तुम याद आए आज फिर_
सुबह उठते ही गरम चIय के साथ,
जब जीभ जल गयी थी,
पेपरवाले ने ज़ोर से फेंका अख़बार जब,
मुह्न पर आकर लगा था ज़ोर से,
बाथरूम मैं जाते वक़्त,
जब मेरा पैर भी दरवाज़े से उलझ गया था,
फिर सब्ज़ी काटते वक़्त जब उंगली काट बेठbethi थी,
नहाते वक़्त उसी कट kati अंगुली में जब साबुन लगा था,
हाँ याद आए तुम तभी, प्रेस ने भी हाथ जला दिया था.
और बरसात से अकड़ा दरवाज़ा भी बंद नही होता था,
स्कूटी की किक्क भी मार गयी थी झटका,
तुम याद आए______________
हर चुभन के साथ.....
हर टूटन के साथ...........
हर चोट के साथ...........
दे गये ना जाने कितने और ज़ख़्म
याद दिलाने को अपनी
हर ज़ख़्म में उठती टीस के साथ.,...
ना नही--.
मेरी टीस से डरना मत
मेरी चुभन को सहलाना मत.
मेरे ज़ख़्मो को छूना मत
फिर तुम याद कैसे आओगे?
यूँ ही आते रहो मेरे ख़्यालो मैं
देते रहो नये ज़ख़्म,
पुराने को करो हरा,
बनेने दो इन्हे नासूर,
इनसे उठता दर्द, दिलाते रहे याद
तुम्हारी, यूँ ही हर सुबह..................
18 comments:
आपकी पहली अलयबद्ध कविता पढ़ रहा हूँ। मैं तो आपकी लयबद्ध कविताएँ ही पढ़ता आया था।
इन्हें पढ़कर अच्छा लगा-
हर ज़ख़्म में उठती टीस के साथ.,...
ना नही--.
मेरी टीस से डरना मत
मेरी चुभन को सहलाना मत.
मेरे ज़ख़्मो को छूना मत
फिर तुम याद कैसे आओगे?
tum jab bhi yaad ate ho,
koi bhi dard meetha ho jata hai,
jakham mitne lagte hai,
ghav bhar jata hai,
tumhari yaad chod jati hai dil main thandi chubhan,
ahshas dilate hai,
bhitar jati hawa ka,
mint ke goli khane ke baad,
ya do ghunt pani ka
tum jante hee nahi, maine apna sab dhuk kata hai,
tumhari yaad main,
main kuch bhi nahi ho saki tumhari,
ardhagini ya purnagi,
bas ek sannata hai,
tumhari yaad main
अच्छी है .. सच में अच्छी है , कुछ सोचने पर विवश करती है , मुझे अभी सब्ज़ी भी काटनी है , तब सोचूँगा .
जब उम्मीद ने उम्मीद का दामन छोड़ा था,
और आशाओं का सुर्ख़ पंख फैला तब तुमने
थाम कर वाहें…उस नासूर को दिखाया था जो
ज़ख्म मेरे यादों में मेरे जीने के सहारों में
तुमनें संजोय रखा था…।
सुंदर!!!
सुंदर रचना! बधाई.
A good combination of reality and imagination. Good work...
भाव वही प्रिय के प्रेम के विरह के.. उसके ज़ख्मों में भी सूकुन पाते हुये.. पर अम्दाज़ निराला है.. सच्मुच अलग अभिव्यक्ति अब तक जो भी पढा उन्से.. बधाई..
सुन्दर रचना...
धीर गम्भीर .. सोच में डूबी हुयी...
माहोल हलका करने के लिये दो पंक्तियां
अपनी याद दिलाने को वो
रूमाल पुरान छोड गये
शुक्रिया शैलेश..... हाँ कभी कभी कुछ अलग सा लिखने की कोशिश कर लेती हूँ
आपको पसंद आया अच्छा लगा ..
shukriya vinu ...aapne behad khubsuart lines likhi hain ..padh ke bahut achha laga ...thanks
shukriya rahul ...
shukriya samir ...
bahut khoob divyabh ...shukriya aapka tahe dil se
shukriya gulshan ji ...
shukriya manya ..aapne iske bhaav ko smajha aur alag dhang se likhi meri koshishko pasand kiya ...
:)thnaks mohinder ..sach mein achhi thee yah lines ..
nice poems...i am tempted to restart writing some now :)
'प्रेस' ने भी हाथ जला दिया'………………।
'प्रेस' हाथ तो जरूर जलाती है,मगर जिसका हाथ जलाती है,उसे अपने से "चिपका" भी लेती है। चाहे वो कपडा प्रेस करने वाली 'प्रेस' हो या मीडिया वाली 'प्रेस' हो। ध्यान रहे !
रंजना जी खास आपके लिये हाथों-हाथ तैयार किया एक जुमला पेश है। शायद समझ आ सके। अर्ज है-
"हर चोट पर आह किसलिये हर बात पर चुभन किसलिये,तू तो दुखों का सागर है 'रंजू' फिर जख्मों की दुखन किसलिये"?
Post a Comment