Wednesday, May 09, 2012

कल्पना का संसार

कल्पना का संसार सपनो से अधिक बड़ा होता है ,सपने जो हमे आते हैं वो असल में कही ना कही हमारी कल्पना से ही जुड़े होते हैं !जब हम बच्चे होते हैं तो तब हमारा मस्तिष्क एक कोरे काग़ज़ की तरह होता है धीरे धीरे जैसे जैसे हमारा मस्तिष्क परिपक्व होता जाता है वैसे वैसे उस में हमारे आस पास जीये अनुभव और ज़िंदगी की यादे उस में रेकॉर्ड होने लगती हैं फ़िर जैसा फिर हमे अपने आस पास का माहोल मिलता है वैसे ही हमारे विचार बनते जाते हैं उसी के आधार पर हम कल्पना करते हैं और उस के आधार पर हम में सपने जागने लगते हैं!
 हमारा शरीर दो तरह से क्रिया करता है एक अपने दिल से यानी अपनी इच्छा से दूसरी बिना इच्छा के जैसे किसी गर्म चीज़े के हाथ पर पड़ते ही हम हाथ हटा लेते हैं हमे सोचना नही पड़ता दूसरी कुछ बाते हम सोच के करते हैं किसी को किसी भी कार्य को करें के लिए पहले उसकी एक कल्पना बनाते हैं ! दिल में उसी कल्पना का हमारे जीवन में बहुत ही महत्व है, कल्पना ना हो जीवन भी नही जीया जा सकता ,कल्पना जो हम सोचते हैं वो भी एक मज़ेदार दुनिया है ,वहाँ समय ठहर जाता है और हम पल भर में जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं एक दुनिया अपने सपनो की बसा लेते हैं इसी के आधार पर कई महान काव्य लिखे गये ,कई अविष्कार हुए !
हर व्यक्ति की कल्पना करने की क्षमता भी अलग-अलग होती है ,कुछ लोग बचपन से ही कल्पना की दुनिया में खोए रहते हैं जैसे कवि :) बचपन से ही कोई कल्पना करके कविता में डूबे रहते हैं ... पर अधिक कल्पना करना भी जीवन में कभी कभी मुसीबत पैदा कर देता है कल्पना शीलता का काफ़ी इच्छा हमारे अवचेतन मन में रेकॉर्ड होता रहता है इसी के आधार पर हम किसी की भावनाओं का पता लगातें हैं... पर यह कल्पनाए क्यों ,कहाँ से आती है ?इसके लिए कौन सी रासयनिक क्रिया काम आती है, यह अभी तक पता नही चल पाया है पर जब भी इंसान फुरसत में होता है , तो वह कल्पना के जादुई दुनिया में डूब जाता है तब वो जो असलियत में अपनी ज़िंदगी में नही कर पाता उसको अपनी कल्पना कि दुनिया में सकार करता है और फ़िर से वहीं से प्रेरणा पा के करने की कोशिश करता है !
 कल्पना तो सभी करते हैं लेकिन उसको शब्दों का रूप कोई कोई ही दे पाता है कभी कभी लिखते वक़्त किसी लेखक के साथ ऐसी हालत आ जाती है की वो अपनी कल्पना को कोई शब्द रूप नही दे पाते तब इसको writer's block कहते हैं ....तब उसको शब्द रूप में ढालने के लिए किस प्रेरणा की ज़रूरत होती है ,मतलब कोई घटना या कोई घटना जिस से उसकी कल्पना शब्दों में ढल सके! कल्पना ना होती तो हमारा जीवन भी नीरस सा हो जाता क्यूंकि इस के सहारे हम वो काम कर लेते हैं जो हम वास्तविक ज़िंदगी में कभी कभी नही कर पाते और यदि यह नही कर पाते तो हमें बहुत अधिक तनाव को झेलना पड़ता! इस प्रकार यह कल्पना शक्ति ही हमारे कुछ कर पाने वाले,कुछ न कर पाने वाले तनाव को संतुलित रखती है.... नही तो कई तरह की समस्या पैदा हो जाती जीवन में ,!प्रकति ने शरीर से बेकार की चीज़ो को बहार निकालने का कोई ना कोई रास्ता बना रखा है हमारे शरीर में ही!

