कच्ची शराब की कतरन (कविता-संग्रह)
कवियत्री स्वाति भालोटिया
मूल्य- रु २००
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
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न सवाल बन के मिला करो ,न जवाब बन के मिला करो
कच्ची शराब की कतरन ..नाम ही ऐसा है कि हाथ में आते हो यह शेर बरबस जुबान पर आ गया ...नशा तो शीर्षक पढ़ के ही हो गया था इस संग्रह का ...और जब लफ़्ज़ों से भरे जाम सा यह संग्रह हाथ में आया तो मौसम भी नशीला था ..हलकी रिमझिम बारिश और यह बहते हुए लफ्ज़ पन्ना दर पन्ना जहन में एक हलके से सरूर से उतरते रहे .....और लिखवा गए ..........
कहते हुए लफ्ज़ बेसुध करते गए कुछ इस तरह /कि इतना नशा तो होता न किसी असली जाम से ...
स्वाति भालोटिया का यह काव्य संग्रह .कई लोगों के लिए इन्तजार का सबब बना हुआ है बेताबी से सब इसको पढने के इन्तजार में है ...मुझे भी इस संग्रह का बेसब्री से इन्तजार रहा है .,,इसके परिचय में पूर्णिमा वर्मन ने बिलकुल सही लिखा है कि इन कच्ची शराब की कतरनों में थोडा कच्चापन है ,लिखी हुई इबारतों का थोडा नशा है .थोडा प्यार और एक नरमाहट है जो कभी घुंघरू की तरह बजती है ,कभी शांत हवा सी गुजर जाती है |ठीक कुछ इसी तरह .....
"कच्ची शराब को कोई समझेगा कोई क्यों भला
जिसका कभी इश्क में दिल जला ही न हो ".........खुद स्वाति जी के लफ़्ज़ों में" एक देसी शराब की तरह ये शब्द ,एहसासों की सिहरन ,कंठ में कडवाहट और जहन में एक धक्का बन कर इस लोक से मुझे दूर ले जाने में हमेशा कारगार रहे हैं |इस एक एहसास के साथ कि मैं इस लोक के सर्वोच्च प्रेम भाव को पा लेने की इच्छा में इन शब्दों के रंग ,कागज़ के कैनवास पर घोला करती हूँ जैसे कोई षोडशी यह सोच ले प्यार कर भी लूँ और खुश भी रह लूँ ."ये धडकनों की फरेब मानों हर कविता में ,हर भीगी सी शाम नींद की परियां ,लरजती साँसों में रोप जाती है |" यह खुद के उनके लिखे शब्द ही आगे उनके लिखे का परिचय दे देते हैं .और जहन में फिर से कुछ पंक्तियाँ कोंध जाती है
"हम भटकते हैं, क्यों भटकते हैं, दश्तो-सेहरा में
ऐसा लगता है, मौज प्यासी है, अपने दरिया में/एक साया सा, रू-बरू क्या है/आरज़ू क्या है, जुस्तजू क्या है??
स्वाति जी की रचनाएं नियमों से परे छंदमुक्त रचनाएं हैं जो नए बिम्बों से सजी हुई है | और इसकी कई कतरने वाकई कच्ची शराब सी है ...आईये रूबरू होते हैं इन कतरनों से लफ़्ज़ों के जाम उठा कर ....जहाँ वह छू लेती हैं कुछ इस अंदाज से
.यह हवाएं ही तो हैं
जिनके पन्ने पर लिखा करती हूँ नाम तुम्हारा
कुछ कविताओं को बीजा करती हूँ
और उनके अम्बर तले
चुपके से हाथ बढाकर
जब सब पढ़ रहे होते हैं शब्द
छू लिया करती हूँ तुम्हे .....यह छुना उस मन के रूमानी भाव से परिचित करवाता है जो फिर से मीठी सी शिकायत कर बैठती हैं इन लफ़्ज़ों में .देख कर बालों की मनमानियां लबों पर
जो अधर नजर भर न लेते तुम
मैं जिक्र करती किसी और का
और कहानी अपनी कह देती ....भरा जाम जैसे छलक उठता है ..और छलकते हुए कह बैठती हैं ..
