पंडित जवाहर लाल जी के शब्दों में " अपने देश की जानकारी और साहित्य वह घर
है, जहाँ मनुष्य रहता है .पर इस घर की खिड़कियाँ दुसरे देशों की जानकारी की
और खुलती है ..जो मनुष्य अपने घर की खिड़कियाँ बंद कर लेगा ,उसको कभी ताज़ी
हवा में साँस लेना नसीब नही होगा ..ज़िन्दगी की सेहतमंद रखने के लिए यह
जरुरी है की हम अपने घर की खिड़कियाँ खोल कर रखें "
अमृता जी के कुछ पत्र मुझे उनके लिखी किताब खिड़कियाँ में मिले जो उन्होंने अपने बच्चो नवराज और कंदला के नाम लिखे थे ,तब जब जब वह विदेश यात्रा पर गई .वहां की तहजीब ,वहां के लोग और वहां के बारे में जिस तरह से अमृता ने लिखा है वह सिर्फ़ नवराज और कंदला के लिए नहीं हैं .वह देश के हर बच्चे के नाम है इस दुआ के साथ की देश के बच्चों का अपना घर [अपने देश की जानकारी और साहित्य ] बड़ा सुंदर और सुखद हो , और इसकी खिड़कियाँ दुसरे देश की जानकरी की और हमेशा खुली रहें और उनकी ज़िन्दगी सेहतमंद हो ....उन्ही का एक ख़त ताशकंद के उज्बेकिस्तान से ३ मई ,१९६१ को लिखा हुआ यहाँ लिख रही हूँ
....
प्यारे नवराज और कंदला !
तुम जब बड़े होगे ,मेरे से भी अधिक दुनिया देखोगे .और मेरे से बहुत छोटी उम्र में देखोगे ,पर अभी जब तक तुम पढ़ाई की छोटी छोटी सीढियाँ चढ़ रहे हो ,मैं दूर देश में खड़ी तुम्हारी जानकारी के लिए लुच परिचय पत्रों में दे रहीं हूँ ...
आज मैं यहाँ ताशकंद में विगायं की उजबेक अकादमी में गई थी ..इस अकदमी की निदेशक एक औरत है उसका नाम सबाहत खानम है बड़ी अक्लमंद और गंभीर औरत है ..यह अकदमी १९४४ में बनी थी ,मध्य एशिया ,हिन्दुस्तान ,अफगानिस्तान ईरान और चीन के बारे में इस अकदमी के पास बहुत सारा इतिहास है ..कई पांडुलिपियाँ दसवीं शताब्दी की भी हैं ,आज मैंने यहाँ कई पांडुलिपियाँ देखी ,बाबर नामा ,अकबर नामा .जहाँगीर नामा हुमायूं नामा .तुमने अपने इतिहास में इनको सिर्फ़ बाद्शाओं के रूप में देखा है ,मैंने भी इसी रूप में देखा था .पर आज मैंने इनको शायरों के रूप में देखा है .बाबर के एक दो शेरों के भाव लिख रही हूँ ....
अगर मुझे अपना सिर ..
तेरे क़दमों में रखना नसीब न हो
तो मैं अपना सिर अपने हाथ में लिए
वहां तक चलता जाऊं
जहाँ तक तेरे कदम दिखायी दे
अगर भीतर में कोई चिंगारी है
तो हर मिनट ज़िन्दगी की खुशी के हवाले कर दे
एक मिनट भी गम के लिए न हो ...
