डोगरी लेखिका पद्मा सचदेव की कलम से अमृता .....
दिल में एक चिनगारी डालकर
जब कोई साँस लेता है
कितने अंगारे सुलग उठते हैं,
तू उन्हें क्यों नहीं गिनती?
यह कैसा हुनर और कैसी कला?
जीने का एक बहाना है
यह तख़य्यल का सागर है
तू कभी क्यों नहीं नापती?
'डोगरी की अमृता प्रीतम' के नाम से जानी गईं वरिष्ठ कवियत्री पद्मा सचदेव कहती हैं, 'अमृता प्रीतम अपनी शर्तों पर जीने वाली आजाद ख्याल महिला थीं। वह बेहद रचनात्मक, खूबसूरत और शालीन थीं। उनकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। अमृता की लेखनी में अलग तरह का स्त्री विमर्श था। चाहे कविता हो, कहानी हो या उपन्यास, उन्होंने हर बार नारी के प्रति पुरुष की उदासीनता को पेश किया।'
भारत-पाकिस्तान विभाजन की पृष्ठभूमि पर रचे उनके उपन्यास ‘पिंजर’ में ‘पूरो’ नाम की हिंदू लड़की और उसे भगाकर ले जाने वाले रशीद के बीच के रिश्ते की कशमकश झलकती है। अमृता प्रीतम की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त पुस्तक ‘कागज ते कैनवास’ की कविता ‘कुमारी’ में वह आधुनिक लड़की की कहानी बयाँ करती हैं। उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी बेखौफ नजीर पेश करती है। पद्मा कहती हैं, 'अमृताजी ने अपनी रचनाओं के जरिए उन महिलाओं को एक रास्ता दिखाया था जो तब दरवाजों के पीछे सिसका करती थीं।'
एक वाकया याद करते हुए पद्मा ने बताया, 'एक बार दिल्ली में एक घर की छत पर छोटा जमावड़ा हुआ। वहाँ एक-दो पंजाबी रचनाकार मौजूद थे। अचानक अमृता के आने की सुगबुगाहट शुरू हुई। उस मौके पर उन्होंने एक नज्म पेश की। दिलचस्प यह था कि नज्म ‘ब’ लफ्ज से शुरू होने वाले अपशब्दों जैसे ‘बदतमीज, बेलगाम, बेलिहाज, बेरहम’ पर आधारित थी। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने नज्म बेहद खूबसूरती से गढ़ी थी।’’ अमृता वाघा सीमा के दोनों ओर के पंजाब में लोकप्रिय हैं। कहा जाता है कि उनकी लोकप्रियता पंजाबी रचनाकार मोहन सिंह और शिव कुमार बटालवी से भी ज्यादा है।
दिल में एक चिनगारी डालकर
जब कोई साँस लेता है
कितने अंगारे सुलग उठते हैं,
तू उन्हें क्यों नहीं गिनती?
यह कैसा हुनर और कैसी कला?
जीने का एक बहाना है
यह तख़य्यल का सागर है
तू कभी क्यों नहीं नापती?
