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Friday, May 08, 2009
लोक गीतों में प्रेम की बोली ...
गीत ,संगीत और लोक गीत ..बात चाहे किसी तरह के संगीत की हो ..प्रेम का रंग .ज़िन्दगी का रंग इस में छलक ही आता है ..पर धीरे धीरे लोक गीतों की चमक जैसे अपना रंग रूप खोती जा रही है ..हमारे यह लोक गीत ----बात है हमारे दिलों की ...जो लफ्जों में ढल कर यूँ गीतों के रूप में फूट पड़ते हैं ...
प्रेम का रंग सबसे अनोखा होता है ..धरती का कोई कोना ऐसा नही जहाँ प्रेम की भाषा न बोली जाती हो .हर गीत ,हर रंग में चाहे वह लोकगीत हो या कोई भी संगीत प्रेम का विरह का रंग उस में छलक ही जाता है ...लोक गीतों में तो कई बार इस तरह की बात मिल जाती है जो ख़ुद में पूरी कायनात अपने में समेटे होती है ..जैसे
पंजाब के लोक गीत में ..
मेरे मितवा ! मेरे सजना !
मुझे आसमान का लहंगा सिलवा दे
जिस पर धरती की किनारी लगी हो !
और इस तरह एक लोक गीत और है जिस में पूरी धरती के काया कल्प की बात की गई है ..
इस धरती को कलई करवा दे !
मैं सारी रात नाचती रहूंगी ...
इस तरह एक वक्त था जब चरखा कातने वालियां ,चरखे को अपना सबसे बड़ा हमराज मान लेती थी ,क्यों कि उस वक्त जो काम करते हुए वह जो गीत गाती थी ,वह उनके दिल की आवाज़ होते थे ,जिसे सिर्फ़ चरखा ही सुनता ,और अपने दिल में संभाल लेता ..इस तरह चरखे को अपना हमराज कश्मीर की चरखा कातने वालियों ने भी बनाया ..कश्मीर के लोक गीत में एक लड़की चरखे को बहुत प्यार से अपने पास बैठने को कहती है और उस से अपने मन की बात कुछ इस तरह से कहती है ...
मेरे सुख दुःख के साथी !
मेरे मित्र ! मेरे मरहम !
मेरे पास बैठ जाओ !
मैं तेरा धागा
फूलों के पानी में भीगों कर बनाऊंगी
और पश्मीना के लंबे लंबे तार कातती रहूंगी
देखो आहिस्ता आहिस्ता बोलना
अगर मेरा महबूब आए -
तो उस से कहना --
मुझे इतना क्यों भुला दिया ?
फूलों सी जान को इस तरह नही रुलाते ...
इस तरह हिमाचल के एक लोक गीत में यह एहसास गहराई से उभर कर आया है ..
नदी तो भर बहती है
लेकिन में इस किनारे हूँ
तुम दूसरे किनारे ..
अरे ! तुम तो तैरना जानते हो
फ़िर तैर कर क्यों नही आ जाते ?
अच्छा देखो ,
मैं एक नाव ले कर आती हूँ
तुम खिड़की खोल कर मेरा इन्तजार करना ..
उत्तर प्रदेश का एक अवधी गीत .ज़िन्दगी की तलब से भरा हुआ है ..
मूंगे का रंग क्या है !
मोती का रंग क्या है !
रंग तो मेरे दूल्हे का है ..
मूंगा सुर्ख है ,मोती सफ़ेद है
मेरा दूल्हा सांवला है ..
यह मूंगा कहाँ रखूं ?
यह मोती कहाँ रखूं
और अपने दूल्हे को कहाँ बिठाऊं ?
मोती और मूंगा बालों में पीरों लूंगी
दूल्हे को अपने पलंग पर बैठा लूंगी ...
इसी तरह बुदेलखंड का एक गीत है
तू नजर भर कर देखता क्यों नहीं ?
मेरे पास आज आता क्यों नही ?
मैं तो वन की हिरनी हूँ
तू ठाकुर का बेटा है
कोई तीर चलता क्यों नही ?