सोलहवीं सदी के अमीर खुसरो देहलवी का" खमसा "देखा .."खमसा" उस दीवान को कहते हैं जिस में पाँच दास्तानें हो .अमीर खुसरो के इस दीवान में लैला -मजनू ,शीरी खुसरो आइना ऐ सिकंदरी ,मतला ऊल अनवर और खश्त बहिश्त पाँच दास्ताने हैं .".खश्त बहिश्त" का मतलब है आठ स्वर्ग ...अब तुम कहोगे कि हमने पंजाबी कलाम में सात बहिश्तों का जिक्र पढ़ा है ,यह आठवां बहिश्त कौन सा आ गया ? यहाँ के लोग कहते हैं कि एक बादशाह को बहुत घमंड हो गया था कि मैं खुदा से कम नहीं हूँ उसने सात बहिश्त बनायी है तो एक मैं भी बना सकता हूँ उसने अपनी सारी दौलत खर्च कर के एक बहिश्त बनवाई और जब घोडे पर चढ़ कर उसके अन्दर दाखिल होने लगा तो अचानक बिजली गिर गई ,वह भी मर गया और बहिश्त भी उजाड़ गई .सो बहिश्त वही सात की सात रह गयीं .वैसे आठवीं बहिश्त मनुष्य की अच्छाइयों को कहा जा सकता है ..
तुम सोचोगे कि शीरी फरहाद का नाम तो हमने सुना है यह शीरी खुसरो कौन थे ? क्या यह कोई और कहानी है ? कहानी वही है पर पहले यह शीरी खुसरो के नाम से लिखी जाती थी खुसरो उस बादशाह का नाम था जो शीरी से जबरदस्ती विवाह करना चाहता था ..अमीर खुसरो की रचना में शीरी का एक पत्र है खुसरो के नाम ..इस पत्र से एक शेर में तुम्हारे पढने के लिए अनुवाद कर रही हूँ ...
अगर दो दिल मिल जाएँ
तो कोई खंजर उन्हें चीर नही सकता
अगर दो बदन एक दूसरे को नहीं चाहते
तो सौ जंजीरे भी बाँध कर उन्हें मिला नही सकती है
इब्बन सलाम का नसीहत नामा देखा .यह पाण्डुलिपि एक हजार बरस पुरानी है ..पंद्रहवीं सदी के जामी का लिखा युसूफ जुलेखा देखा ..हर पृष्ठ बड़ा रंगीन और चित्रित है .एक अजीब बात मैंने इस अकादमी की निदेशक सबाहत खानुम से पूछा कि तुम्हारे उज्बेकिस्तान से बुखारे का शाहजादा इज्जत बेग हिदुस्तान गया ,उसने पंजाब की सोहनी से मोहब्बत की ..क्या इस प्यार की कहानी के बारे में आपके पास कोई किस्सा नही है ? इस कहानी को किसी उजबेक कवि ने नहीं लिखा ? इस पर सबाहत खानुम हंस पड़ी .और कहने लगी कि हमारे देश में तो वह सिर्फ़ शाहजादा था ,प्रेमी तो वह आपके देश में जा कर बना ..इस लिए आप पंजाबी कवियों का ही फ़र्ज़ बनता था की उस कहानी को संभाल कर रख ले ,हमारा नहीं .सुन कर मैं मुस्करा पड़ी ..हम बहुत देर तक बातें करते रहे ,मैंने सबाहत से पूछा कि इतनी शायरी संभालती हो क्या कभी शायर बनने का ख्याल नहीं आया ..?
सबाहत हंसने लगी ..और कहा कि जब मैं अठारह साल की थी मैंने कुछ नज्में लिखी थीं .सोचा था शायर बनूँगी ,पर मेरी नज्मों को किसी ने न समझा .मैं हार कर इतिहास कार बन गई सोचा सदियों की छाती से संभाल कर रखी हुई शायरी को खोजती रहूंगी ...आजकल सबाहत खानुम ने हुमायूं नामे का फारसी से उजबेक में अनुवाद किया है
हिन्दुस्तान के कई साहित्यकारों की किताबें उजबेक भाषा में मिलती हैं .टैगोर .प्रेमचंद .ख्वाजा अहमद अब्बास अली .सरदार जाफरी .कृष्ण चंदर .इस्मत चुग़ताई और कुछ भी भारतीय लेखकों की रचनाएं अनुवाद हो चुकी हैं ..दिन प्रतिदिन यह साहित्यिक मेल बढ़ रहा है
प्यार से तुम्हारी अम्मी
ताशकंद [उज्बेकिस्तान ]
३ मई १९६१
अमृता जी के कुछ पत्र मुझे उनके लिखी किताब खिड़कियाँ में मिले जो उन्होंने अपने बच्चो नवराज और कंदला के नाम लिखे थे ,तब जब जब वह विदेश यात्रा पर गई .वहां की तहजीब ,वहां के लोग और वहां के बारे में जिस तरह से अमृता ने लिखा है वह सिर्फ़ नवराज और कंदला के लिए नहीं हैं .वह देश के हर बच्चे के नाम है इस दुआ के साथ की देश के बच्चों का अपना घर [अपने देश की जानकारी और साहित्य ] बड़ा सुंदर और सुखद हो , और इसकी खिड़कियाँ दुसरे देश की जानकरी की और हमेशा खुली रहें और उनकी ज़िन्दगी सेहतमंद हो ....उन्ही का एक ख़त ताशकंद के उज्बेकिस्तान से ३ मई ,१९६१ को लिखा हुआ यहाँ लिख रही हूँ
....
