Thursday, December 23, 2010

लावा

लगता है कभी कभी
मेरे भीतर 

एक लावा सा
बहता है
खून नहीं
तब ओढती हूँ बर्फ ,
और
सो जाती हूँ
एक ठण्ड का 

एहसास दे कर
अपने दिल को बहलाती हूँ
पर ज्वाला मुखी सा लावा ,
जैसे धधकता ही रहता है
बर्फ होते हुए सीने में ,
बहता ही रहता है
और फिर टूटते हुए

बाँध की तरह
 बह जाने को होता है
तब मैं उस बाँध पर
अपनी ख़ामोशी की 

रोक लगा देती हूँ
और मुस्कराते हुए
हर लावे को 

अपने भीतर समेट लेती हूँ   .............??

यह लिखी गयी पंक्तियाँ कुछ अधूरी सी  है ...........आप सब अपनी राय इस पर आगे लिख कर दे सकते हैं ....