खट्टे मीठे किस्से घुमक्कड़ी के भाग 1
खट्टे मीठे किस्से घुमक्कड़ी के अगले भाग में है पहली उड़ीसा यात्रा सुसराल के साथ .. तो इस यात्रा को तो यादगार रहना ही है😊
शादी के बाद दो चार बार जहां घूमने गए हम दोनो पति पत्नी ही गए। फिर बच्चे हुए तो आगे बहनों का सुसराल में परिवार भी बढ़ता गया। तो घूमना परिवार के साथ हो गया । और पति के साथ कम शुरुआत में पहले कुछ ट्रिप सास ससुर और ननद के साथ हुए। जब पहला ट्रिप इस तरह का बना तो दिल में बहुत घबराहट थी क्योंकि अस्सी दशक की बहू मेरे जैसी सिर्फ हांजी हांजी और सिर्फ जो पूछा उसके जवाब के साथ सिमटी हुई थी तो इस तरह से उनके साथ घूमने जाना बहुत ही अनोखा एहसास दे रहा था। और एक डर भी क्योंकि पति नहीं साथ जा रहे थे।
मैं मेरी दोनो बेटियां ननद और उसकी बेटी साथ में सासू मां और ससुरजी। मम्मी यानी सास से मेरी बहुत बनती थी तो उनके साथ सहज थी। पापा के साथ थोड़ा डर वाली फीलिंग और ससुर बहु वाली एक झिझक भी थी। वह घर में काफी रौब से रहते थे और जो उन्होंने कह दिया बस वही सही बाकी कोई कुछ न बोले। सरकारी नौकरी में अच्छी पोस्ट पर थे। घूमने का उनका खुद का तो काफी रहता था ,पर इस बार घूमने का प्रोग्राम परिवार के साथ बनाया उन्होंने। अब प्रोग्राम चूंकि उन्होंने ही बनाया था और कहा साथ चलना है तो बस जाना ही था चूंकि मुझमें खुद भी घूमने का कीड़ा था तो अंदर से डरी हुई के साथ खुश भी थी।
पहला ट्रिप हमारा जगन्नाथ पुरी का था। ट्रेन से जाना था । खाना बना कर ले गए थे । सफ़र बहुत ही सुखद और हंसी खुशी गया। जब हम स्टेशन पर उतरे तो शाम हो चुकी थी । गेस्ट हाउस हमारा बुक था और स्टेशन से कुछ दूर अंदर मन्दिर के कहीं आसपास था। वहां जा कर पता चला कि वो सिर्फ रहने की जगह है , खाने पीने का इंतजाम हम लोगों को खुद करना था ।
ट्रेन का सफर दो दिन का था उन दिनों और हमारे पास तीन छोटे बच्चे थे जिनके कपड़े काफी गंदे हो चुके थे। तो मम्मी और मैं तो मौका मिलते ही कपड़े धोने में लग गए पापा जी खाने का इंतजाम करने चले गए। अभी आधे कपड़े ही धुले थे कि पापा जी आए और बोले कि दूसरे guest House में जाना है यहां आगे भी खाने की समस्या रहेगी बच्चों के साथ ठीक नहीं रहेगा। हम सास बहू ने यूं ही आधे धुले गीले कपड़ों की पोटली बांध ली ,परंतु मैं अंदर से डरी हुई थी कि अब डांट पड़ेगी इस तरह से आते ही कपड़े धोने पर और यूं गठरी बांधने पर ।आखिर उनके भी स्टेट्स की बात थी। उस पर सोने पर सुहागा कि तेज बारिश शुरु हो गई ,लाइट सब गुल हो गई और कोई टैक्सी वहां जहां जाना था वहां तक के लिए नहीं मिल रही थी। उन दिनों कोई मोबाइल या अन्य नेट सुविधा तो थी नहीं कि ऑनलाइन कुछ मंगवा लिया जाए ,बाहर जा कर ढूंढना था और वो भी अनजान शहर में।
रात होने के कारण गेस्ट हाउस में जो बंदा था वो भी न हमारी भाषा समझ पा रहा न हम उसको कुछ समझा पा रहे। तीन छोटे बच्चे ,ननद और मैं और एक तरह से हर चीज को संभालने वाले पापा जी। खुद का सोचूं तो अभी कुछ ऐसी बात हो जाए तो मैं बाहर भी आसानी से हैंडल कर लूंगी पर उस वक्त की मैं जो चौबीस साल की थी बिल्कुल ही भोंदू और डरपोक सी थी पूरी तरह से बड़ों पर डिपेंडेट। तभी गेस्ट हाउस के सामने एक हाथ रिक्शा खड़ा दिखा ,पापा जी ने उस से कोई मोलभाव नहीं किया बस कहा कि इस से दूर ही कुछ गेस्ट हाउस एक और है वहां तक जाना है ,वो ले चलने को तैयार हो गया। सीट पर किसी तरह हम तीन बच्चों के साथ न जाने कैसे बैठे वो तो अब इतना याद नहीं पर पापा जी रिक्शे वाली की सीट पर हमारे गीले कपड़ों की गठरी ले कर जिस तरह बैठे वो आज भी अच्छी तरह से याद है। रिक्शे वाला न जाने कैसे उस भरी बरसात में हमे ले कर जा रहा था वो भी वो ही जाने। हां यह जरूर था मन में मेरे कि वहां सही सलामत पहुंच जाए ,और जो डांट पड़नी है उस से कैसे बचा जाएगा।
