Thursday, November 26, 2015

कांच के शामियाने Book Review

" उन सभी के नाम ,जिनकी बातें अनसुनी ,अनदेखी और अनकही  रह गयी "कांच  के शामियाने " का पहला पन्ना और पढ़ने के बाद  लगा कि किसी  के लफ़्ज़ों ने तो उन दिलों की बात कह ही दी जो शायद कभी कह ही न सके ,मैं ,वो या कोई  भी अन्य स्त्री ,आज जिस समाज में हम रहते हैं और जहाँ स्त्री स्वंत्रता का  दावा किया जाता है ,वहां बहुत बदलाव होते हुए भी ,इस लिखे उपन्यास सा सच मौजूद है , आज औरत घर ,बाहर सब तरफ  की जिम्मेदारी बखूबी संभाल रही है ,पर हमारे समाज में पुरुष मन से उस बात को नहीं निकाल पा रही है कि वही सर्वेसर्वा है हर बात का चाहे औरत कितनी भी काबिल क्यों न  हो। ...

"कांच  के शामियाने" उपन्यास एक डायरी के पन्नो सा है जिसमे वक़्त  की चाल पर  जया का चरित्र आज भी शहर ,कस्बे ,गांव में बसी औरतों  के दर्द को ब्यान करता है ,जो समाज को प्रगतिशील होने का दावा करते हुए आईना दिखाती हैं ,पिता की लाड़ली बेटी माँ से अधिक समाज के लिए चिंता का विषय बन जाती है और फिर माँ बुढ़ापे और जिम्मेवारी की दुहाई दे कर बेटी की न नुकर  नहीं सुनती और शादी के लिए जोर देती रहती है ,अब यदि आज के वक़्त जिस में शहर के हालात या लड़कियों की शिक्षा के संदर्भ में देखा जाए तो यह सम्भव नहीं लगेगा जोर जबरदस्ती वाला मामला पर यह भी सच है कि उचित लड़का मिलते ही लड़की ब्याहने और जैसा भी है वही बसने को कहा जाता है अधिकतर ,हाँ कुछ केसेस अपवाद हो सकते हैं।  जया भी पढ़ लिख कर माँ की सेवा करना चाहती है ,शादी की सोच उसके मन  में नहीं पर पड़ोस के राजीव की माँ  जब अपने बेटे के लिए उसका रिश्ता ले के आती है तो जया की माँ को जैसे घर बैठे चिंता से मुक्ति मिलती लगती है ,भाई बहन के लिए अफसर लड़का हर तरह से योग्य नजर आता है और जया की आवाज़ इन सब में खो जाती है ,लड़के वालों की  दहेज़ की मांगे भी तब जया के घर वालों की आँखों के आगे पर्दा डाल देती हैं ,और कोई माने या माने आज प्रगति का दावा होते हुए भी यही सच्चाई है। लड़की की आवाज़ आज भी क्यों दबा दी जाती है ?शादी उसकी है ,जीवन उसका है पर समाज परिवार उसका फैसला करते हैं ,क्यों ?शादी के बाद इतनी प्रताड़ना ,इतनी कठोरता ,क्रूरता ,सब जानते हुए भी लड़की को वहीँ रहने के लिए मजबूर करना पढ़ते हुए एक क्रोध भर देता है। राजीव जैसा बुना हुआ चरित्र जो कहीं अपने ही किसी कपम्प्लेक्स का शिकार है ,आज भी हमें आस पास ही दिखता है। "बेटी तो धरती होती है और धरती की तरह सब सहती है "माँ के जया को समझाते कथन दिल में बेबसी  से    अधिक झंझोर देते है ,पढ़ते हुए दिल करता है कि उस माँ को कहूँ की बेटी की पीड़ा  को समझो उसको सहने की उस हद तक न ले जाओ कि वह खुद के अस्तित्व को ही मिटा दे ,इसी हालात  से गुजरते हुए तीन बच्चे उसके जीवन में एक उम्मीद की किरण लाते हैं ,और वही उसको उस नरक और मानसिक बीमार पति से छुटकारा दिलवाने का साहस बनते हैं।  
उपन्यास जब शुरू किया बहुत जगह  पढ़ते हुए गुस्सा भी आया कि आखिर इतनी बेबसी क्यों बुनी रश्मि ने अपने लफ़्ज़ों में ,पर कुछ सत्य हर किसी की ज़िन्दगी के कहीं  न कहीं करीब होते हैं ,सो  खत्म  किये बिना आप इसको रख नहीं सकते ,यही "रश्मि रविजा "द्वारा लिखे इस उपन्यास की उपलब्धि है। पूरे उपन्यास में हर चरित्र के साथ साथ वहां लिखे गए माहौल को भी मैंने शब्दों के साथ साथ महसूस किया , रहन सहन ,खाना पीना ,जया का रोना ,सहन करना ,रूद्र जया के पहले बच्चे की ख़ुशी और राजीव की असहनीय गाली ,मार ने अपने साथ साथ चलाये रखा ,कहीं कहीं किसी पुराने उपन्यास जैसे पढ़ने का भी एहसास हुआ।
 रश्मि रविजा के शब्दों के जादू से ब्लॉग की दुनिया से परिचित हूँ ,इसी जादू ने अपनी मोहकता यहाँ भी बनाये रखी ,बस कुछ जगह लगा कि कुछ चरित्र जैसे माँ ,सास एक औरत होते हुए भी उस दर्द को क्यों नहीं महसूस करवाये रश्मि ने ,चाहे आखिर में जया की माँ ने उसका साथ पूरा निभाया ,पर लगता है कि माहौल को बदलने के लिए अब इस तरह के चरित्र गढ़ने होंगे ,जहाँ सहन करना सम्भव नहीं वहां परिवार उस मुकाम पर आ के साथ न दे जब सहनशीलता खत्म होने के कगार पर हो ,वही से साथ दे जहाँ से शुरू में लगे कि यह अन्याय है ,राजीव जैसे चरित्र  के लोग असहनीय है और इसको नहीं सहना है। यह उपन्यास था जहाँ अंत सुखान्त हुआ पर असल में हर बार यही हकीकत नहीं होती।कहीं कहीं बार बार शब्दों का दुहराव भी है जो थोड़ा सा बोझिल लगता है। पर फिर अपनी रफ़्तार पकड़ लेता है।  
"कांच  के शामियाने " में इस शामियाने शब्द का अर्थ सार्थक हुआ घर तो कभी बना ही नहीं ,एक शामियाना  ही बन सका बस जो बना और बिखर गया ,रोचक उपन्यास है आपने अब तक नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़े। रश्मि को मेरी तरफ से इस सफल उपन्यास की बहुत बहुत बधाई। अगले का इंतज़ार शुरू :)

6 comments:

rashmi ravija said...

बहुत बहुत शुक्रिया रंजू
इतना सारा समय निकाल कर किताब पढ़ी और समीक्षा भी लिखी ।
तुम्हारे सुझाव जरूर ध्यान में रखूंगी ।
पुनः आभार :)

रश्मि प्रभा... said...

सार्थक समीक्षा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-11-2015) को "ये धरा राम का धाम है" (चर्चा-अंक 2174) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत बढिया समीक्षा है रंजू. बधाई रश्मि को और तुम्हें भी.

PAWAN VIJAY said...

कांचके शामियाने का होना या न होना एक ही बात। सटीकसमीक्षा।

Asha Joglekar said...

Badhiya sameeksha. Padhana padega is kitab ko.