प्यारे नवराज और कंदला !
तुम जब बड़े होगे ,मेरे से भी अधिक दुनिया देखोगे .और मेरे से बहुत छोटी उम्र में देखोगे ,पर अभी जब तक तुम पढ़ाई की छोटी छोटी सीढियाँ चढ़ रहे हो ,मैं दूर देश में खड़ी तुम्हारी जानकारी के लिए लुच परिचय पत्रों में दे रहीं हूँ ...
आज मैं यहाँ ताशकंद में विगायं की उजबेक अकादमी में गई थी ..इस अकदमी की निदेशक एक औरत है उसका नाम सबाहत खानम है बड़ी अक्लमंद और गंभीर औरत है ..यह अकदमी १९४४ में बनी थी ,मध्य एशिया ,हिन्दुस्तान ,अफगानिस्तान ईरान और चीन के बारे में इस अकदमी के पास बहुत सारा इतिहास है ..कई पांडुलिपियाँ दसवीं शताब्दी की भी हैं ,आज मैंने यहाँ कई पांडुलिपियाँ देखी ,बाबर नामा ,अकबर नामा .जहाँगीर नामा हुमायूं नामा .तुमने अपने इतिहास में इनको सिर्फ़ बाद्शाओं के रूप में देखा है ,मैंने भी इसी रूप में देखा था .पर आज मैंने इनको शायरों के रूप में देखा है .बाबर के एक दो शेरों के भाव लिख रही हूँ ....
अगर मुझे अपना सिर ..
तेरे क़दमों में रखना नसीब न हो
तो मैं अपना सिर अपने हाथ में लिए
वहां तक चलता जाऊं
जहाँ तक तेरे कदम दिखायी दे
अगर भीतर में कोई चिंगारी है
तो हर मिनट ज़िन्दगी की खुशी के हवाले कर दे
एक मिनट भी गम के लिए न हो ...
सोलहवीं सदी के अमीर खुसरो देहलवी का" खमसा "देखा .."खमसा" उस दीवान को कहते हैं जिस में पाँच दास्तानें हो .अमीर खुसरो के इस दीवान में लैला -मजनू ,शीरी खुसरो आइना ऐ सिकंदरी ,मतला ऊल अनवर और खश्त बहिश्त पाँच दास्ताने हैं .".खश्त बहिश्त" का मतलब है आठ स्वर्ग ...अब तुम कहोगे कि हमने पंजाबी कलाम में सात बहिश्तों का जिक्र पढ़ा है ,यह आठवां बहिश्त कौन सा आ गया ? यहाँ के लोग कहते हैं कि एक बादशाह को बहुत घमंड हो गया था कि मैं खुदा से कम नहीं हूँ उसने सात बहिश्त बनायी है तो एक मैं भी बना सकता हूँ उसने अपनी सारी दौलत खर्च कर के एक बहिश्त बनवाई और जब घोडे पर चढ़ कर उसके अन्दर दाखिल होने लगा तो अचानक बिजली गिर गई ,वह भी मर गया और बहिश्त भी उजाड़ गई .सो बहिश्त वही सात की सात रह गयीं .वैसे आठवीं बहिश्त मनुष्य की अच्छाइयों को कहा जा सकता है ..