राम राम करके वहां पहुंचे तो कमरे में जा कर पापा जी मुस्करा रहे , मम्मी ने पूछा क्या हुआ तो यही बोले कि "यह पहला दिन याद रहेगा। तुम सास बहू का रेस्ट हाउस पहुंचते ही उसको घर सा बना देना और मेरा यूं उल्टे मुंह रिक्शे पर बैठ कर आना वो भी तुम्हारी गीली गठरी के साथ। यह तो रात है और बारिश है तो जो मुझे किसी ने इस तरह से देखा नहीं "कह कर वह हंस दिए।
उनके इस तरह कहने से माहौल एक दम सहज सरल सा हो गया। और जो एक झिझक सी थी वह भी खत्म हो गई । उस यात्रा के साथ उनके साथ की गई आगे की यात्राएं भी सरल हो गई। बाहर निकल कर उनका घर वाला कठोर रूप बिल्कुल बदल जाता था। मम्मी के साथ मैं शुरू से ही सहज कंफर्टेबल थी। बाहर घूमने में पापा जी के साथ भी वही सहजता आ गई । वह हर चीज का ध्यान रखते ,खाने पीने से ले कर बच्चों के साथ आराम से घूमने का। हर छोटी बात पर बच्चों सा खिलखिलाते और हमे भी हंसाते। उनके साथ याद रखने लायक यात्राओं में सोमनाथ मंदिर , द्वारकाधीश , उड़ीसा ,आदि हैं।
यह यात्राएं हमें इंसान के उस रूप से भी मिलाती है जो घर में अलग ही व्यक्तित्व लिए रहते हैं पर अलग स्थान अलग परिवेश उन्हें उस व्यक्तित्व से बिल्कुल जुदा दिखाता है जो हमारे समाज के नियमों चलते उन्हें घर में बनाए रखना पड़ता है। घर वापस आते ही हम फिर उसी रंग में वापिस आ जाते हैं। तभी तो मुझे घुम्मकड़ होना पसंद है क्योंकि यही यात्राएं आपको खुद से परिचित करवाती है ,दूसरों के मूल स्वभाव से परिचित करवाती हैं।
एक और यादगार यात्रा के रंग अगले अंक में ..जुड़े रहिए मेरे साथ खट्टे मीठे किस्से घुमक्कड़ी के में ...
15 comments:
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-06-2022) को चर्चा मंच "बहुत जरूरी योग" (चर्चा अंक-4468) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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यात्राएँ खुद से और साथ जाने वाले लोगों से परिचय करवाती हैं । ये खट्टे मीठे किस्से अच्छे लग रहे हैं ।
शुक्रिया संगीता जी ,होंसला बढ़ाने के लिए
प्रतिकूलताओं में ही तो ज़िंदगी का मज़ा है। सुंदर संस्मरण!!!
kindly remove this moderation feature. It hurts the flow of joy.
सही कभी खट्टी कभी मीठी, शुक्रिया
हटा दिया है जी,धन्यवाद
बहुत बढ़िया, उस समय के हनीमून का बढ़िया वर्णन, 👍👍
इस यात्रा की शुरुआत भी आपकी मजेदार रही । बचपन मे मेरी भी अपने संयुक्त परिवार मे अपने पापा से ज्यादा बातचीत नही रहती थी । फिर एक बार दिल्ली बुआ के घर से मुझे ले कर लौट रहे थे पूरे ट्रेन मुझे खुब खिलाते पिलाते लाये । तब लगा मेरे पापा तो कितने अच्छे है 😀 Anshumala
आपके ब्लॉग पर फाॅलो करने का विकल्प नही दिख रहा है । Anshumala
Thanks 😊👍
यात्राएं ही असली व्यक्तित्व से मिलवाती हैं 😊👍धन्यवाद
आप ऑलरेडी मेरे ब्लॉग को फॉलो कर रही हैं 😊👍वैसे कुछ ऑपरेट ब्लॉग के मैं भी ताजा कर रही हूं, पर निश्चित रूप से इसमें फॉलो ऑप्शन तो है , क्योंकि जब से दुबारा लिखना शुरू किया है तब से दस फॉलोअर बढ़े हैं इसके ,समझ आता है तो देखती हूं 😊🙏
बहुत बढ़िया यात्रा वृत्तान्त. ससुराल में जब सब सहज होते हैं तो सब कुछ कितना आसान होता है
परिवार के सम्बंधों का सुंदर वर्णन। यात्राओं के संस्मरण उन यादों को ज़िन्दा रखते हैं, समय के साथ इनका महत्व बढ़ता जाता है।
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