इक सुरीला प्रणय -राग सुनाना
अधखुले अधर तुम्हारे
पूर्णता पायें मुझ में
और चांदनी सी खिल जाऊं मैं
तुम्हारे सीने की छत पर
तेरे इश्क में
तुम्हारे सामने बैठी .............यह प्यार कुछ दिनों का भी हुआ तो कह गया
टूट कर तुम्हारा चाहना
और टूटी रातें
मेरी छाती पर छोड़ जाना
जब हम ,दो न मिल सकने वाले
समुन्द्र का छोर हुआ करते थे ...तुम्हारा कहना और उन अक्षरों में सहारा पा लेना ही तेरे साथ के दिन है ..कच्चे गर्भ के दिनों हों मानों /वही अब बिछोह की प्रसव -वेदना -सी पीड़ा हैं ...वाकई ..लफ्ज़ लिखे हुए ऐसे हैं कि बोल उठते हैं ...अपने ही लफ़्ज़ों में .....
"कच्ची शराब का नशा पक्का बहुत लगेगा
दर्द का एहसास भी अच्छा बहुत लगेगा "......इसी कच्ची कतरन में दर्द का एहसास भी छिपा है जो उनकी एक रचना में कुछ ऐसे दिन भी होते हैं में छलका है ..
कुछ ऐसे ही दिनों में
मैं रात भर सजती रही
नयी जात के काँटों से
मुकुट सहित ,अन्य अलंकारों से
कि औरत के जीस्त से टपकता हुआ खून
स्वेछाचारी दुनिया का
वाइन सा नशीला और मादक पेय है ......बहुत जबरदस्त लगी यह पंक्तियाँ ....स्वाति जी के लेखन में कहीं कहीं अमृता प्रीतम की सी सोच भी छलक उठी है ..उनकी कुछ रचनाएं बेहद करीब लगी उनके लिखे के ..जैसे कुछ में पी लूँगी में ..
तुम्हारी साँसों की गर्म चिलम सुलगा लूँ
छालों की आग का कुछ धुआँ तुम पीना
कुछ मैं पी लूँगी ...........
और बरसती सी बारिश में वह कह उठी है
तुम्हारे स्पर्श से पुलकित पोरों की
इन अधरों पर तुम्हारे प्यार की
हर अनहुई अनुभूति की
रात जली है अब तक प्रिय ....रात बरसता रहा चाँद बूंद बूंद ,आज फिर हमने ,चूल्हे में ...रचनाएँ हैं जो अमृता के लेखन से प्रभावित हैं |
तुम्हारे प्रेम में पगी दो सुबह थीं ..
जब कोख में बैठा था तुम्हारा सूरज
और किरने रहीं जनमती मुझे
जब रंग बरसाते रहे तुम मुझ पर
और लफ़्ज़ों की बूंदे चूती रहीं मुझ पर
तुम्हारी छुहन से तप्त दो सुबह थी
बेहद दिल के करीब हैं यह लफ्ज़ ..रंग और लफ्ज़ का अनोखा मेल ..जो तेज तीखी शराब सा असर कर गया ..
उनकी एक और कतरन बहुत ही तेज असर करती दिलो दिमाग पर कल रात शीर्षक से लिखी यह रचना
कल रात /तुमने फिर बेच दिया मुझे /और फिर से /रात ने /चाँद का कुरता उतार फेंका /सौदे में बस /नुचा लिहाफ हाथ आया /चरित्र हीनता का .............मूक हो जाते हैं यहाँ जज्बात ....कतरन दे जाती है गहरी सोच और सच के करीब का एहसास ...पढ़ते हुए दिल से यह कहलवाते हुए ...
