोलियां खाना प्रमुख शगल होता था । 

   नानी के घर का माहौल दादी के घर से थोड़ा अलग था । एक तो यहां नानी नाना दोनो ही खूब पढ़े लिखे और अच्छे स्कूल में प्रिंसिपल और अध्यापिका थी । दूसरा आर्यसमाजी माहौल । यानी कि अधिक पढ़ाई ,हवन नियमित और गायत्रीमंत्र का जप जरूरी था । 

   नानी बहुत सफाई पसन्द थी । उनके घड़े को ,कोई हाथ नहीं लगा सकता था । उनकी रसोई में कोई नहीं जा सकता था । हमारे पहुंचने के साथ ही हम सब बच्चों को एक मिट्टी की सुराही दे दी जाती थी ।पूरा दिन इसी से पानी पियो । नानी के घर मे नल था जिसमे सुबह शाम पानी आता था । यहां टॉयलेट में दरवाज़े भी थे । पर पानी का उपयोग कम से कम किया जाए इस बात को ध्यान में रखना होता था । 

    नानी खाना बहुत अच्छा बनाती थी । उनके बनाये खाने में एक अलग ही स्वाद था । जब सुबह वो नहा कर सफेद साड़ी में रसोई में खाना बना रही होती तो उनका सुंदर गुलाबी चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने चमकता हुआ घूम रहा है । क्योंकि रोहतक एक जिला था ,ममी मासी की यहां शॉपिंग की मौज होती । वो तीनों अक्सर वहीं बिजी होती , और हम बच्चों की धमचोकडी नानी के हवाले जिसमे हम खूब डाँट भी खाते । पर वाकई वो दिन हमारे आने वाले बच्चे नहीं समझ सकते । उन्हें बताओ तो कहते है कि बिना पंखे के , बिना मोबाइल के कैसे रहते थे । उन दिनों कोई मूवी का शौक नहीं था ,कोई बाहर का खाना नहीं । बहुत होता था तो वहां के बड़े बाजार से पकोड़े कभी कभी आते । या

 याद आती है कि एक दाल की दुकान होती थी जहां से धीमी धीमी चूल्हे पर बनी हुई दाल आती थी । जिसको तड़का घर पर नानी लगाती थी शुद्ध देसी घी में। 

   बचपन में गर्मी की छुट्टियों में मिले यह यादगार लम्हें आज लिखते हुए फिर से इन लफ़्ज़ों में मुस्करा रहे हैं । मुझे लगता है मेरे जितने हमउम्र हैं उन के पास इसी तरह से किस्से होंगे । यादें होंगी जो गर्मी की छुट्टियों के साथ ही शुरू होती थी और फिर अगले साल के इंतज़ार में रहती थी ।

https://youtu.be/wfYj068KrTA





18 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बचपन सच ही बड़ा विशेष होता है । मुझे गाँव का अनुभव नहीं ,इसलिए ये संस्मरण बहुत रोचक लगा ।
ब्लॉग तो आपका अपना है यहाँ वापसी कैसी ? बस ब्लॉग कहता है कि कहीं भी घूमिये लेकिन मुझे न भूलिए ।

अच्छी पोस्ट ।

रंजू भाटिया said...

जी संगीता जी सही कहा है तो अपना घर ही ..😊🙏

Anonymous said...

बहुत सुंदर लिखा है 👏👏 y

Anonymous said...

दीदी आपने तो कलानोर भेज दिया मुझे, मुझे याद आ गया वहाँ एक बार जागरण भी करवाया था नाना जी ने, उनके लाये हुए तरबूजो को कौन भूल सकता है👍👍

रंजू भाटिया said...

शुक्रिया😊❤️

रंजू भाटिया said...

हां वो भी याद है अलका ,और भी बहुत सी यादें हैं वहां की जो भूले नहीं भूलती

Onkar said...

बहुत सुंदर

Usha Kiran said...

वाह…क्या खूब लिखा आपने । हमें हमारे बचपन की याद दिला दी। हम लोग भी छुट्टियों में गाँव जाते थे , वहाँ की स्मृतियाँ अब भी दिल में महकती रहती हैं 😊

Usha Kiran said...

आपने हमें हमारे बचपन की याद दिला दी । छुट्टियों में हम लोग भी गाँव जाते थे और बहुत मस्ती करते थे।आज भी वो यादें मन को महकाती रहती हैं। हम भाग्यशाली हैं जो हमने गाँव की मिट्टी, धूप, हवा को महसूस किया है😍🥰

Anonymous said...

Ranju, loved your blog on childhood. You had blessed childhood with maternal and paternal grandparents!
Shubh

रंजू भाटिया said...

शुक्रिया 😊🙏

रंजू भाटिया said...

बिल्कुल आज के बच्चों के पास यह सब नहीं है शुक्रिया 😊🙏

रंजू भाटिया said...

Thanku shubh, yes these are the beautiful unforgettable memories i have

Dr Kiran Mishra said...

बेहतरीन लिखा ! बचपन की पिक धीर- गंभीर ।

Dr Kiran Mishra said...

बेहतरीन लिखा ! बचपन की पिक धीर- गंभीर।

Dr Kiran Mishra said...

बेहतरीन लिखा ! बचपन की पिक धीर- गंभीर।

डॉ विभा नायक said...

वाह बहुत बढ़िया

Meena Bhardwaj said...

बहुत सुन्दर संस्मरण ।