Friday, July 12, 2013

बेबाक आत्मकथा

इंसानों की भीड़ के झुण्ड में
कुछ अलग सी  पहचान लिए
होंठ कुछ अधिक लालिमा लिए
चेहरे पर पुता हुआ एक्स्ट्रा मेकअप
नजरों के इशारे .......................
काजल से अधिक चमक कर बातें कर रहे थे
अजब अंदाज़ से हिलते हाथ पांव और उसके खड़े होने का अंदाज़
जैसे किसी कला की नुमाइश करता लग रहा था (मज़बूरी से भरा था )
खिलखिला के हँसना बेमतलब था ( पर लग नहीं रहा था )
कोने के दबा कर कभी होंठ कभी नखरा दिखा कर (किसी रंगमंच सी कठपुतली सा था )
बहुत कोशिश थी उन उदासी .उन चिंताओं को भुलाने की
जो घर से चलते  वक़्त बीमार बच्चे के पीलेपन में दबा आई थी
सिमटे हुए बालों में गजरा लगा कर
समेट  ली थी उसने शायद अपनी सभी चिंताएं ( क्यों कि यह अभी कारोबार का वक़्त था )
 वो बाजार में थी अपने जिस्म  का सौदा करने के लिए
पर ....क्या वो इतनी ही अलग थी ?
उसके हंसने मुस्कराने की जिद
ठीक उसी एक ब्याहता या आम औरत सी ही तो थी ....
जो किसी भी हालत में जानती थी
यही अदा यही जलवे उस "आदम भूख "पर भारी होंगे
जो उसके बच्चो की आँखों  में सुबह दिखी थी .............रंजू भाटिया


अभी कुछ दिन पहले  नलिनी जमीला की किताब "एक सेक्स वर्कर की आत्मकथा" पढ़ कर यही भाव दिल से निकले।   हाल ही में हिन्दी में प्रकाशित  'एक ही पुस्तक है नलिनी जमीला की और यह है उनकी अपनी कहानी, उन्हीं की जुबानी। पुस्तक के रूप में मलयालम में यह पहली बार प्रकाशित हुई, और सौ दिन के अन्दर ही इसके छह संस्करण प्रकाशित हो गए। अब तक अंग्रेजी और अन्य कई भाषाओं  में यह प्रकाशित हो चुकी है। शायद ही कभी किसी सैक्स वर्कर ने अपने जीवन की कहानी इतने बेझिझक और बेबाक तरीके से कही हो। एक बेटी,पत्नी , माँ, व्यावसायिक महिला और सोशल  वर्कर और साथ में सैक्स वर्कर भी हैं और ये उनके सभी पहलु इस आत्मकथा में उभर कर आते हैं।
यह आत्मकथा कभी रूलाती है तो कभी हँसाती है और कभी अपने दर्दनाक सच से झकझोर कर रख देती है। मज़बूरी में किया गया यह कार्य केरल में बसी सेक्स वर्कर के दर्द को बखूबी ब्यान करता है । इस तरह का कार्य कोई अपनी  मर्ज़ी से नहीं करना चाहता हालात किस तरह से इस   को करने के लिए बेबस कर   जाते हैं यह उनकी इस आत्मकथा में ब्यान हुआ है। बाद में उन्होंने इस में एक संगठन ज्वालमुखी से जुड़ कर भी   के कार्य किया  वह भी  इस में ब्यान है । दर्दनाक है सब पढना पर कुछ भाषा मे अनुवादित होने के कारण कहीं कहीं बोझिल सी भी  लगती है पर फिर भी बहुत हिम्मत चाहिए अपनी इस आत्मकथा  को  लिखने के लिए जो नलिनी जमीला ने इसको लिख कर की है
बहुत मसाला या कोई बढ़ा चढ़ा कर इसको नहीं लिखा गया जो ज़िन्दगी ने रंग दिखाए इस राह पर चलते हुए वह ही उनकी कलम से लिखे गए हैं । बचपन में पढने की इच्छा लिए हुए ही कई काम करते हुए जैसे मिटटी ढोना आदि काम करने पढ़े फिर पैसे की जरुरत  आगे उसको इस राह पर  गयी साथ ही यह हमारे समाज  के उस पहलु भी दिखाती है जो एक तरह से हिप्पोक्रेट है । अपने आप को और अपनी बच्चो को जिंदा रखने के लिए वो हर काम करने की कोशिश में रहती है पर अंत में यह उसकी जीविका का साधन बन जाता है। एक सच्चाई से लिखी गयी यह एक बेबस बेबाक आत्मकथा है जो सच के कई पहलु से रूबरू करवाती है ।

11 comments:

ashish said...

सच्चाई को शब्द मिले है , और मजबूरी को बाज़ार. आपने सुन्दर ढंग से पुस्तक की आत्मा को पटल पर रखा है . आभार .

प्रवीण पाण्डेय said...

अपने मन की कह देने दें,
सच को पूरा सह लेने दें,
जो पाया, सब व्यक्त यथावत,
अँसुअन संग सब बह लेने दें।

Unknown said...

बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें ,कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

अनूप शुक्ल said...

अच्छी पोस्ट।
इस किताब को पढ़ने का मन है।

ANULATA RAJ NAIR said...

रंजु आपने पहले भी मुझसे सिफारिश की थी इस किताब को पढने की.....
मगर इस बेहतरीन समीक्षा को पढने के बाद सोचती हूँ पढ़ ही लूँ....

सस्नेह
अनु

rashmi ravija said...

बहुत चर्चा सुनी है ,इस पुस्तक की .
इनके मेकअप के तह के पीछे का दर्द कहाँ दिखता है किसी को .

rashmi ravija said...

बहुत चर्चा सुनी है ,इस पुस्तक की .
इनके मेकअप के तह के पीछे का दर्द कहाँ दिखता है किसी को .

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत शानदार रचना, शुभकामनाएं.

रामराम.

Anju (Anu) Chaudhary said...

कोशिश रहेगी कि हम भी इसे जल्दी ही मंगवा कर पढ़ ले

Arvind Mishra said...

ऐसी आत्म कथाएं दक्षिण भारत से ही क्यों आती हैं -एक समय था कमला दास का और अब नलिनी !

दिगम्बर नासवा said...

किताब की रूह को शब्द दिए हैं आपने ... मार्मिक पर आँखों में दिखने वाली सुबह की धूप के आगे कुछ नहीं ...