तुम सोचोगे कि शीरी फरहाद का नाम तो हमने सुना है यह शीरी खुसरो कौन थे ? क्या यह कोई और कहानी है ? कहानी वही है पर पहले यह शीरी खुसरो के नाम से लिखी जाती थी खुसरो उस बादशाह का नाम था जो शीरी से जबरदस्ती विवाह करना चाहता था ..अमीर खुसरो की रचना में शीरी का एक पत्र है खुसरो के नाम ..इस पत्र से एक शेर में तुम्हारे पढने के लिए अनुवाद कर रही हूँ ...
अगर दो दिल मिल जाएँ
तो कोई खंजर उन्हें चीर नही सकता
अगर दो बदन एक दूसरे को नहीं चाहते
तो सौ जंजीरे भी बाँध कर उन्हें मिला नही सकती है
इब्बन सलाम का नसीहत नामा देखा .यह पाण्डुलिपि एक हजार बरस पुरानी है ..पंद्रहवीं सदी के जामी का लिखा युसूफ जुलेखा देखा ..हर पृष्ठ बड़ा रंगीन और चित्रित है .एक अजीब बात मैंने इस अकादमी की निदेशक सबाहत खानुम से पूछा कि तुम्हारे उज्बेकिस्तान से बुखारे का शाहजादा इज्जत बेग हिदुस्तान गया ,उसने पंजाब की सोहनी से मोहब्बत की ..क्या इस प्यार की कहानी के बारे में आपके पास कोई किस्सा नही है ? इस कहानी को किसी उजबेक कवि ने नहीं लिखा ? इस पर सबाहत खानुम हंस पड़ी .और कहने लगी कि हमारे देश में तो वह सिर्फ़ शाहजादा था ,प्रेमी तो वह आपके देश में जा कर बना ..इस लिए आप पंजाबी कवियों का ही फ़र्ज़ बनता था की उस कहानी को संभाल कर रख ले ,हमारा नहीं .सुन कर मैं मुस्करा पड़ी ..हम बहुत देर तक बातें करते रहे ,मैंने सबाहत से पूछा कि इतनी शायरी संभालती हो क्या कभी शायर बनने का ख्याल नहीं आया ..?
सबाहत हंसने लगी ..और कहा कि जब मैं अठारह साल की थी मैंने कुछ नज्में लिखी थीं .सोचा था शायर बनूँगी ,पर मेरी नज्मों को किसी ने न समझा .मैं हार कर इतिहास कार बन गई सोचा सदियों की छाती से संभाल कर रखी हुई शायरी को खोजती रहूंगी ...आजकल सबाहत खानुम ने हुमायूं नामे का फारसी से उजबेक में अनुवाद किया है
हिन्दुस्तान के कई साहित्यकारों की किताबें उजबेक भाषा में मिलती हैं .टैगोर .प्रेमचंद .ख्वाजा अहमद अब्बास अली .सरदार जाफरी .कृष्ण चंदर .इस्मत चुग़ताई और कुछ भी भारतीय लेखकों की रचनाएं अनुवाद हो चुकी हैं ..दिन प्रतिदिन यह साहित्यिक मेल बढ़ रहा है
प्यार से तुम्हारी अम्मी
ताशकंद [उज्बेकिस्तान ]
३ मई १९६१
5 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (15-11-2014) को "मासूम किलकारी" {चर्चा - 1798} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
बालदिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ज़िन्दगी की सेहतमंद रखने के लिए यह जरुरी है की हम अपने घर की खिड़कियाँ खोल कर रखें "
bilkul sahi ..sahitay sanskriti ko samhaal rakhta hai ... kayi ochak or naveen jaankari mili :)
सुंदर स्मृतिशेष , खिड़कियां जिंदगी को रौशन कर देती हैं|
बहुत समय बाद निःशब्द करती पोस्ट ...
अति उत्तम पोस्ट
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