Friday, November 16, 2012

कैसा होमोसेपियंस?


कैसा होमोसेपियंस ?(कविता-संग्रह)

मूल्य- रु 150
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046) इन्फीबीम पर खरीदने का लिंक

मेरे अन्दर सीलन ....थी भी?
मुझे याद नहीं
जब से देखा है...खुद को
ऐसा ही पाया है
चेहरा नम होता है
और आंखें खाली... बदन गीला रहता है
और जेहन खाली न जाने कब..
किस हादसे में...?
क्या बह गया है....
कमबख्त....आंखों से लहू के सिवा
कुछ उतरता ही नहीं !

अभिषेक पाटनी की लिखी यह पंक्तियाँ उनके परिचय के साथ जब पढ़ी थी तो ही वह विशेष लगी थी और जब उनका संग्रह कैसा होमोसेपियंस पढ़ा तो उत्सुक हुई यह जानने के लिए कि आखिर इसका नाम इस तरह का क्यों रखा गया ? हिंदी कविता का संग्रह और नाम वैज्ञानिक ?जो विज्ञान में रूचि रखते हैं उनके लिए यह नाम नया नहीं हो सकता है पर हिंदी कविता संग्रह के लिए यह नाम जरुर कुछ अनोखा लगता है ..इस का जवाब भी अभिषेक पाटनी ने अपने संग्रह में लिखे दो शब्दों में बहुत खूबसूरती से लिखा है की ...यकीन मानिए ,मैंने बहुत कोशिश की लेकिन दिन ब दिन बदलती इस दुनिया को जिस तरह से मैंने समझा और झेला ,उसके बाद मुझसे इस से सामान्य कोई शीर्षक सूझा  ही नहीं ?" इस संग्रह में जितनी कवितायें हैं सबके विषय वस्तु में आज का इंसान है यानी आधुनिक इंसान और साथ में हैं उस इंसान की बनायी तमाम सरंचना ,फिर चाहे वह रिश्ते हों या समाज |
विज्ञान की नजर में इंसान भी बाकी दूसरे जानवरों की तरह महज एक जीव मात्र है ..होमोसेपियंस .फिर भी भौतिकता और विकास का हवाला दे कर इसको बाकी जानवरों से अलग दिखाने की बताने की कोशिश की जाती है एक ही इंसान में अच्छे बुरे तमाम दोनों तरह के लक्ष्ण  नजर आते हैं और इस में लिखी हर कविता इसी बात को बताती है ..
हाँ, यही बताई थी
उसने अपनी जाति
तिस पर,
नेताजी ने चेहरे पर
बिना भाव बदले
उसे लताड़ा था --
’अरे तू कैसे हो गया होमो सेपियंस ?
फिर हम क्या हैं ?
कुछ पता भी है
समाज के प्रबुद्ध लोग कहलाते हैं—
होमो सेपियंस !’

अभिषेक पाटनी के लिखे इस संग्रह में उन्होंने हर कविता इस तरह से लिखी है जो आज के समाज पर करारा व्यंग करती है और उसकी सच्चाई को बखूबी ब्यान करती है इनकी लिखी कविताओं में संवेदना बहुत ही सूक्ष्म रूप से ब्यान हुई है उन्हें यह हुनर आता है कि इस संवेंदना को कैसे कलम से उतरना है
अलग अलग तरीके से
सब मरते हैं
कई कई बार
बड़ा हो या छोटा
सब जीते हैं

मरने के साथ ..उनकी लिखी यह पंक्तियाँ हमारे आस पास की सच्चाई है जो ब्यान हुई है आज की ज़िन्दगी में कैसे हम जीते हैं ...अभिषेक जी के बारे में ही उनके इस संग्रह में पढ़ा कि  वह बचपन में हकलाते थे दूसरे लोग मजाक बनाते फिर अपने भी हंसने लगे |यह बात उन्हें और उनकी माँ को बहुत तकलीफ पहुंचाती थी  लेकिन माँ ने उन्हें इस रास्ते से उबरने का रास्ता तलाशने को कहा और वह अपनी  बात लिख के कहने लगे और इस से उन्हें कई बार नुकसान  भी हुआ अधिक चुप रहने के कारण पर फायदा अधिक  हुआ कम से कम वह अपनी बात अब लिख कर कह सकते  थे और वही उनकी पहचान भी है
मेरी आवाज़ में गहराई है
सदियों की ख़ामोशी
टूटती है इनसे
मैं हकलाता भी हूँ
टोकने से पहले
मुझे दबाया जाता है
अब इन दो विलक्षणताओं से सधी
मेरी आवाज़
कैसी भी है
मेरी पहचान है !!
और यह पहचान मुझे बहुत पंसद आई इनकी .बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो इस तरह से अपनी बात को यह अंदाज़ दे पाते हैं और अपने मन की आवाज़ को बुलन्द करते हैं अपने लिखे से ..
अभिषेक 'पत्रकारिता व जन्सम्प्रेषण' में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से  स्नात्कोत्तर हैं |इन्हें २००७ में राँची स्थित स्पेनिन संस्था द्बारा 'स्पेनिन सृजन सम्मान से सम्मानित किया गया है और तमाम हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ व निबंध प्रकाशित हो चुके हैं|जो बात वह जुबान से न कह सके वह उनकी कविता में उनकी ताकत बन कर उतरी और लोगों ने उनको पढना पसंद करना शुरू किया |
देखे थे सपने एक कस्बे ने
की वो शहर हो गया
दोड़ता रहा वो सालों
उस सपनों के पीछे
आखिर रंग लायी उसकी उर्जा
रोशन हुआ वह कस्बा
और शहर हो गया !
सपने सबकी आँखों में सजते हैं और वह रंग भी लाते हैं पर इन सपनों को लाने के लिए पूरा करने के लिए कुर्बानी भी देनी पढ़ती है और दर्द भी सहना पड़ता है तब कलम लिखने लगती है
  ऐसी ज़िन्दगी दे डालो
कि हर कोई खुद को पैदा करे
खुद को जीए
अपने ही रिश्ते के लबादे में पलता रहे
और अंत खो जाए बचा लो चाहते हो
गर खुदाई की खुदाई सलामत
हर कुछ ,हर शय,या खुदा
बसा बदल डालो !!

