Sunday, June 26, 2011

इन्तजार



रिमझिम बरसी
बारिश की बूंदे
खिले चाहत के फूल
और नयी खिलती
कोपलों सी पातें
और न जाने
कितनी स्वप्निल शामें
मौसमों के
बदलते रुख में
अपने रंग बदल गयीं
और अब तो ……
उम्र के पडाव की
आखिरी गाँठ भी
धीरे धीरे
खुलने लगी है
पर …..
तुम्हारे आने का
इन्तजार अभी भी
न जाने क्यों
बाकी है …………….
इंतज़ार क्यूँ न हो …………….
सच तो यही है न
जीवन के हर पल में
बारिश की रिमझिम में ,
चहचहाते परिंदों के सुर में ,
सर्दी की गुनगुनी धूप में ,
हवाओं की मीठी गंध में
तुम ही तुम हो ….
दिल में बसी आकृति में
फूलों की सुगन्ध में ….
दीपक की टिम -टिम करती लौ में
मेरे इस फैले सपनो के आकाश में
बस तुम ही तुम हो …..
पर…..
नहीं दिखा पाती हूँ
तुम्हें वह रूप मैं तुम्हारा
जैसे संगम पर दिखती नहीं
सरस्वती की बहती धारा॥
सच तो यह है ….
ज़िंदगी की उलझनों में
मेरे दिल की हर तह में
बन के मंद बयार से
तुम यूं धीरे धीरे बहते हो
मिलते ही नजर से नजर
शब्दों के यह मौन स्वर
तुम ही तो हो जो ……
मेरी कविता में कहते हो !!

Wednesday, June 22, 2011

चलते तो अच्छा था (पुस्तक समीक्षा )



इन दिनों मैं असगर वजाहत की" चलते तो अच्छा था" पढ़ रही हूँ यात्रा संस्मरण पढने वाले को बहुत पसंद आएगी | मुझे यात्रा करना पढना और उस पर लिखना बहुत ही पसंद है इस लिए इस किताब का चेप्टर वाइज ही परिचय दिया जाए तो ही बढ़िया रहेगा और यदि आपको मिल जाती है तो इसको जरुर पढ़े |इस अंक में पेश है इस के पहले चेप्टर "मिटटी के प्याले "से कुछ चुनिदा अंश

मिटटी के प्याले


चलते तो अच्छा था ईरान और आजरबाईजान के यात्रा-संस्मरण हैं। असग़र वजाहत ने केवल इन देशों की यात्रा ही नहीं की बल्कि उनके समाज, संस्कृति और इतिहास को समझने का भी प्रयास किया है। उन्हें इस यात्रा के दौरान विभिन्न प्रकार के रोचक अनुभव हुए हैं। उन्हें आजरबाईजान में एक प्राचीन हिन्दू अग्नि मिला। कोहेखाफ़ की परियों की तलाश में भी भटके और तबरेज़में एक ठग द्वारा ठगे भी गए।
यात्राओं का आनंद और स्वयं देखने तथा खोजने का सन्तोष चलते तो अच्छा था में जगह-जगह देखा जा सकता है। असग़र वजाहत ने ये यात्राएँ साधारण ढंग से एक आदमी के रूप में की हैं
भारत, ईरान तथा मध्य एशिया के बीच प्राचीन काल से लेकर मध्य युग तक बड़े प्रगाढ़ सम्बन्ध रहे हैं। इसके चलते आज भी ईरान और मध्य एशिया में भारत की बड़ी मोहक छवि बनी हुई है।
दोनों तरफ सूखे, निर्जीव, ग़ैर आबाद पहाड़ थे जिन पर लगी घास तक जल चुकी थी। सड़क इन्हीं पहाड़ों के बीच बल खाती गुज़र रही थी। रास्ता वही था जिससे मै इस्फ़हान से होता शीराज़ पहुँचा था और अब शीराज से साठ किलोमीटर दूर ‘पारसी-पोलास’ यानी ’तख़्ते जमशैद’ देखने जा रहा था. शीराज़ मे पता लगा था कि ‘तख़्ते जमशैद’ तक ‘सवारी’ टैक्सियाँ चलती हैं। ईरान में ‘सवारी’ का मतलब वे टैक्सियाँ होती हैं जिन पर मुसाफिर अपना-अपना किराया देकर सफर करते हैं। ये सस्ती होती हैं।