'डोगरी की अमृता प्रीतम' के नाम से जानी गईं वरिष्ठ कवियत्री पद्मा सचदेव कहती हैं, 'अमृता प्रीतम अपनी शर्तों पर जीने वाली आजाद ख्याल महिला थीं। वह बेहद रचनात्मक, खूबसूरत और शालीन थीं। उनकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। अमृता की लेखनी में अलग तरह का स्त्री विमर्श था। चाहे कविता हो, कहानी हो या उपन्यास, उन्होंने हर बार नारी के प्रति पुरुष की उदासीनता को पेश किया।'
भारत-पाकिस्तान विभाजन की पृष्ठभूमि पर रचे उनके उपन्यास ‘पिंजर’ में ‘पूरो’ नाम की हिंदू लड़की और उसे भगाकर ले जाने वाले रशीद के बीच के रिश्ते की कशमकश झलकती है। अमृता प्रीतम की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त पुस्तक ‘कागज ते कैनवास’ की कविता ‘कुमारी’ में वह आधुनिक लड़की की कहानी बयाँ करती हैं। उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी बेखौफ नजीर पेश करती है। पद्मा कहती हैं, 'अमृताजी ने अपनी रचनाओं के जरिए उन महिलाओं को एक रास्ता दिखाया था जो तब दरवाजों के पीछे सिसका करती थीं।'
एक वाकया याद करते हुए पद्मा ने बताया, 'एक बार दिल्ली में एक घर की छत पर छोटा जमावड़ा हुआ। वहाँ एक-दो पंजाबी रचनाकार मौजूद थे। अचानक अमृता के आने की सुगबुगाहट शुरू हुई। उस मौके पर उन्होंने एक नज्म पेश की। दिलचस्प यह था कि नज्म ‘ब’ लफ्ज से शुरू होने वाले अपशब्दों जैसे ‘बदतमीज, बेलगाम, बेलिहाज, बेरहम’ पर आधारित थी। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने नज्म बेहद खूबसूरती से गढ़ी थी।’’ अमृता वाघा सीमा के दोनों ओर के पंजाब में लोकप्रिय हैं। कहा जाता है कि उनकी लोकप्रियता पंजाबी रचनाकार मोहन सिंह और शिव कुमार बटालवी से भी ज्यादा है।
पंजाबी
रचनाकार डॉ. संतोख सिंह धीर कहते हैं, 'यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि
अमृता को उनकी रचनाएँ अनूदित करवाने का मौका मिला जो मोहन सिंह और बटालवी
को उनके समय में नहीं मिल पाया। हालाँकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि
कविता के मामले में अमृता काफी आगे हैं। उनकी कहानी ‘शाह की कंजरी’ और
उपन्यास ‘पिंजर’ भी बेहद मशहूर है लेकिन उनकी कविताओं में ज्यादा गहराई
है।
मेरा बदन एक पुराना पेड़ है…
और तेरा इश्क़ नागवंशी –
युगों से मेरे पेड़ की
एक खोह में रहता है।
और तेरा इश्क़ नागवंशी –
युगों से मेरे पेड़ की
एक खोह में रहता है।
नागों का बसेरा ही पेड़ों का सच है
नहीं तो ये टहनियाँ और बौर-पत्ते –
नहीं तो ये टहनियाँ और बौर-पत्ते –
देह का बिखराव होता है…
यूँ तो बिखराव भी प्यारा
अगर पीले दिन झड़ते हैं
तो हरे दिन उगते हैं
और छाती का अँधेरा
जो बहुत गाढ़ा है
– वहाँ भी कई बार फूल जगते हैं।
और पेड़ों को नगी बिल की क़सम है
और – बरस बाद
मेरी ज़िन्दगी में आया –
यह नागपंचमी का दिन है…
तो हरे दिन उगते हैं
और छाती का अँधेरा
जो बहुत गाढ़ा है
– वहाँ भी कई बार फूल जगते हैं।
और पेड़ की एक टहनी पर –
जो बच्चों ने पेंग डाली है
वह भी तो देह की रौनक़…
जो बच्चों ने पेंग डाली है
वह भी तो देह की रौनक़…
देख इस मिट्टी की बरकत –
मैं पेड़ की योनि में आगे से दूनी हूँ
पर देह के बिखराव में से
मैंने घड़ी भर वक़्त निकाला है
मैं पेड़ की योनि में आगे से दूनी हूँ
पर देह के बिखराव में से
मैंने घड़ी भर वक़्त निकाला है
और दूध की कटोरी चुराकर
तुम्हारी देह पूजने आई हूँ…
यह तेरे और मेरे बदन का पुण्य हैतुम्हारी देह पूजने आई हूँ…
और पेड़ों को नगी बिल की क़सम है
और – बरस बाद
मेरी ज़िन्दगी में आया –
यह नागपंचमी का दिन है…
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-03-2015) को "मेरी कहानी,...आँखों में पानी" { चर्चा अंक-1912 } पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत खूब। उम्दा लेखन। इस लिंक पर मेरी नई पोस्ट मौजूद है।
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