इन दिनों मैं असगर वजाहत की"
चलते तो अच्छा था" पढ़ रही हूँ यात्रा संस्मरण पढने वाले को बहुत पसंद आएगी | मुझे यात्रा करना पढना और उस पर लिखना बहुत ही पसंद है इस लिए इस किताब का चेप्टर वाइज ही परिचय दिया जाए तो ही बढ़िया रहेगा और यदि आपको मिल जाती है तो इसको जरुर पढ़े |इस अंक में पेश है इस के पहले चेप्टर "मिटटी के प्याले "से कुछ चुनिदा अंश
मिटटी के प्याले
चलते तो अच्छा था ईरान और आजरबाईजान के यात्रा-संस्मरण हैं। असग़र वजाहत ने केवल इन देशों की यात्रा ही नहीं की बल्कि उनके समाज, संस्कृति और इतिहास को समझने का भी प्रयास किया है। उन्हें इस यात्रा के दौरान विभिन्न प्रकार के रोचक अनुभव हुए हैं। उन्हें आजरबाईजान में एक प्राचीन हिन्दू अग्नि मिला। कोहेखाफ़ की परियों की तलाश में भी भटके और तबरेज़में एक ठग द्वारा ठगे भी गए।
यात्राओं का आनंद और स्वयं देखने तथा खोजने का सन्तोष चलते तो अच्छा था में जगह-जगह देखा जा सकता है। असग़र वजाहत ने ये यात्राएँ साधारण ढंग से एक आदमी के रूप में की हैं
भारत, ईरान तथा मध्य एशिया के बीच प्राचीन काल से लेकर मध्य युग तक बड़े प्रगाढ़ सम्बन्ध रहे हैं। इसके चलते आज भी ईरान और मध्य एशिया में भारत की बड़ी मोहक छवि बनी हुई है।
दोनों तरफ सूखे, निर्जीव, ग़ैर आबाद पहाड़ थे जिन पर लगी घास तक जल चुकी थी। सड़क इन्हीं पहाड़ों के बीच बल खाती गुज़र रही थी। रास्ता वही था जिससे मै इस्फ़हान से होता शीराज़ पहुँचा था और अब शीराज से साठ किलोमीटर दूर ‘पारसी-पोलास’ यानी ’तख़्ते जमशैद’ देखने जा रहा था. शीराज़ मे पता लगा था कि ‘तख़्ते जमशैद’ तक ‘सवारी’ टैक्सियाँ चलती हैं। ईरान में ‘सवारी’ का मतलब वे टैक्सियाँ होती हैं जिन पर मुसाफिर अपना-अपना किराया देकर सफर करते हैं। ये सस्ती होती हैं।
बताया जाता है कि ईसा से सात सौ साल पहले ईरान के एक जनसमूह ने जो अपने को आर्य कहता था, एक बहुत बड़ा साम्राज्य बनाया था। यह पूर्व में सिंध नदी से लेकर ईरान की खाड़ी तक फैला हुआ था। इतिहास में इस साम्राज्य को ‘हख़ामनश’ के नाम से याद किया जाता है। अंग्रेजी में इसे ‘अकामीडियन’ साम्राज्य कहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात यह है कि यह अपने समय का ही नहीं बल्कि हमारे समय में भी बड़े महत्त्व का साम्राज्य माना जाएगा।
इस साम्राज्य के एक महान शासक दारुलस प्रथम (549 जन्म-485 मृत्यु ई. पू.) ने विश्व में पहला मानव अधिकार दस्तावेज जारी किया था जो आज भी इतना महत्त्वपूर्ण है कि 1971 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने उसका अनुवाद विश्व की लगभग सभी भाषाओं में कराया और बाँटा था। यह दस्तावेज मिट्टी के बेलन जैसे आकार के पात्र पर खोदा गया था और उसे पकाया गया था ताकि सुरक्षित रहे। दारुस ने बाबुल की विजय के बाद इसे जारी किया था। कहा जाता है कि यह मानव अधिकार सुरक्षा दस्तावेदज़ फ्रांस की क्रांति (1789-1799) में जारी किए गए मानव अधिकार मैनेफैस्टों से भी ज्यादा प्रगतिशील है।
शताब्दियों तक दारुस महान की राजधानी ‘तख़्ते जमशैद’ पत्थरों, मिट्टी, धील और उपेक्षा के पहाड़ों के नीचे दबी पड़ी रही यह इलाक़ा ‘कोहे रहमत’ के नाम से जाना जाता है। रहमत का मतलब ईश्वरीय कृपा है।‘तख़्ते जमशैद’ आने से पहले कहीं पढ़ा था और लोगों ने बताया भी कि खंडहरों को देखकर यह कल्पना करनी चाहिए कि यह इमारत कितनी विशाल रही होगी।
कोई गाइट किसी पर्यटक ग्रुप को एक दीवार दिखाकर बता रहा था कि कभी यह दीवार इतनी चमकीली हुआ करती थी कि लोग इसमें अपनी शकल देख लिया करते थे। इस तरह की न जाने कितनी गाथाएँ यहाँ से जुड़ी हैं। कहते हैं कि किसी पौराणिक सम्राट जमशैद की भी यही राजधानी होती थी उसके पास एक दैवी प्याला था जो ‘जामे जमशैद’ के नाम से मशहूर है। जमशैद का जिक्र फिरदैसी ने ‘शाहनामा’ में भी किया है। प्याले में वह पूरे संसार की छवियाँ तथा भविष्य और भूत को देख सकता था।
तख्ते जमशैद बनने के केवल दो साल बाद ही सिकंदर महान के हाथो इसका अंत हो गया | उसने इस साम्राज्य की राजधानी को जला कर राख कर दिया | इतने बड़े साम्राज्य के इस अंत से प्रभावित हो कर शायद मिर्जा ग़ालिब ने लिखा होगा ..
जामे -जम से मेरा जामे सिफ़ाल अच्छा है
और ले आयेंगे बाज़ार से गर यह टूट गया
असगर वजाहत
राजकमल प्रकाशन