पर बदला जाना क्या इतना आसान है न जाने इस में कितने दर्द कितनी सिसकियाँ छिपी हुई हैं ..
खुद को सुलझाने की आस में
और उलझ जाने की
बेबसी
हालत से
हारते रहने का खौफ

पता नहीं और क्या क्या ..?यह दर्द छिपाया जाता है सिसिकयों में ...उनकी  लिखी रचना सिसकियाँ बहुत बेहतर तरीके से इस बात को दर्शाती है और तब एक मुखोटा ओढ़ लेते हैं  जिसको व्यवस्था नाम दे देते हैं खुद से ही
एक मुखोटा
महज ओढ़ लिया गया है
एक ढोंग की तरह
एक दिखावे की तरह
नहीं तो कुछ भी नहीं ऐसा
जो हो रहा है कहीं भी
न जाने फिर भी कैसे
हर कुछ नजर आता है
एक व्यवस्था के तहत !!

इनकी इन्ही रचनाओं में वेश्या कविता की पंक्तियाँ दिल में एक अजीब सी सनसनाहट पैदा कर देती हैं
जिस दिन उसे
कोई ग्राहक नहीं मिलता
वह सोती है
अपने पति के साथ
अपने पति की
प्यास बुझाने में
हर बार उसे
अलग से एहसास होते
कई बार बेगार का मलाल
कई बार कल की चिंता
कई बार पैसे की कमी ..
और भी न जाने क्या क्या ..
पर प्यार
शायद कभी ..
शायद कभी नहीं !और
यही उसकी ज़िन्दगी जीने का जरिया है .जिस का कोई उसको मलाल नहीं ..ज़िन्दगी उसको इसी तरह से नए रूप में रोज़ ढाल कर अपने सामने खड़ा कर देती है ..बहुत कड़वा सच है इन पंक्तियों में |जो यूँ अपनी कलम से उतारना हर किसी एक लिए शायद सहज न हो | उनका यह संग्रह तीन भाग में बंटा है
यह रचनाये थी इनके कैसा होमोसेपियंस के उस भाग से जहाँ अभिषेक दुनिया को अपनी नजर से देख रहे हैं और बहुत सुन्दर ढंग से अपनी बात कह भी गए हैं इनके संग्रह के दूसरे भाग में वहम ..में हैं मैं और मेरी बातें जो बहुत ही बेहतरीन हैं
घर
गांव का अच्छा था
भली थी मिटटी की दीवारें
करके सुराख
कहीं से हो सकती थी
किसी से बात ...स
च कितना सही लिखा है ..वह घर वाकई घर कहलाता होगा आज के वक़्त में जब घर में रहने वाले ही बात नहीं करते हैं
एक पल तुम्हारी छावं में
बैठने की आस में
न जाने कब तक बैठा रहा
तुम आये भी
तुमने दामन फैलाया भी
लेकिन वह छाँव कहीं नहीं थी .
उनके लिखे इस भाग में आसमाँ कैसे कैसे ?अम्मा के सपने और परवरिश न भूलने वाली रचनाएं हैं
कुछ चीजे शायद कभी न हो
अम्मा के चेहरे पर हँसी
हमारा लहलहाता खेत
और अम्मा के पूरे सपने
.. ..बहुत असलियत से भरे हुए हैं यह शब्द ...और परवरिश रचना में ब्यान है दर्द उन परम्पराओं का जो अब हम सब कहीं पीछे छोड़ते आ रहे हैं ...
माँ बुलाया करती थी
हर "छठ" में घर ............विश्वास हो या न हो माँ से मिलने का यह बहाना था जिस में घर जाने का मौका मिल जाता था ..पर आज का वक़्त कितना बदल गया है ...
हमारा बेटा विदेश में रहता है
और पिछले सात सालों से
एक बार भी नहीं आया
कभी कभार
फोन से बातें कर लेता है
वह भी अंग्रेजी में  

कई बार बोलता हूँ आने को
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का
........यह आज के वक़्त की वह सच्चाई है जो हम सब जानते हैं ..भागम भाग लगी है .सब कुछ कहीं पीछे छुटा जा रहा है
कितने आंसू का अर्ध्य
कितने सिसकियों का तर्पण
कितने भावों की हवी
कितने संबंद्दों की बलि चाहती है --समृद्धि ..?


