Monday, February 23, 2009

आभास


आकार नही ..
साकार नही..
बस ...
एक आभास ही तो है
और है ..
एक धीमी सी
लबों पर जमी हँसी
जो लफ्जों के पार से
हर सीमा से ..
छू लेती है रोम रोम

और फ़िर ...
चाहता है यह
बवारा मन
मोहक अनुभूति
के कुछ क्षण
जिस में रहे न कुछ शेष
न कुछ खोना
और न ही कुछ पाना
बस यूँ ही ...बहते बहते
कहीं एकाकार हो जाना ...........

(यह रचना कोशिश है एक ऐसी अनुभूति को पाने की ,जहाँ पहुँच कर सब कुछ जैसे एकाकार हो उठता है , मन में जो भाव रहते हैं ,वह शिव की शक्ति होने का प्रतीक भी रहते हैं और उसी में कहीं गुम हो कर ,प्रेम की वह उच्च अवस्था जहाँ सिर्फ़ प्रेम का मधुर मीठा एहसास है ...)

Thursday, February 19, 2009

यह मूर्ति तो मेरे आस्कर अंकल से बहुत मिलती जुलती है..


ऑस्कर नाम आज कल रोज़ सुनाई देता है स्लमडॉग मिलेनियर के सिलसिले में ....यह बहुत ही प्रसिद्ध पुरस्कार है जो सिनेमा में दिया जाता है ..इस पुरस्कार का नाम ऑस्कर कैसे पड़ा क्या आप जानना चाहेंगे ...

४ मई १९२७ को जब चलचित्र कला और विज्ञान अकादमी की स्थापना की तो इसकी संख्या सिर्फ़ ३६ थी ..और आज इस संस्था के सदस्यों की संख्या पाँच हजार से भी अधिक है ..

इस संस्था का पहला समारोह १६ मई १९२९ को रूसवेल्ट होटल में हुआ ,जो की हालीवुड में है ..तब केवल इस में ११ इनाम बांटे गए .अब तो इन पारितोषिकों की संख्या बहुत बड़ी है ..इस संख्या के पहले कला निर्देशक थे सेड्रिक गिब्बज उसी ने एक कलामूर्ति बनाई जिसका नाम आज ऑस्कर है ..तब यह नाम नहीं था इसका ..

सन १९३१ का एक दिन ..इसी संस्था की लाइब्रेरी खुली थी ....मार्गेट हेरिक बैठी काम कर रहीं थी ..वहां पर यह कलामूर्ति लायी गई ...इसको जब इस को लाइब्रिरी में काम करने वाली एक महिला ने देखा तो देखती रह गई ..उसको यूँ हैरान देख कर उसकी एक मित्र ने पूछा कि क्या हुआ यूँ हैरान क्यों हो ...?

वह बोली कि यह मूर्ति तो मेरे ऑस्कर अंकल से बहुत मिलती जुलती है ..कमाल है ..

अच्छा ऐसा है ...मित्र ने तो कह दिया पर वहां बैठे एक पत्रकार ने भी यह सुना और अगले दिन ऑस्कर अंकल अखबार में छा गए ...
बस तब से यह मूर्ति ,यह कार्यक्रम अकदामी का समारोह ऑस्कर के नाम से जाना जाने लगा ....इसका कोई विधिवत नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ ..फ़िर भी नाम हो गया ..अब यह नाम कानूनी रूप से प्रसिद्ध है ...

भारत में ऑस्कर सम्मान केवल दो बार मिला है ..एक बार भानु अत्थेया को १९८२ में गांधी वेशभूषा के लिए मिला था और फ़िर सत्यजीत राय को ....अब देखते हैं है कि यह २२ फरवरी को किस फ़िल्म की झोली में जाता है

किसी अनजान आदमी के नाम पर रखा ऑस्कर नाम आज बहुत बिश्व प्रसिद्ध तथा एक बहुत बड़े सम्मान का सूचक है |

Tuesday, February 17, 2009

इश्क़ की महक


आज फिर से मेरी जान पर बन आई है
बाँसुरी किसने फिर यमुना के तीर पर बजाई है


खिलने लगा है फिर से मेरे चेहरे का नूर
फिर से कोई तस्वीर दिल के आईने में उतर आई है