कच्ची शराब में पके हैं मेरे गम सभी
आंसू इनको घोल ले मुमकिन नहीं लगता ........इन कतरनों में नशा है अजब सा जो बहुत देर तक आपको अपने साथ बनाए रखता है ..पर धीरे धीरे आखिरी पेज तक पहुँचते पहुँचाते यह कुछ फीका सा लगने लगता ..रूमानी है हर कतरन .दर्द भी है हर कतरन और ज़िन्दगी के कई सच के करीब भी है यह कतरन ..पर कहीं कुछ कमी सी लगने लगती है ..कुछ ढकी हुई ..कुछ दबी हुई बात महसूस होने लगती है ..जो पारदर्शिता शुरू के पन्नो से दिखनी शुरू हुई थी वह कहीं खोने लगती है |आखिरी लिखी उनकी कुछ कवितायें बहुत गहरा असर नहीं छोड़ पाती हैं ........अंत तक आते आते ठीक उस तरह का एहसास मुझे हुआ कुछ इन लफ़्ज़ों में
"प्यार में यह होशो हवास अच्छा नहीं लगता
वक्तेवस्ल मुझको यह लिबास अच्छा नहीं लगता "..
वाली हालत से रूबरू होने लगता है दिल ...जरुरी नहीं कि हर वक़्त जाम हाथ में रहे ..पर उसके होने का एहसास बाकी रहे ..सरूर बाकी रहे .. ठीक उस एहसास की तरह जो नियम ,कानून और हर बंधन से मुक्त है और यह तो कच्ची शराब की कतरन है ...अंत तक अपने सरूर में उसी तरह रखती तो बहुत देर तक पढने वाला उसी नशे में डूबा रहता ...
स्वाति भालोटिया एक अच्छी चित्रकार भी हैं। पुस्तक का आवरण चित्र खास इस पुस्तक के लिए स्वाति भालोटिया ने खुद बनाया है।गुलाबी हलके पीले एल्कोहॉलिक रंगों से सजा यह आवरण अपनी तरफ बहुत आकर्षित करता है ..और आपको खुद में डुबो लेने को मजबूर करता है | अभी तो शुरुआत है उनके संग्रह में और जाम जुड़ने की और नशीली होने की ...और बंधे हुए एहसास से मुक्त होने की .....हमें इन्तजार रहेगा ..उनकी कलम से निकली हुई कतरनों का ..जो खुद में पूरा डुबो दें ..और कहने पर मजबूर कर दे
जिस में गम पकते हैं मेरे ,कच्ची शराब है
गंगा फिर भी है दूषित यह सच्ची शराब है .....
या फिर दाग दहलवी के लफ्ज़ बोल उठे
लुत्फ़-ऐ मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद,
हाय कमबख्त तूने पी ही नहीं ...................
रंजना (रंजू ) भाटिया
इस में जुडी कच्ची शराब की कतरन के संदर्भ में कुछ पंक्तियाँ अनिल जी की हैं
12 comments:
रोचक पुस्तक, पढ़ने का प्रयास करते हैं।
बहुत सुंदर पुस्तक परिचय .... परिचय से ही नशा हो गया ...जिस दिन पुस्तक हाथ आएगी तो लगता है डूब ही जाएँगे ...
पुस्तक से परिचय कराने एवं सुंदर प्रभावित करती समीक्षा के लिए,,,बधाई,,,,,
MY RECENT POST ...: जख्म,,,
वाह .. बहुत खूब परिचय की कड़ी में लाजवाब प्रस्तुति... बधाई सहित शुभकामनाएं
सुंदर पुस्तक परिचय
आपकी समीक्षा ने वो नशा कर दिया है की दीवानगी बड गयी है इस किताब के लिए ... राक्स्हायें पूरी पढ़ने के बाद तो कई दिन उठाना मुमकिन न होगा ... बधाई स्वाति जी को ...
इतनी अच्छी समीक्षा ने किताब पढ़ने की उत्कंठा जगा दी है.
बहुत ही ख़ूबसूरत कविताओं का संकलन है.
कवयित्री स्वाति भालोटिया के नए काव्य संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए -
आपने समीक्षा अच्छी की है !
सार्थक व नशीली समीक्षा......पुस्तक अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचे.कवियित्री को बधाई, परिचय कराने के लिये आभार.....
वाह अब नशे के लिए तो ये किताब पढ़नी ही पड़ेगी
बहुत सुंदर पुस्तक परिचय ....
बेहद नशीली रचना की नशीली समीक्षा ...साधुबाद:)
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