Friday, June 17, 2022

खट्टे मीठे किस्से घुमक्कड़ी के भाग 1

 घुमक्कड़ी इंसान की पहली पसंद है। एक जगह पर रहते ,एक सा काम करते हुए हम उकता जाते हैं तो यह दो चार दिन का बदलाव जरूरी है। घुमक्कड़ी के भी कई प्रकार हैं ,किसी को सोलो ट्रिप पसंद है , किसी को बड़े छोटे ग्रुप के साथ और किसी को अपने पार्टनर के साथ। 


मेरे अधिकतर ट्रिप फैमिली बच्चों, बहनों के साथ बने हैं । मैने अभी तक कोई सोलो ट्रिप नहीं किया है ,और कोई ऐसे पैकेज ग्रुप के साथ भी नही किया है। पर अब इस तरह से ट्रिप करने की इच्छा बहुत है क्योंकि फैमिली में अब सब अपनी अपनी जगह सेटल और अपने हिसाब से रहने का और  चलने का करते हैं।  उम्र के साथ अब सहजता पसंद आती है , तो लगता है कि इस तरह से कोई पैकेज ट्रिप बने जहां नए दोस्त बने और संपूर्ण रूप से हंसी मजाक और सही मायने में घुमक्कड़ी भी हो। सिर्फ फोटो ड्रेसेस और खाने से अलावा उस  घूमने वाली जगह को हंसी खुशी एंजॉय करना हो। कुदरत के करीब रहने का एहसास करना हो। और बजट में हो।


मेरे अभी तक के किए गए सभी ट्रिप अच्छे रहे हैं और कुछ बहुत ही बढ़िया बेहतरीन। उनमें से कुछ ट्रिप मुझे क्यों बहुत बढ़िया और यादगार लगे हैं ।वह अब भी सोच कर अच्छा लगता है। 

 सिर्फ घूमने वाली जगह के बारे में लिखना या याद रखना ही बहुत नहीं होता ,कुछ कुछ ट्रिप की उस घूमने वाली जगह से और भी बहुत सी यादें जुड़ी होती हैं, जैसे यात्रा जहां से शुरू हुई उसकी तैयारी , और अन्य चीजों के साथ कि आपने यह यात्रा किन के साथ की? उनके साथ के अनुभव और खट्टी मीठी यादें भी याद रह जाती हैं । जिन्हें सोच कर कभी हंसी भी आती है कभी खुद की करी गई बेवकूफी पर मुस्करा भी देते हैं । इस पोस्ट  में उस जगह घूमने से अधिक उस यात्रा में न भूलने वाली बातों का जिक्र होगा ,तो उन्हीं के बारे में बारी बारी लिखूंगी...

शादी के बाद की पहली यात्रा पति के साथ ,अस्सी दशक का हनीमून 😊 


जब शादी हुई तो महज उन्नीस बीस साल की थी । मेरे पापा की जॉब ट्रांसफर वाली जॉब थी तो एक तो उस तरह से दूसरा पेरेंट्स से घुमक्कड़ी का कीड़ा काटा हुआ था तो घूमने का नाम सुन कर ही आत्मा खुश हो जाती थी। 

     बात थी शादी के दो दिन बाद मुंबई जाने की हनीमून पर ।  हनीमून का तो उस वक्त अधिक अता पता सिर्फ फिल्मी ज्ञान तक सीमित था पर मुंबई घूमने जाना है इस बात का उत्साह बहुत अधिक था।  चूंकि नई नई शादी हुई थी तो कपड़े भी नए ,गहने भी थे ,बच्चों से उत्साह में सब कुछ ले जाने को रेडी थी मैं , क्योंकि फिल्मी ज्ञान के अनुसार सज संवर कर घूमना था अब तो न कि अपने शादी से पहले की तरह मस्त फक्कड़ी में एक पैंट शर्ट और कैनवस शूज के साथ। 😊

पैकिंग शुरू ही की थी कि सासु मम्मी आई और बोली कि "नई जगह जा रहे हो तुम बिलकुल बच्चे ही हो दोनों  तो सिर्फ नॉर्मल कपड़े ही रखो और कोई ज्वेलरी नहीं ले जानी साथ  ,वहां भी इस तरह से घूमना कि अधिक शो ऑफ न हो कि नए शादी शुदा हो।" 

 चलो जी यूं ही सही , वैसे भी हम दोनो जा रहे हैं घूमने बस इसी बात से खुश थे , कि अब तक तो मम्मी पापा के साथ घूमते थे ,अब कोई बड़ा हमारे साथ नहीं ,खूब अपने मन के हिसाब से घूमने को खाने को मिलेगा।  सात दिन मुंबई में बस यही सोच पगला रही थी। तो जी महज सिंपल से जोड़े पति देव के और शादी के बाद साड़ी ही ज्यादा थी तो वही रख ली गई। जाने वाले दिन रेलवे स्टेशन पर था, हाथ में छोटा सा सूटकेस और हैंडबैग और साथ में छोड़ने आए मायके सुसराल के बड़े से ले कर छोटे तक । राजधानी सिटिंग कार में हम दोनों की सीट बुक थी ।

आगे की  बुकिंग पापा जी (ससुर )द्वारा वहां के सरकारी रेस्ट हाउस में हो चुकी है यह बताया गया और ट्रेन से उतर कर खुद ही टैक्सी करके वहां तक कैसे जाना है इस को बकायदा नक्शा समझा कर कम से कम पांच बार हम दोनो को सिखाया समझाया गया। आगे कहां घूमना है ,किस से मिलना है ?कब कहां कैसे किस तरह से जाना है ?पूरा पूरा लिख कर साथ दिया गया। 