गुजरात का रंग भी अपने लोक गीत में प्रेम के रंग में खूब निखरा है ..वह अपने प्रियतम के इन्तजार में बैठी है और ख़त लिख रही है ...इस ख़त में वह उड़ते पंछी से कहती है ..
देखो मैं यह ख़त तेरे पंखों में छिपाती हूँ
तुम उड़ते जाना ,और यह ख़त उसको दे देना !
तुम बोल नही पाओगे ,कोई बात नहीं
लेकिन अपने पंख आहिस्ता से खोल देना ..
मैं उसके आने की इन्तजार इस तरह करती हूँ
जैसे एक मोर ,सावन के आने इन्तजार करता है
जैसे सीता राम के इन्तजार में बैठी रही
जिस तरह कोई सखी कृष्ण के इन्तजार में ...
इस तरह ज़िन्दगी के न जाने कितने रंग लोक गीतों में समाये होते हैं ,गढ़वाल के एक गीत में कोई लड़का किसी सुंदर लड़की को देखता है तो वह दिल हार कर अपना उस से पूछ ही बैठा ..
अ़री सांवली ! तू किसके घर की लड़की है ?
आग के धुएँ जैसी
केले की फली जैसी
और आंखों में कजरा डाले
तू मिटटी के दीये जैसी
एक लपट सी निकलती ..
पत्तों की छाती में
एक कली खिलती .
और पेडों की शाख की तरह
तेरी कमर है झूलती ..
तेरी नाक पर एक मोती खेलता
तेरे होंठो पर कोयल बोलती
तेरे गालों पर गुलाब खिलता
तेरी आंखों में एक आग जलती ..
अरी सांवली ! तू किसके घर की लड़की है ?
इस तरह के लोक गीत जैसे हमें अपनी मिटटी से जोड़ देते हैं ...और इन में बसी प्यार की महक जैसे रूह को अन्दर तक छू लेती है .ज़िन्दगी के यह रंग सिर्फ़ अपने देश के लोक गीतों में ही नहीं दिखते ..यह तो हर दिशा में हर देश में अपने लफ्जों से दिलो में बिखरे हुए हैं ... .बाकी देश के कुछ लोक गीतों की चर्चा अगली कड़ी में ....अभी तो अपने देश के इन लोक गीतों के रंगों में खो जाए ....और आपके पास इस तरह के कोई लोक गीत हो तो जरुर शेयर करें ...
यह लेख राजस्थान पत्रिका के २९ मार्च के रविवारीय अंक में 'मैं वन की हिरनी नाम से "पब्लिश हुआ था ...
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28 comments:
जीवन का असली मर्म तो लोकगीतों में ही छिपा हुआ है. बहुत अच्छा लिखा. कभी पंजाबी के कुछ मौलिक लोकगीत दें तो और अच्छा लगेगा.
aapne to har prant ke lokgeeton mein jhalakti aatma se ru-b-ru karwa diya hai.dhanyavaad.
आप बहुत बेहतरीन लिखती है आप ने अमृता प्रीतम की किताब हरदत्त का जिंदगी नामा पढ़ी
लोकगीत मिट्टी की खूशबू लिए होते है। और आपने लोकगीत के ढेरों रंग़ दिखाये है। उन्हें देख पढकर आनंद आ गया है। आखिर वाला लोकगीत तो सच मुझे बहुत ही पसंद आया है। एक बेहतरीन पोस्ट।
आप ने बहुत से लोकगीतों से परिचित कराया है। समय मिल सका तो हाड़ौती के लोक गीतों से परिचय जरूर कराउंगा।
मेरे लिए यह पोस्ट ज्ञानवर्धक रही, शुक्रिया
---
चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
प्रेम में भीगी मिटटी की सोंधी खुशबू- दिल में उतर गई.
तभी हर जगह की संस्क्रति संजो कर रखने जैसी चीज है.....अब कोई लोक गीत सुने सालो बीत जाते है
लोकगीतों की बात ही निराली है,परिचय अच्छा लगा...
