Saturday, December 20, 2014

इंतज़ार


लम्हे वही थे ज़िंदगी के हसीन
जो बिताए हमने तेरे इंतज़ार में
फिर वक़्त कैसे बदल गया
रही ख़बर ना फिर मेरी ज़िंदगी की बहार में
कैसा मिलन था यह हमारा तुम्हारा
तुम पास थे मेरे इतने और
उस वक़्त मैं.... मैं नही थी
एक खुदा के नूर की तरह
तुम मुझे में समा गये
मेरी आँखो की चमक में
मेरी सांसो की रफ़्तार में
मोहब्बत के इज़हार में
ज़िंदगी के एहसास में
मंदिर की किसी घंटी की तरह मन में
और हवा की ख़ुश्बू की तरह बस गये मुझी में

ईश्वर का स्वरूप खुद में ही है तलाश है खुद की खुद में। सफर" मैं से मैं की तलाश में यह रचना सच है न :)

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11 comments:

Divine India said...

इंतजार के ऐहसास को तंहाई के विरह में
अच्छे से पिरोया है...मगर सदा की तरह
उठते मनोवेग को पहले ही लगाम लगा
दिया...क्या यह कोई सपना तो नहीं जो
बीच में ही टूट गया...!!!हमेशा की तरह
तुमसे और की.....संगीत बिल्कुल तुम्हारे
ब्लाग से मेल खा रहा है its really romantic धन्यवाद.

Manish Kumar said...

दिल के मनोभावों को अच्छी तरह व्यक्त किया है आपने इन पंक्तियों में !

Mohinder56 said...

HUM INTZAAR KARENGE TERA KAYAMAT TUK
KHUDA KARE KI KAYAMAT HO
OR TUU AAYE

रंजू भाटिया said...

shukriya .divyabh .....sapna hi thaa jo tut gaya [:)]

रंजू भाटिया said...

shukriya .divyabh .....sapna hi thaa jo tut gaya [:)]

रंजू भाटिया said...

shukriya manish .....

रंजू भाटिया said...

shukriya mohinder ..bahut sahi lines likhi hai aapne ..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-12-2014) को "बिलखता बचपन...उलझते सपने" (चर्चा-1834) पर भी होगी।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब ...इश्वर खुद के अन्दर ही होता है ...

Onkar said...

बहुत सुन्दर