बताया जाता है कि ईसा से सात सौ साल पहले ईरान के एक जनसमूह ने जो अपने को आर्य कहता था, एक बहुत बड़ा साम्राज्य बनाया था। यह पूर्व में सिंध नदी से लेकर ईरान की खाड़ी तक फैला हुआ था। इतिहास में इस साम्राज्य को ‘हख़ामनश’ के नाम से याद किया जाता है। अंग्रेजी में इसे ‘अकामीडियन’ साम्राज्य कहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात यह है कि यह अपने समय का ही नहीं बल्कि हमारे समय में भी बड़े महत्त्व का साम्राज्य माना जाएगा।
इस साम्राज्य के एक महान शासक दारुलस प्रथम (549 जन्म-485 मृत्यु ई. पू.) ने विश्व में पहला मानव अधिकार दस्तावेज जारी किया था जो आज भी इतना महत्त्वपूर्ण है कि 1971 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने उसका अनुवाद विश्व की लगभग सभी भाषाओं में कराया और बाँटा था। यह दस्तावेज मिट्टी के बेलन जैसे आकार के पात्र पर खोदा गया था और उसे पकाया गया था ताकि सुरक्षित रहे। दारुस ने बाबुल की विजय के बाद इसे जारी किया था। कहा जाता है कि यह मानव अधिकार सुरक्षा दस्तावेदज़ फ्रांस की क्रांति (1789-1799) में जारी किए गए मानव अधिकार मैनेफैस्टों से भी ज्यादा प्रगतिशील है।

शताब्दियों तक दारुस महान की राजधानी ‘तख़्ते जमशैद’ पत्थरों, मिट्टी, धील और उपेक्षा के पहाड़ों के नीचे दबी पड़ी रही यह इलाक़ा ‘कोहे रहमत’ के नाम से जाना जाता है। रहमत का मतलब ईश्वरीय कृपा है।‘तख़्ते जमशैद’ आने से पहले कहीं पढ़ा था और लोगों ने बताया भी कि खंडहरों को देखकर यह कल्पना करनी चाहिए कि यह इमारत कितनी विशाल रही होगी।

कोई गाइट किसी पर्यटक ग्रुप को एक दीवार दिखाकर बता रहा था कि कभी यह दीवार इतनी चमकीली हुआ करती थी कि लोग इसमें अपनी शकल देख लिया करते थे। इस तरह की न जाने कितनी गाथाएँ यहाँ से जुड़ी हैं। कहते हैं कि किसी पौराणिक सम्राट जमशैद की भी यही राजधानी होती थी उसके पास एक दैवी प्याला था जो ‘जामे जमशैद’ के नाम से मशहूर है। जमशैद का जिक्र फिरदैसी ने ‘शाहनामा’ में भी किया है। प्याले में वह पूरे संसार की छवियाँ तथा भविष्य और भूत को देख सकता था।

तख्ते जमशैद बनने के केवल दो साल बाद ही सिकंदर महान के हाथो इसका अंत हो गया | उसने इस साम्राज्य की राजधानी को जला कर राख कर दिया | इतने बड़े साम्राज्य के इस अंत से प्रभावित हो कर शायद मिर्जा ग़ालिब ने लिखा होगा ..

जामे -जम से मेरा जामे सिफ़ाल अच्छा  है
और ले आयेंगे बाज़ार से गर यह टूट गया

Chalte To Achchha Tha
चलते तो अच्छा था
असगर वजाहत
राजकमल प्रकाशन

Sunday, June 19, 2011

बाबुल तेरी मीठी यादे ...(पिता दिवस )

बाबुल तेरी मीठी यादे ...(पिता दिवस )