पहली बार इस ब्लॉग पर
मुझे एक बहुत अच्छी पोस्ट
पढ़ने को मिली!
बधाई और शुभकामनाएँ,
इस आशा के साथ
कि भविष्य में भी यहाँ
ऐसे आलेख पढ़ने को मिल पाएँगे!
लोकसंगीत में जो अपनापन है वह और कहाँ .सुंदर पोस्ट .
हाँ लोकगीत किसी भी संस्कृति की धरोहर हैं व हमें उस समय के लोगों व उनकी सोच से परिचित करवाते हैं।
बढ़िया लेख है।
घुघूती बासूती
Mam, hum to kaayal ho gaye aapke lekhan ke...... kis subject par aapki kalam nahi chalti... lekh thoda bada hain. par pura padha hamne.
बहिन रंजना जी!
लोक गीतों पर आपकी पोस्ट बहुत सशक्त रही। इसके लिए बधाई।
लुधियाना पंचाब में बैठा हूँ।
आपका ब्लाग पढ़ रहा हूँ।
ज़िन्दगी के रंग लोक गीतों के संग.सुन्दर प्रस्तुति. आभार.
लोकगीतों में ही मिट्टी की खुशबू मिलती है और सुनने में हमेशा ही अच्छे लगते हैं.
aaj aap ne बहुत अच्छे अच्छे गीतों से परिचय कराया.
राजस्थानी ,उत्तर प्रदेश और पंजाबी लोक गीत बहुत सुने मगर और किसी प्रान्त के लोक गीत कभी सुने नहीं..
अच्छा विषय और बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है.
...prasansaneeya abhivyakti !!!!
वाह !! सुंदर सुंदर लोकगीतों को प्रस्तुत किया .. हमारे लोकगीतों के क्या कहने !!
वाह लोक गीतों से सजी पोस्ट भी कमाल रही.. राजस्थान का तो लेकिन मिला ही नहीं..
रंजना जी,
लोकगीतों की मिठास सा सराबोर पोष्ट के लिये कुछ और लिखे जाने के लिये नही बचता।
बस चुप बैठकर मिश्री का रसास्वादन किया जाय और अपने क्षैत्र के किसी लोकगीत की धुन पर पैर हिलायें जाये।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
लोकगीत वाकई संस्कृति के गहरे दर्शन कराने में अपना अमूल्य योगदान निभाते हैं.. आभार
भारत की मिटटी तो प्यार के इतने रंगों से सरोबर है की पूरा काव्य लिखा जा सकता है.................
अपने छाँट छाँट कर लोक गीतों का ऐसा गुलदस्ता पेश किया है जिसमें अलग अलग रंग के फूल हैं पर एक ही खुशबू बसी है......... अपनी मिटटी की खुशबू..............प्यार की खुशबू............
Lok Geet hamare zindagi ka ek hissa hain aur hame apni mitti ki kushbu aur mehatta ka ehsas dilate hain aur ek saath bandhe rakhte hae.
It was a pleasure to go through ur blog
Purnima Samant via Alok
लोकगीतों की इस महफ़िल में आनंद आ गया...
और आपने जो इतना कठिन होमवर्क दे दिया है कि उलझ गया हूँ। प्रयास जारी है किंतु....
भारत के अधिकतर क्षेत्रों के लोकगीतों से परिचय कराया, आभार.
आपका यह लेख पहले राजस्थान पत्रिका में पढ़ा था, बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
प्रेम ही प्रेम है इस पोस्ट में तो ! सच है प्रेम की कोई सीमा नहीं, कोई भी भाषा हो कोई भी बोली.
बहुत खूबसूरत लेख और लोकगीत भी बहुत चुनचुन कर लाईं हैं । आसमान का लहंगा और धरती की किनार क्या खूब । और आखरी लोक गीत का भाव भी बेहतरीन शायद एक लडकी को देखा तो ऐसा लगा की प्रेरणा इसीसे मिली हो ।
आम आदमी के दिल की आवाज है.. लोकगीत और आजकल इसे फ़िल्म वाले खूब भुना रहे हैं..
बढिया लेख
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