Monday, October 01, 2007

समर शेष है..."रामधारी सिंह दिनकर जन्मशताब्दी समारोह""


समर शेष है जन गंगा को खुल के लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो !

दिनकर जी यह पंक्तियाँ उनके ही जन्मशताब्दी समारोह में जा कर सुनने की अनुभूति कैसी होती है यह मैने 23 सितम्बर को मलावंकर भवन में आमंत्रित होकर जाना।इस समारोह के
प्रमुख आयोजक श्री नीरज जी अध्यक्ष, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह
दिनकर स्मृति न्यास… के सफल प्रयासों से यह आयोजन बहुत सफल रहा !उस समारोह का जोश
दिनकर जी की लिखी किसी पंक्ति से कम नही था। मंत्रीद्वय शिवराज पाटिल जी और मुरली मनोहर जोशी जी को सामने बैठ के सुनना जहाँ एक सुखद अनुभव था वहीं विनीत चौहान के मुख से रेगिस्तान की मिटटी पर जोशीली कविता का पाठ जैसे एक रोमांच सा पैदा कर गया।

शिवराज पाटिल जी का यह कहना कि "कविता व्याकरण में बाँध कर नही लिखी जा सकती। व्याकरण कविता का ढाँचा हो सकते हैं पर उसकी आत्मा नही। कविता की आत्मा उसका मूल भाव है जो कि दिल से निकल कर दूसरे के दिल को झिंझोर दे,उसका दर्द महसूस करे,उसको अपने लफ़्ज़ो में ढाल दे, वही असली कविता है और वही कवि।" उन्होने यह भी कहा कि दिनकर जी की कविता यूँ थी जैसे कोई "बाँसुरी फूँक के शंख नाद की ध्वनि" से सब जगत को हिला दे। सच ही तो है यह।

मुरली मनहोर जोशी जी का संदेश दिनकर जी की लिखी उन पंक्तियों में था जो आज भी उतनी ही महत्व रखती हैं। जितनी दिनकर जी के समय में लिखे जाते वक़्त थी।
वो पंक्तियाँ हैं

"समर शेष है ,नही पाप का भागी केवल व्याघ
जो तटस्थ है ,समय लिखेगा उनका भी अपराध।"

कितनी गहरी और सच बात,सच में आज-कल जो भी कुछ होता है हम सिर्फ़ उसको तटस्थ हो कर ही तो देखते हैं। किसी का एक्सीडेंट हो गया हम देख रहे हैं,कोई दुख में हो हम तब भी हमें कोई फ़र्क नही पड़ता। उन्होने यह चुटकी आज-कल की राजनीति के उपर यह कह कर ली कि हम आज के माहौल में आराम से बैठ कर तटस्थता से देश की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं।

यह तो थी उस समारोह की कुछ मुख्य बातें जो मेरे लिए कभी ना भूलने वाले पलों में से एक हैं।
इस समारोह में एक पुस्तक भी निकाली गयी जिसका नाम है ""समर शेष है "।
इस में मेरे लिखे लेख को भी जगह मिली, लेख का नाम था "रामधारी सिंह दिनकर और उनका प्रेम काव्य उर्वर्शी "'। उर्वशी उनकी वह रचना है जिस पर उन्हे बहुत पुरस्कार भी मिले और बहुत विवादित भी रही। इस में यह ""उर्वशी की कथा " नाम से प्रकाशित हुई है । दिव्याभ जी ने अपने ब्लॉग में इस समरोह का सच्रित्र वर्णन किया है उनकी कविता "दिनकर-एक बलंद आवाज"बहुत ही सुंदर लिखी है!

दिनकर जी मूलत: राष्ट्रवाद के कवि के रुप में ही जाने जाते हैं ।इस में राष्ट्रीय चेतना के प्रखर स्वर के साथ ही छाया वादी
रोमांटिकता का भी आभास भी मिलता है। रसवंती इनकी व्यक्तिक भावनाओं से युक्त श्रृंगारपरक काव्य संग्रह है। उर्वशी दिनकर का कमाध्याताम संबंधी महाकाव्य है। जिसमें प्रेम या काम भाव को आध्यात्मिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है। इसकी विषय वस्तु इन्द्रलोक की अप्सरा उर्वशी और इस लोक के राजा पुरुवरा की प्रेम कथा पर आधारित है। हिंदी आलोचकों के मध्य इस रचना को लेकर पक्ष और विपक्ष में पर्याप्त चर्चा हुई है। इस महाकाव्य में इन्होने नयी कविता के शिल्प का सहारा लेते हुए प्रतीकों, बिंबो और रूपकों का अत्यंत कुशलता से उपयोग किया है। इसी रचना के लिए उन्हे ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला!

