Monday, November 04, 2019

प्रेम और ध्यान ( सीरीज 4 )

प्रेम की स्थिति सच में बहुत विचित्र होती है। मन की अनन्त गहराई से प्यार करने पर भी यदि निराशा हाथ लगे तो ना जिया जाता है ना मरा। जैसे कोई रेगिस्तान की गरम रेत पर चल रहा हो जहाँ चलते-चलते पैर जल रहें हैं पर चलना पड़ता है। बस एक आशा या मृगतृष्णा सी दिल में कहीं जागी रहती है कि अब कोई सच्चा प्रेम करने वाला मिल जायेगा शायद जीवन के अगले मोड़ पर ही।
मोहब्बत

अगर कभी गुजरो
मेरे दिल के दरवाज़े से हो कर
तो बिना दस्तक दिए
दिल में चली आना
कि तुम्हारे ही इंतज़ार में
मैंने एक उम्र गुजारी है !!
परन्तु जीवन चलने का नाम है और यह निरंतर चलता ही रहा है,बह रहा है,समय की धारा में। कोई भी रिश्ता यूँ ही एक दम से नही जुड़ जाता। हर रिश्ता अपना वक़्त लेता है। कोई भी व्यक्ति सभी से सहजता से संबंध नही बना लेता,अपने जीवन में वो अपने दिल के क़रीब बहुत कम लोगो को आने देता है। जब दो व्यक्ति एक दूसरे की तरफ़ आकर्षित होते हैं तो उनके भीतर होने वाली रासायनिक क्रियाएँ ऐसे प्रभाव पैदा करती है जिनसे उनके हाव भाव बदलने लगते हैं,घंटो एक-दूसरे से बाते करना चाहे उनका कोई अर्थ हो ना हो, दोनो के दिल को सुहाता है। पहले-पहल कोई भी रिश्ता दिल से नही जुड़ जुड़ पाता पर धीरे-धीरे सब कुछ जान कर व्यक्ति आपस में बंधने लगता है।

ध्यान

सिर्फ़ तुझ में गुम
दिल में यादों के साये
और आंखो में ख्वाब तेरे
ध्यान का एक सुंदर रूप
यह भी तो है !!


1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-11-2019) को     ""हुआ बेसुरा आज तराना"  (चर्चा अंक- 3511)     पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'