पिघलने लगा है फिर से दिल का कोई सर्द कोना
कोई याद फिर मोहब्बत का लिबास पहन आई है

महकने लगा है फिर से कोई टेसू का फूल
यह ख़ुश्बू शायद किसी ख़्याल से आई है

लिखते लिखते लफ्ज़ बन गये हैं अफ़साना
उनकी आँखो ने कुछ राज़ की बात यूँ बताई है

मत देख अब यूँ निगाहे बचा के मुझको तू
इश्क़ की महक कब छिपाने से छिप पाई है

Friday, February 13, 2009

प्रेम के ढाई आखर

प्रेम के ढाई आखर हर किसी के दिल में एक मीठी सी गुदगुदी पैदा कर देते हैं। कभी ना कभी हर व्यक्ति इस रास्ते से हो के ज़रूर निकलता है पर कितना कठिन है यह रास्ता। कोई मंज़िल पा जाता है तो कोई उम्र भर इस को जगह-जगह तलाशता रहता है। किसी के एक व्यक्ति के संग बिताए कुछ पल जीवन को एक नया रास्ता दे जाते हैं तब जीवन मनमोहक रंगो से रंग जाता है और ऐसे पलों को जीने की इच्छा बार-बार होती है।

प्रेम की स्थिति सच में बहुत विचित्र होती है। मन की अनन्त गहराई से प्यार करने पर भी यदि निराशा हाथ लगे तो ना जिया जाता है ना मरा। जैसे कोई रेगिस्तान की गरम रेत पर चल रहा हो जहाँ चलते-चलते पैर जल रहें हैं पर चलना पड़ता है। बस एक आशा या मृगतृष्णा सी दिल में कहीं जागी रहती है कि अब कोई सच्चा प्रेम करने वाला मिल जायेगा शायद जीवन के अगले मोड़ पर ही।
परन्तु जीवन चलने का नाम है और यह निरंतर चलता ही रहा है,बह रहा है,समय की धारा में। कुछ समय पहले कही पढ़ा था कि प्रतिक्रिया,संयोजन और चाहत किसी भी सबंध के तीन अहम चरण होते हैं। कोई भी रिश्ता यूँ ही एक दम से नही जुड़ जाता। हर रिश्ता अपना वक़्त लेता है। कोई भी व्यक्ति सभी से सहजता से संबंध नही बना लेता,अपने जीवन में वो अपने दिल के क़रीब बहुत कम लोगो को आने देता है। जब दो व्यक्ति एक दूसरे की तरफ़ आकर्षित होते हैं तो उनके भीतर होने वाली रासायनिक क्रियाएँ ऐसे प्रभाव पैदा करती है जिनसे उनके हाव भाव बदलने लगते हैं,घंटो एक-दूसरे से बाते करना चाहे उनका कोई अर्थ हो ना हो, दोनो के दिल को सुहाता है। पहले-पहल कोई भी रिश्ता दिल से नही जुड़ पाता पर धीरे-धीरे सब कुछ जान कर व्यक्ति आपस में बंधने लगता है। यह बात हर रिश्ते पर लागू होती है। चाहे वह पति-पत्नी का रिश्ता हो या फ़िर सास बहू का। रिश्ता जितना पुराना होता है उतने ही उसके टूटने की संभावना उतनी कम होती है।

एक लेख में यह जानकारी पढ़ने को मिली जो मुझे बहुत रोचक लगी। रूमी वॉल्ट और प्रेमी युगलों के अनुभवों के आधार पर एक विद्वान् व्यक्ति ने प्रेम के सात चरणो का उल्लेख किया है, ये चरण हैं, आकर्षण,प्रेमोन्माद,प्रणय पूर्व के सम्बन्ध,घनिष्ठता,समपर्ण,चाहत और पराकाष्ठा। इसे आकर्षण,रोमांस,घनिष्ठता और समर्पण जैसे पाँच चरणो में बाँट कर आसानी से समझा जा स्कता है।


आकर्षण क्या है,किसी के दिल में कुछ सकरात्मक भाव रखना ही आकर्षण कहलाता है, यह दोस्ती से अलग है पर इसमें शारीरिक होना ज़रूरी नही। यह भावात्मक भी हो सकता है। शारीरिक आकर्षण तभी होता है जब हमारे शरीर में किसी दूसरे को देख कर कोई प्रतिक्रिया हो और इसकी परिणति हृदय गति,शरीर के तापमान और पसीने के बढ़ोतरी के रूप में होती है। जब यह प्रतिक्रिया होती है तो हथेली में पसीना आ जाता है और गला सुखने लगता है। यह लक्षण बहुत आम है, जबकि यही प्रेम के सबसे पहली स्थिति हैं और यही किसी दूसरे के दिल के क़रीब होने का एहसास करवाते हैं।