एक मिथ-कथा को लेकर इस काव्य की रचना की गयी है। पुरुरवा चंद्रवंशी राजकुल का प्रवर्तक था और उर्वशी स्वर्गलोक की अप्सरा। मित्र और वरुण देवताओं के शाप के कारण उसे पृथ्वी पर उतरना पड़ा । पृथ्वी पर उतरते वक़्त पुरुरवा ने उसको देखा और उस पर आसक्त हो गया बाद में उर्वशी भी उसकी सुंदरता, सच्चाई, भक्ति और उदारता जैसे गुणों के कारण उस पर मुग्ध हो गयी। दोनो पति-पत्नी बन गये। बहुत दिनो तक सुख से रहने के बाद एक पुत्र को जन्म दे कर उर्वशी वापस स्वर्गलोक चली गयी।

पुरुरवा उसके वियौग़ में पागल हो गया। उर्वशी इस से प्रसन्न और द्रवित हो कर वापस धरती पर लौटी और एक और पुत्र को जन्म दिया। इस तरह उनके पाँच पुत्र हुए पर वो बार बार स्वर्ग चली जाती थी। लेकिन पुरुरवा तो उसको जीवन संगनी बनाना चाहता था।गंधर्वों के अनुसार उसने यज्ञ किया और उसका मनोरथ पूरा हुआ ।

दिनकर जी ने विक्रमर्वशीयम और रविन्द्र नाथ टेगोर की रचना उर्वशी पढ़ी थी पर इसमें किसी का दोहराव नही है। उर्वशी में लगातार एक दुन्द्ध चलता रहता है। पुरुरवा पूछता है

रूप की अराधाना का मार्ग
आलिंगन नही तो और क्या है?
स्नेह का सोंदर्य को उपहार
रस चुंबन नही तो क्या है ?

उर्वशी में पुरुष और स्त्री के बीच प्राकृतिक आकर्षण, काम भावना के कारण उत्पन प्रेम और फिर इस प्रेम के विस्तार को मापने की कोशिश की गयी है।उनके अनुसार एक आत्मा से दूसरी आत्मा का गहन संपर्क अध्यातम की भूमिका बन सकता है। रूप की सुंदरता प्रेम और श्रृंगार की अनुभूतियों की खुली अभिव्यक्ति उर्वशी में मिलती है। इस के प्रकाशन के बाद इस में भारी साहित्यिक विवाद भी हुआ

हारे को हरीनाम दिनकर की अंतिम काव्य रचना है
जिसमें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से खिन्न हो कर कवि ने आध्यामिकता की और जाने का इशारा किया है। युग चारण और लोकप्रिय जन कवि की अपेक्षा के अनुरुप इनकी हर कविता का शिल्प सहज और सुंदर है। जिसके आधार पर उन्हे अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग पहचाना जा सकता है !!
यह कुछ अंश है मेरे लिखे लेख के जो समर शेष हैं में प्रकाशित हुआ है !

रंजना [रंजू]

5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बधाई.

दिव्याभ जी ने भी पढ़वाई थी इस कार्यक्रम की रपट. आज फिर यहाँ पढ़ी, बहुत बेहतरीन.

एक प्रति हमारे लिये भी संभाल कर रख ली जाये अगले माह ले लेंगे. :)

Divine India said...

आप तो गद्य भी बहुत अच्छा लिखती हैं…
बहुत सुंदर प्रस्तुति है यह काफी विस्तार
दिया है दिनकर जी के काव्य संग्रह का
पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया…
बधाई स्वीकारें।

Sajeev said...

दिनकर जी को शत शत नमन

Sanjeet Tripathi said...

शुक्रिया इस विवरण के लिए!!

लेकिन अगर साथ मे वह लेख भी डाल पाती तो ज्यादा बेहतर होता!

Arvind Mishra said...

बहुत अच्छा रिपोर्ताज -पढ़ने का निमंत्रण देने के लिए बहुत आभार !