इंसानों की भीड़ के झुण्ड में
कुछ अलग सी पहचान लिए
होंठ कुछ अधिक लालिमा लिए
चेहरे पर पुता हुआ एक्स्ट्रा मेकअप
नजरों के इशारे .......................
काजल से अधिक चमक कर बातें कर रहे थे
अजब अंदाज़ से हिलते हाथ पांव और उसके खड़े होने का अंदाज़
जैसे किसी कला की नुमाइश करता लग रहा था (मज़बूरी से भरा था )
खिलखिला के हँसना बेमतलब था ( पर लग नहीं रहा था )
कोने के दबा कर कभी होंठ कभी नखरा दिखा कर (किसी रंगमंच सी कठपुतली सा था )
बहुत कोशिश थी उन उदासी .उन चिंताओं को भुलाने की
जो घर से चलते वक़्त बीमार बच्चे के पीलेपन में दबा आई थी
सिमटे हुए बालों में गजरा लगा कर
समेट ली थी उसने शायद अपनी सभी चिंताएं ( क्यों कि यह अभी कारोबार का वक़्त था )
वो बाजार में थी अपने जिस्म का सौदा करने के लिए
पर ....क्या वो इतनी ही अलग थी ?
समेट ली थी उसने शायद अपनी सभी चिंताएं ( क्यों कि यह अभी कारोबार का वक़्त था )
वो बाजार में थी अपने जिस्म का सौदा करने के लिए
पर ....क्या वो इतनी ही अलग थी ?
उसके हंसने मुस्कराने की जिद
ठीक उसी एक ब्याहता या आम औरत सी ही तो थी ....
जो किसी भी हालत में जानती थी
यही अदा यही जलवे उस "आदम भूख "पर भारी होंगे
जो उसके बच्चो की आँखों में सुबह दिखी थी .............रंजू भाटिया
यह
आत्मकथा कभी रूलाती है तो कभी हँसाती है और कभी अपने दर्दनाक सच से झकझोर
कर रख देती है। मज़बूरी में किया गया यह कार्य केरल में बसी सेक्स वर्कर के
दर्द को बखूबी ब्यान करता है । इस तरह का कार्य कोई अपनी मर्ज़ी से नहीं करना
चाहता हालात किस तरह से इस को करने के लिए बेबस कर जाते हैं यह उनकी इस आत्मकथा में ब्यान
हुआ है। बाद में उन्होंने इस में एक संगठन ज्वालमुखी से जुड़ कर भी के कार्य किया
वह भी इस में ब्यान है । दर्दनाक है सब पढना पर कुछ भाषा मे अनुवादित होने के कारण
कहीं कहीं बोझिल सी भी लगती है पर फिर भी बहुत हिम्मत चाहिए अपनी इस आत्मकथा को लिखने के लिए जो नलिनी जमीला ने इसको लिख कर की है
बहुत मसाला या कोई बढ़ा चढ़ा कर इसको नहीं लिखा गया जो ज़िन्दगी ने रंग दिखाए इस राह पर चलते हुए वह ही उनकी कलम से लिखे गए हैं । बचपन में पढने की इच्छा लिए हुए ही कई काम करते हुए जैसे मिटटी ढोना आदि काम करने पढ़े फिर पैसे की जरुरत आगे उसको इस राह पर गयी साथ ही यह हमारे समाज के उस पहलु भी दिखाती है जो एक तरह से हिप्पोक्रेट है । अपने आप को और अपनी बच्चो को जिंदा रखने के लिए वो हर काम करने की कोशिश में रहती है पर अंत में यह उसकी जीविका का साधन बन जाता है। एक सच्चाई से लिखी गयी यह एक बेबस बेबाक आत्मकथा है जो सच के कई पहलु से रूबरू करवाती है ।
11 comments:
सच्चाई को शब्द मिले है , और मजबूरी को बाज़ार. आपने सुन्दर ढंग से पुस्तक की आत्मा को पटल पर रखा है . आभार .
अपने मन की कह देने दें,
सच को पूरा सह लेने दें,
जो पाया, सब व्यक्त यथावत,
अँसुअन संग सब बह लेने दें।
बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें ,कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
अच्छी पोस्ट।
इस किताब को पढ़ने का मन है।
रंजु आपने पहले भी मुझसे सिफारिश की थी इस किताब को पढने की.....
मगर इस बेहतरीन समीक्षा को पढने के बाद सोचती हूँ पढ़ ही लूँ....
सस्नेह
अनु
बहुत चर्चा सुनी है ,इस पुस्तक की .
इनके मेकअप के तह के पीछे का दर्द कहाँ दिखता है किसी को .
बहुत चर्चा सुनी है ,इस पुस्तक की .
इनके मेकअप के तह के पीछे का दर्द कहाँ दिखता है किसी को .
बहुत शानदार रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
कोशिश रहेगी कि हम भी इसे जल्दी ही मंगवा कर पढ़ ले
ऐसी आत्म कथाएं दक्षिण भारत से ही क्यों आती हैं -एक समय था कमला दास का और अब नलिनी !
किताब की रूह को शब्द दिए हैं आपने ... मार्मिक पर आँखों में दिखने वाली सुबह की धूप के आगे कुछ नहीं ...
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