Tuesday, September 03, 2019

मुक्ति की भाषा ,स्त्री मन की बात ( भाग 5)

आज स्त्री मन की बात करते हुए ,एक कहानी जो अभी कहीं पढ़ी । स्त्री मन प्रेम की भाषा जानता है तो विद्रोह करना भी जानता है। बस उसको समझने की जरूरत है । कहानी इस प्रकार है ।

मैंने एक दिन अपनी पत्नी से पूछा क्या तुम्हे बुरा नहीं लगता मैं बार बार तुमको बोल देता हूँ डाँट देता हूँ फिर भी तुम पति भक्ति में लगी रहती हो जबकि मैं कभी पत्नी भक्त बनने का प्रयास नहीं करता?

मैं ""वेद"" का विद्यार्थी हूँ और मेरी पत्नी ""विज्ञान"" की परन्तु उसकी आध्यात्मिक शक्तियाँ मुझसे कई गुना ज्यादा हैं क्योकि मैं केवल पढता हूँ और ओ जीवन में उसका पालन करती है।

मेरे प्रश्न पर जरा ओ हँसी और बोली की ये बताइए एक पुत्र यदि माता की भक्ति करता है तो उसे मातृ भक्त कहा जाता है परन्तु माता यदि पुत्र की कितनी भी सेवा करे उसे पुत्र भक्त तो नहीं कहा जा सकता न।

मैं सोच रहा था आज पुनः ये मुझे निरुत्तर करेगी मैंने प्रश्न किया ये बताओ जब जीवन का प्रारम्भ हुआ तो पुरुष और स्त्री समान थे फिर पुरुष बड़ा कैसे हो गया जबकि स्त्री तो शक्ति का स्वरूप होती है?

मुस्काते हुए उसने कहा आपको थोड़ी विज्ञान भी पढ़नी चाहिए थी...मैं झेंप गया उसने कहना प्रारम्भ किया....दुनिया मात्र दो वस्तु से निर्मित है ""ऊर्जा""और ""पदार्थ""पुरुष ऊर्जा का प्रतीक है और स्त्री पदार्थ की। पदार्थ को यदि विकशित होना हो तो वह ऊर्जा का आधान करता है ना की ऊर्जा पदार्थ का ठीक इसी प्रकार जब एक स्त्री एक पुरुष का आधान करती है तो शक्ति स्वरूप हो जाती है और आने वाले पीढ़ियों अर्थात अपने संतानों केलिए प्रथम पूज्या हो जाती है क्योकि वह पदार्थ और ऊर्जा दोनों की स्वामिनी होती है जबकि पुरुष मात्र ऊर्जा का ही अंश रह जाता है। 

मैंने पुनः कहा तब तो तुम मेरी भी पूज्य हो गई न क्योकि तुम तो ऊर्जा और पदार्थ दोनों की स्वामिनी हो?

अब उसने झेंपते हुए कहा आप भी पढ़े लिखे मूर्खो जैसे बात करते हैं आपकी ऊर्जा का अंश मैंने ग्रहण किया और शक्तिशाली हो गई तो क्या उस शक्ति का प्रयोग आप पर ही करूँ ये तो कृतघ्नता हो जाएगी।

मैंने कहा मैं तो तुमपर शक्ति का प्रयोग करता हूँ फिर तुम क्यों नहीं?

उसका उत्तर सुन मेरे आँखों में आंसू आ गए............

उसने कहा.....जिसके संसर्ग मात्र से मुझमे जीवन उत्पन्न करने की क्षमता आ गई ईश्वर से भी ऊँचा जो पद आपने मुझे प्रदान किया जिसे ""माता"" कहते हैं उसके साथ मैं विद्रोह नहीं कर सकती, फिर मुझे चिढ़ाते हुए उसने कहा कि यदि शक्ति प्रयोग करना भी होगा तो मुझे क्या आवश्यकता मैं तो माता सीता की भांति ""लव कुश""तैयार कर दूंगी जो आपसे मेरा हिसाब किताब कर लेंगे।

नमन है सभी मातृ शक्तियों को जिन्होंने अपने प्रेम और मर्यादा में समस्त सृष्टि को बांध रखा है।



अब वही बात आज के इस लेख में 

एक औरत अन्दर से जानती है कि बच्चे और परिवार उसकी पहली जिम्मेदारी है और यह  उसको विरासत और परम्पराओं में मिला हुआ है । 

और फ़िर वह काम पूरे न होने पर ख़ुद में ही कहीं कमी महसूस करती है जबकि असल में शक्ति का सही रूप है वह ...वक्त अब बदल रहा है और उसकी इस शक्ति से अब कोई इनकार हो भी नही रहा है आज हर जगह वह आगे हैं पर कहीं कहीं  यह कुछ पीछे रह जाता है  जैसे लड़की को आज भी घर के काम की शिक्षा भी साथ साथ दी जाती है पर घर के बेटे को वही "इगो" से जीना ही सिखाया जाता है उसके लिए आज़ादी की बात सिर्फ वही है जो वह चाहता है



मुक्ति की भाषा


"सुनो .."
तुम लिखती हो न कविता?"
"हाँ " लिखती तो हूँ
चलो आज बहुत मदमाती हवा है
रिमझिम सी बरसती घटा है
लिखो एक गीत प्रेम का
प्यार और चाँदनी जिसका राग हो
मदमाते हुए मौसम में यही दिली सौगात हो
गीत वही उसके दिल का मैंने जब उसको सुनाया
खुश हुआ नज़रों में एक गरूर भर आया,

फ़िर कहा -लिखो अब एक तराना
जिसमें इन खिलते फूलों का हो फ़साना
खुशबु की तरह यह फिजा में फ़ैल जाए
इन में मेरे ही प्यार की बात आए
जिसे सुन के तन मन का
रोआं रोआं महक जाए
बस जाए प्रीत का गीत दिल में
और चहकने यह मन लग जाए
सुन के फूलों के गीत सुरीला
खिल गया उसका दिल भी जैसे रंगीला

वाह !!....
अब सुनाओ मुझे जो तुम्हारे दिल को भाये
कुछ अब तुम्हारे दिल की बात भी हो जाए
सुन के मेरा दिल न जाने क्यों मुस्कराया
झुकी नज़रों को उसकी नज़रों से मिलाया
फ़िर दिल में बरसों से जमा गीत गुनगुनाया
चाहिए मुझे एक टुकडा आसमान
जहाँ हो सिर्फ़ मेरे दिल की उड़ान
गूंजे फिजा में मेरे भावों के बोल सुरीले
और खिले रंग मेरे ही दिल के चटकीले
कह सकूं मैं मुक्त हो कर अपनी भाषा
इतनी सी है इस दिल की अभिलाषा..


सुन के उसका चेहरा तमतमाया
न जाने क्यों यह सुन के घबराया
चीख के बोला क्या है यह तमाशा
कहीं दफन करो यह मुक्ति की भाषा
वही लिखो जो मैं सुनना चाहूँ
तेरे गीतों में बस मैं ही मैं नज़र आऊं...

तब से लिखा मेरा हर गीत अधूरा है
इन आंखो में बसा हुआ
वह एक टुकडा आसमान का
दर्द में डूबा हुआ पनीला है.....

शेष अगले अंक में 

1 comment:

Onkar said...

सुंदर पंक्तियाँ