"ऐसी कोई ऊंचाई नहीं .जहाँ तुम नहीं पहुँच सकती ..ऐसी कोई कठिनाई नहीं है .जो तुम काम नहीं कर सकती ,बस तुम्हारी कोशिश और मेहनत सौ प्रतिशत होनी चाहिए "...जब एक पिता अपनी पुत्री को यह शिक्षा देता है ..तो कोई शक की गुंजाईश ही नहीं रहती कि उसके बच्चे ज़िन्दगी में कामयाबी हासिल न करें ...यह पंक्तियाँ स्वर्गीय राजकपूर ने अपनी बेटी रितु नंदा से कहीं .और उन्होंने भी अपने पिता के कहे को अपनी ज़िन्दगी में हुबहू उतार लिया ..
पिता की प्रेरणा
,आज पिता दिवस पर इनको दुहारने का और इनसे सीखने का अच्छा मौका और क्या हो सकता था ....हर पिता चाहता है कि उसकी संतान उस से अधिक सफलता हासिल करे ..और राजकपूर के सब बच्चों ने उनके इस सपने को सच कर दिखाया ...राज कपूर एक जाने माने स्टार थे ,उनकी व्यवस्ता बच्चो  को उनके आस पास रहने का मौका काम ही देती थी ..पर रितु नंदा ने उनके जीवन से बहुत कुछ सीखा ..कमिटमेंट .जीवंन की प्राथमिकता क्या है ..और उनकी प्रेरणा जो उनके साथ रही ,जिस ने उनका नाम देश विदेश में खूब हुआ ...
गुडिया की  शादी
रितु बचपन की एक घटना को याद करते हुए कहती है  कि मुझे याद है मेरे पास एक गुडिया थी और मैं उसकी शादी करना चाहती थी ...जब रितु ने अपने पापा से उस गुडिया की शादी की बात की तो पापा बोले वह खुद मेरी गुडिया कि शादी के सारे अरेंजमेंट्स देखेंगे ..उन्होंने रितु की गुडिया की शादी की तैयारी ठीक वैसे की जैसे असल में शादी की जाती है ..बाजा बजा .बारात आई .घर में कई तरह के पकवान बने ...रितु ने अपनी गुडिया को बहुत ही शानदार कपडे पहनाएं और खूब गहनों से उसको सजाया ......पापा और शम्मी अंकल ने मिल कर गुडिया की शादी को यादगार बना दिया और इस मौके को कैमरे में कैद कर लिया .लेकिन इस दौरान रितु को सबसे बड़ा शाक तब लगा जब विदाई के समय गुड्डे वाले उनकी गुडिया को ले कर चले गए ..रितु बहुत रोई ..तब पापा ने उनको समझाया कि शादी के बाद लड़का लड़की को अपने घर ले जाता है यही हमारी परम्परा है

 ..रितु की खुद की शादी महज बीस साल की उम्र में हो गयी .उनकी शादी के लिए राजकपूर जी के डोली का गीत खुद लिखा और शादी वाले दिन खुद गाया ..इतने सालों बाद भी रितु उस गीत को सुनते ही रो पड़ती है |
बच्चो की एम्बुलेंस

लाख वह व्यस्त रहे पर जब जब उनके बच्चों को उनकी जरुरत हुई वह अपने बच्चो के पास होते ..इस लिए रितु और बाकी बच्चे उनको एम्बुलेंस भी कह कर बुलाते थे ...रितु एक और घटना को याद करती हुई लिखती है कि शादी के बाद एक बड़ी सर्जरी हुई ,और उन्हें बेबी हुई जिसकी पैदा होते हो मौत हो गयी ...जब वह होश में आई तो उन्होंने देखा कि पापा उनके सामने खड़े हैं ,उनको होंसला देने के लिए ..और रितु वह पल आज तक नहीं भुला पायी है ....
दिल के कनेक्शन
शादी के बाद भी जब भी रितु पापा के घर जाती तो वह उनके साथ समय बताने का अवसर निकाल ही लेते थे .या उनसे मिलने उनके घर आ जाते थे ..जब भी पापा को ऐसा लगता था कि उनके बच्चे उनसे बात करना चाहते हैं तो वह हमेशा उन्हें अपने पास पाते ..जैसे दिल के कनेक्शन जुड़े हो आपस में ...
वह याद करती है कि पापा बहुत भावुक और केयरिंग इंसान थे और हर छोटी छोटी बात का ध्यान रखते थे ..जब भी किसी बच्चे को किसी चीज की जरुरत होती थी ,वह एक चिट्ठी लिख कर उनके तकिये के नीचे रख देते और वह चीज उन्हें मिल जाती थी ...

यह यादगार लम्हे रितु की किताब राजकपूर से लिए गए हैं ..जो पिता दिवस पर एक प्रेरणा देते हैं ...ज़िन्दगी में आगे बढ़ने की ,और ज़िन्दगी को होंसले से जीतने की ..रितु भी अपने पिता की तरह बहुत रचनात्मक हैं और ज़िन्दगी को इसी सोच के साथ देखती है ,जिस सोच के साथ उनके पापा ने उन्हें जीना सिखाया कि कोशिश और मेहनत से ज़िन्दगी कि हर ज़ंग जीती जा सकती है