कल्पना कई तरह की होती है ....कल्पना रचनात्मक भी हो सकती है और दूसरों को नुकसान देने वाली भी ,तीसरी कल्पना सच में केवल कल्पना होती है केवल मन की तस्सली के लिए की जाती है कोई कल्पना सिर्फ़ उतनी ही ठीक है जो मानसिक तनाव कम करे ना कि और बढ़ा दे! ज्यादा कल्पना भी मानसिक तनाव का कारण बन सकती है जब हम उस काम को पूरा होते नही देख पाते और वो मनोविकार का रूप धारण कर लेती है इस से मनुष्य के अंदर हीन भावना आ जाती है और उसकी जिन्दगी उस से प्रभावित होने लगती है फिर इस उपचार की जरुरत पड़ती है इस लिए सिर्फ़ उतनी ही कल्पना करें जितनी जीने के लिए जरुरी है और जो जीवन में सम्भव हो सकती है !!

14 comments:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

रंजना जी,... आपने सही कहा,....सिर्फ़ उतनी ही कल्पना करनी चाइये जितनी जीने के लिए जरुरी है और जो जीवन में सम्भव हो सकती है !

सुंदर आलेख,.....

my recent post....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....

ANULATA RAJ NAIR said...

सच कहा रंजना जी...............
कल्पना हो मगर कोरी कल्पना ना हो..............
कल्पना को मूर्त रूप देने की कोशिश भी तो हो!!!!

अनु

सदा said...

बिल्‍कुल सही कहा है आपने ... बेहतरीन प्रस्‍तुति।

India Darpan said...

बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....


इंडिया दर्पण
की ओर से शुभकामनाएँ।

प्रवीण पाण्डेय said...

कल्पना हमें तो समय के परे ले जाती है, अपने लोक..

virendra sharma said...

सारा मनोविज्ञान और विज्ञान परोस दिया आपने इस रचना के लघु कलेवर में क्या बात है ..शुक्रिया .कृपया यहाँ भी पधारें -
बुधवार, 9 मई 2012
शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर
http://veerubhai1947.blogspot.in/
आरोग्य समाचार
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_09.हटमल
क्या डायनासौर जलवायु परिवर्तन और खुद अपने विनाश का कारण बने ?
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http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/

Asha Joglekar said...

कल्पना करें तभी तो उसे साकार कर पायेंगे । कल्पना लोक में विचरना किसे अच्छा नही लगता ।
हां शेखचिल्ली ना बनें ।

Arvind Mishra said...

बहुत अच्छा आलेख ,कुछ कुछ निबंधात्मक शैली में ...कल्पनाशीलता मनुष्य की पहचान है -

लेखन की बोधगम्यता बताती है कि यह एक सिद्धहस्त लेखक (कामन जेंडर शब्द ) द्वारा लिखा गया है .

Writeries block - writer's blockकर दें और विकीपीडिया का लिंक चाहें दे दें जिसे शायद किसी को विस्तार से जानना हो

Gyan Darpan said...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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वाणी गीत said...

कल्पना और यथार्थ का संतुलन ही सार्थक जीवन है !
अच्छा लेख !

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

aakarshak lekh ranju jee!

दिगम्बर नासवा said...

कल्पना तो जरूरी है .. पर अगर वो सतह से जुडी रहे तो कभी कभी सार्थक सच्चाई बन जाती है ... तभी शायद जनकवि बनते हैं ...

Maheshwari kaneri said...

सच कहा रंजना जी............बहुत बढ़िया प्रस्तुति ..

सदा said...

बहुत सही कहा है आपने ... बेहतरीन प्रस्‍तुति।