असली ट्विस्ट तो वहां पहुंच कर पता चला कि जो कमरा हमारे लिए बुक था वह अलरेडी किसी और के नाम था और वो उस को दो दिन बाद खाली करने वाले थे। दो लोग और एक बच्चा था उनके साथ,और कोई कमरा भी खाली नहीं था उस गेस्ट हाउस में।  दिल्ली फोन करके पापा जी को समस्या बताई गई क्योंकि यही कहा गया था वहीं रुकना है और कहीं नहीं जाना। खैर पापा जी की भी नहीं चली ,तो हमें कहा गया कि उसी कमरे में उन्हीं के साथ रूक जाओ , मैने मैनेजर से बात कर ली है दो दिन  की बात है एडजस्ट कर लो बाकी के चार दिन आराम से रह लेना।"

 हम दोनो तो हैरान परेशान थे ही ,जो कमरे वाले थे वो कुछ देर तो न नुकर करते रहे पर पता नहीं फिर उन दोनो मियां बीबी में क्या खुसपुस हुई ,बोले कि ठीक है यहीं रुक जाओ पर डबल बेड पर हम ही सोएंगे तुम लोग नीचे बेडिंग लगवा लो। मरते क्या न करते ,बाहर हुक्म नही जाने का , मैं वैसे ही बुद्धू राम डरपोक और नई नवेली दुल्हन ,न अभी ढंग से पति का स्वभाव जानती न इनके पापा जी का । बस यही देखा कि वो जो कहते हैं यह हांजी हांजी करके मानते हैं ,उनसे डरते हैं और बात सिर्फ मतलब की करते हैं अपने पापा से। तो फिर क्या नखरा दिखाती और क्या नाराजगी। 

पर वास्तव में वह दो दिन न भूलने वाले थे। अब तक याद आता है कि ना कमरा साथ शेयर करने को देने वाले सोए न हम लेने वाले सोए। उस पर सुबह उठने पर मजेदार किस्सा यह हुआ कि जब नहा कर बाहर तोलिया हम दोनो ने टांगा तो उन तोलियों पर युगल डांसर की तस्वीर बनी हुई थी ,जिसको देख कर हमें रूम देने वाले पेट पकड़ कर हंस रहे थे। ना जाने क्या सोच कर हमे घरवालों ने वो टॉवेल दिए थे और उस पर  हम उनको यहां साथ ला कर आराम से बाहर सूखने डाल रहे।  नई शादी के यह भी इफेक्ट्स थे। 

 खाने का भी रेस्ट हाउस में अरहर की दाल और चावल मिलते थे वहीं खाया क्यों बाहर से खाने की आज्ञा नहीं थी। घूमने के भी जो स्थान निश्चित किए गए थे वहीं घूमे ,उनमें से एक दिन पापा जी के किसी दोस्त के यहां लंच था। उसी प्रोग्राम की तय शुदा लिस्ट में ,चुपचाप से साड़ी को संभालते हुए गई और चुपचाप से वापिस आ गए। उस वक्त चुप चाप शालीनता से बड़े जो कहें यही सिखाया समझाया गया। 

 जम्मू जैसे शहर से निकली लड़की के लिए मुंबई वैसे ही बहुत तेज रफ़्तार का शहर महसूस हुआ। अच्छा लगा जितना भी देख पाए। बाद में भी दो बार मुंबई गई तो चर्च गेट पर वह रेस्ट हाउस देख कर हंसी आ गई थी। और घूमने में सिर्फ गेटवे ऑफ इंडिया याद रहा । पर  जब वहां से घूमने निकलते थे तो अब यदि सोचूं तो  शायद हम दोनो खुद को विद्या सिन्हा और अमोल पालेकर जैसा समझते थे। पूरी तरह से लिपटी हुई साड़ी में मैं और ढीले ढाले पैंट शर्ट में पति देव । बस यही याद में हैं अब तक 

  देखिए ना क्या घूमा, क्या देखा वहां यह अब अच्छे से याद नहीं ,पर उस से जुड़ा हर दिन आना जाना याद है। यह इस तरह की  यादें भी हर यात्रा के साथ जुड़ी होती है.. जब यह याद आती हैं तो गुदगुदी दे कर हंसा जाती है। 

अगली यात्रा का किस्सा अगले भाग में जुड़े रहिए मेरे साथ ... खट्टे मीठे किस्से घुमक्कड़ी के ...

6 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-06-2022) को चर्चा मंच     "अमलतास के झूमर"  (चर्चा अंक 4464)     पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

रंजू भाटिया said...

धन्यवाद

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

विद्या सिन्हा और अमोल पालेकर 😆😆😆😆
मस्त लिखा है । इतनी हिदायतें हनीमून पर , पढ़ कर सच खट्टी खट्ट यादें लग रहीं अब आगे कुछ मीठा हो जाय ।

Harsh Wardhan Jog said...

Nice and funny.
Only addition I can make is that of cycle ride. We both went on cycle, deposited in railway station parking lot and then took the train!
Have good time!

रंजू भाटिया said...

जी वो वक्त ऐसा ही था, और उम्र छोटी कुछ और भी उस वक्त यही सिखाया जाता था ,ज्यादा नहीं बोलते बड़ों के सामने 😊

रंजू भाटिया said...

यह भी मजेदार है ,बाद में जब सब यह याद आता है तो हंसी ही आती है । धन्यवाद आपका मेरे ब्लॉग पर आने के लिए