आकर्षण के बाद रोमांस का स्थान आता है। यह दूसरों को ख़ुद से प्रभावित करने की स्थिति है। हम उपहारों और किसी अन्य प्रकार की विधि द्वारा दूसरे के दिल को लुभाने की कोशिश करते हैं तो इसमें प्यार की संभावना पैदा हो जाती है। इसकी भी दो स्थिति है एक तो जो सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिए किया जाता है और दूसरा वह जो स्वार्थ से परे हो यहाँ स्वार्थी होने से मतलब उस स्थिति से है जब हम साथी को ख़ुश देखने और सुख देने की जगह इस चीज़ो की चाह सिर्फ़ ख़ुद अपने लिए करते हैं लेकिन निस्वार्थ रोमांस की स्थिति वह है जब हम इन चीज़ो की कल्पना अपने लिए नही बल्कि अपने साथी के लिए करते हैं। उसकी ख़ुशी को ही अपनी ख़ुशी समझते हैं तभी रोमांस पैदा होता है और हम प्रेम की तीसरी स्थिति तक जा पहुँचते हैं। रोमांस करते व्यक्ति की चाह अपने साथी के लिए इतनी बढती चली जाती है और भावात्मक संबंध की परिणति के रूप में दिल में काम संबधी विचार पैदा होने लगते हैं। यह प्रेम की सबसे महत्त्वपूर्ण स्थिति है। प्रेम अब एक ऐसे दोराहे पर आ जाता है जिसमें से एक ऐसा मोड़ है जहाँ कोई संबंध या तो उच्च अवस्था को प्राप्त कर लेता है या फिर गर्त में चला जाता है। इस मोड़ पर आ कर एक बार सोच ज़रूर लेना चाहिए कि उन्हे कौन सा मार्ग चुनना है। अगर संबंध आगे बढ़ता है तो घनिष्ठता भी बदती है। दो प्रेम करने वाल के बीच बहुत सहजता और सरलता पैदा हो जाती है। आपस की बातचीत में कोई औपचारिकता नही रहती। वो एक-दूसरे के विचारों के साथ-साथ भावनाओं और सपनो का भी हिस्सेदार बनने लगते हैं और यही घनिष्ठता एक-दूसरे के प्रति समर्पण का भाव पैदा करती है। एक ऐसा समपर्ण जिस में कोई अगर-मगर नही होता। यह स्थिति हर माहौल में एक-दूसरे को साथ निभाने का वचन देती है और फिर अलग-अलग जीवन बिताने का सोचा भी नही जा सकता। जिस्म से जरूरी रूह तक पहुंचना होता है,तभी पूर्ण समर्पण सम्भव है।

पर अब वह समय कहाँ रहा है, अब तो प्रेम के नाम पर सिर्फ़ स्वार्थ है। सब कुछ स्वार्थवश और समय की सुविधा के अनुसार होता है। आज कल सिर्फ़ सब अपने विषय में सोचते हैं सब। स्वार्थवश दोस्ती करेंगे और स्वार्थवश ही प्रेम और अपने स्वार्थों की पूर्ति होते ही वो संबंध कसमे और दोस्ती तोड़ देंगे,गिरगिट की तरह रंग बदल लेंगे। यह संबंध बनाने बहुत आसान है, पर इनको निभाना उतना ही मुश्किल।

कभी कभी पंजाबी लिखने का जनून चढ़ जाता है मुझे भी उसी एक कोशिश में इश्क का यह रंग ॥

अज चन्न ने सूरज नु न्योता दिता अपने घर आन दा
इक प्याला इश्के दा पिता सजना मैं तेरे नामं दा

जिवें देख सूरज नूँ चन्न बदरा विच शरमा गया
उंज चढ्या मैनूं वीं खुमार तेरे दीदार दा

तू रया सामने ते मैं अपना सब कुछ भुल गयीं
ख्याल किथे रहन्दा मैनूं फ़िर किसी दिन -रात दा

आ के भर ले बवाँ विच तू इंज सोनेया
फ़िर रवे न कुछ वि होश मेनू इस संसार दा

रंजू



इसी लेख से जुड़ी पहले लिखी कड़ियाँ यहाँ पर पढ़े ..

ढाई आखर का जादू कड़ी

ढाई आखर प्रेम के दूसरी कड़ी

प्रेम में स्वंत्रता


रंजना © ©