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Monday, May 24, 2010
यादों के पल
जीवन की रेल पेल में
हर संघर्ष को झेलते
हर सुख दुःख को सहते
कभी मैंने चाही नही इनसे मुक्ति
पर कभी बैठे बैठे यूं ही अचानक
जब भी याद आई तुम्हारी
तब यह मन आज भी
भीगने सा लगता है
चटकने लगते हैं तन मन में
जैसे मोंगारे के फूल
और जैसे
सर्दी से कांपते बदन में
तेरी याद का साया
गुनगुनी धूप सी भर देता है
छेड़ता नहीं है कोई सरगम को
फ़िर भी एक संगीत दिल में
गूंजने लगता है ..
उतर जाते हैं कई आवरण
उन यादो से .
जिन्हें दिल आज भी संजोये हुए हैं
नही पड़ने देता दिल
इन पर वक्त का साया
क्यों कि यही कुछ याद के पल
इस तपते जीवन को
एक ठंडी छाया देते हैं
जीवन के कड़वे यथार्थ को
कुछ तो समृद्ध बना देते हैं !!
रंजना (रंजू ) भाटिया
Monday, May 03, 2010
अपने अपने प्यार की परिभाषा
ना जाने किसकी तलाश में
जन्मों से भटकती रही हूँ मैं
अपनी रूह से तेरे दिल की धड़कन तक
अपना नाम पढ़ती रही हूँ मैं....
लिखा जब भी कोई गीत या ग़ज़ल
तू ही लफ़्ज़ों का लिबास पहने मेरी कलम से उतरा है
यूँ चुपके से ख़ामोशी से तेरे क़दमो की आहट
हर गुजरते लम्हे में सुनती रही हूँ मैं
खिलता चाँद हो या फिर बहकती बसंती हवा
सिर्फ़ तेरे छुअन के एक पल के एहसास से
ख़ुद ही महकती रही हूँ मैं
यूँ ही अपने ख़्यालों में देखा है
तेरी आँखो में प्यार का समुंदर
खोई सी तेरी इन नज़रो में
अपने लिए प्यार की इबादत पढ़ती रही हूँ मैं
पर आज तेरे लिखे मेरे अधूरे नाम ने
अचानक मुझे मेरे वज़ूद का एहसास करवा दिया
कि तू आज भी मेरे दिल के हर कोने में मुस्कराता है
और तेरे लिए आज भी एक अजनबी रही हूँ मैं!!!
रंजना (रंजू) भाटिया
अप्रैल २००७
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