तीसरा भाग है इस संग्रह में गिलहरियाँ ..कुछ यहाँ कुछ वहाँ की ..चंद पंक्तियों में कही गयी यह रचनाएं बेहद प्रभाव पूर्ण तरीके से अपनी बात कहती है वाकई कुछ यहाँ से हैं कुछ वहां से ..कुछ कच्ची सी भी है और कुछ गहरी भी ...फिर भी प्रभावित करती हैं ...
माँ ने ख़्वाबों का
बगीचा बना रखा है
वहीँ से हर रोज़
तोड़ लाती है
होंसलों के फल .........
.......इस से अधिक बेहतरीन ढंग से इस बात को और कैसे व्यक्त किया जा सकता है ..
दरवाज़े पर दस्तक होगी और बेटा
अपने जूते उतारता हुआ बोलेगा -
"आज बहुत थक गया हूँ "
वृद्धाश्रम की हर वृद्धा हर वक़्त इसी आस में
एक ही और देखती है ..............

हमारे आस पास सब कुछ बहुत तेजी से बदल रहा है और हम सब तेजी से बस भागे चले जा रहे हैं अभिषेक जी की लिखी रचनाएं वही बदलाव को ले कर लिखी गयीं है |उनकी लिखी रचनाओं में अपन आस पास को ले कर लिखा गया है जो हम सबसे जुड़ा हुआ है शहर गांव .माँ बहन समाज सब का दर्द है इन रचनाओं में |यह आज के युवा आक्रोश है ,इस में एक तड़प भी दिखती है और एक आग भी ..बदलने की चाह भी है तो सहम जाने का ठहराव भी ..जो कहीं कही जोश में भर कर कहा गया हुंकारा भी है जो उड़ान तो भरता है पर कहीं ठहर भी जाता है फिर भी वह  अपनी बात कह गया है ..बदलाव आयेगा यदि यही सोच रही आने वाली युवा पीढ़ी की  तो बदलेगा ज़िन्दगी को समझने का ढंग भी |   ..इस संग्रह में समाज, परिवार से जुडी तो कई बातें है पर प्रेम प्रसंग के लिए कहीं कोई जगह नहीं है .और इतने युवा कवि के संग्रह में यह बात कुछ अनोखी सी लगती है ..इसी तर्ज़ पर शायद और भी गम है ग़ालिब जमाने में मोहब्बत के सिवा :).या शायद पहले संग्रह में अभी आक्रोश को जगह मिली है और बाद में प्रेम को जगह मिले ,जैसे किसी बरसात के बाद हुई  शान्ति ....इनके यदि अगले आने वाले अंक में हम इस के बाद उमड़ने वाले प्रेम को भी पढ़ पाए तो बहुत बेहतर होगा| क्यों की मन तो छलिया है और कलम उसको कह देने का माध्यम
कभी लिखा करता था
अपनी संतुष्टि के लिए
आज कल लिख रहा हूँ
खुद को छलने के लिए!!!

9 comments:

सदा said...

यानी आधुनिक इंसान और साथ में हैं उस इंसान की बनायी तमाम सरंचना ,फिर चाहे वह रिश्ते हों या समाज ... बहुत सही
बहुत ही अच्‍छी समीक्षा की आपने ... बधाई सहित शुभकामनाएं

सूर्यकान्त गुप्ता said...
This comment has been removed by the author.
सूर्यकान्त गुप्ता said...

सुन्दर प्रस्तुति ....

समीक्षा के माध्यम से एक ऐसे शख्स से परिचय कराया गया है

जिसने जिन्दगी को करीब से झाँका है ..

आभार! ........ शायद बेटे बेटियों के दूर

रहने की पीड़ा इसी तरह टूटे-फूटे

शब्दों में बयां है इसमें http://suryakantgupta256.blogspot.in/

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आज 17- 11 -12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....

.... आज की वार्ता में ..नमक इश्क़ का , एक पल कुन्दन कर देना ...ब्लॉग 4 वार्ता ...संगीता स्वरूप.

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत बखूबी आपने विश्लेषण किया है रंजू जी ..बहुत अच्छा लगा ...

Anonymous said...

bahut hi acchi samiksha ki aapane

Arvind Mishra said...

काव्य क्षेत्र इतना स्वच्छंद हो चला है कि कुछ कह दे कोई भी शीर्षक चुन ले! कोई रोक टोक है ही कहाँ ?
आप तो एक प्रोफेसनल समीक्षक के पद पर प्रतिष्ठित हो ली हैं -शुभकामनाएं!

प्रवीण पाण्डेय said...

शाश्वत प्रश्न, सुन्दर समीक्षा..

Madan Mohan Saxena said...

बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.