Tuesday, September 08, 2009

प्यार का प्रतिदान


धरा का रूप धरे
उजाला तुझ सूरज से पाती
तेरे बिना सजना मैं
श्याम वर्ण ही कहलाती

पाती जो तेरे प्यार की तपिश
तो हिमखण्ड ना बन पाती
धूमती धुरी पर जैसे धरती
युगों युगों तक साथ तेरा निभाती

मन की अटल गहराई सिंधु सी
हर पीड़ा को हर जाती
सृष्टि के नव सृजन सी
ख़ुद पर ही इठलाती

कहाँ तलाशुं तुमको मैं प्रीतम
हर खोज एकाकी सी रह जाती
घिरी इस दुनिया के मेले में
तेरा कहीँ ठौर तो पाती

बेबस हुई मन की तरंगों से
कुछ सवालों का जवाब बन जाती
हाथ बढ़ा के थाम जो लेता
तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती !!

50 comments:

रंजना said...

माधुर्य रस की वह सरिता बहाई आपने कि मन बस उसमे उभ चुभ हो रहा है....वाह !! अतिसुन्दर !!..आभार स्वीकारें..

Vinay said...

beautiful

Vipin Behari Goyal said...

पाती जो तेरे प्यार की तपिश
तो हिमखण्ड ना बन पाती


बहुत सुंदर कविता है दिल की गहराई से उपजी है

ओम आर्य said...

कहाँ तलाशुं तुमको मैं प्रीतम
हर खोज एकाकी सी रह जाती
घिरी इस दुनिया के मेले में
तेरा कहीँ ठौर तो पाती
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ .......जो दिल करीब लगी.

Arvind Mishra said...

चिर आकांक्षा !

महेन्द्र मिश्र said...

बढ़िया ख्याल अच्छी रचना . आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर रचना है।
बधाई!

राज भाटिय़ा said...

अदभुत, बहुत सुंदर.

सुशील छौक्कर said...

अति सुन्दर। एक अलग सा अहसास जगाती।
कहाँ तलाशुं तुमको मैं प्रीतम
हर खोज एकाकी सी रह जाती
घिरी इस दुनिया के मेले में
तेरा कहीँ ठौर तो पाती

वाह क्या बात है।

डिम्पल मल्होत्रा said...

बेबस हुई मन की तरंगों से
कुछ सवालों का जवाब बन जाती
हाथ बढ़ा के थाम जो लेता
तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती !....bahut khoobsurat kavita.....

हेमन्त कुमार said...

बेहतर तरीके से हृदय की अभिव्यक्ति दी है आपने । बधाई ।

M VERMA said...

हाथ बढ़ा के थाम जो लेता
तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती !!
बहुत सुन्दर. सुन्दर आकान्क्षा. भावपूर्ण रचना का माधुर्य दिल को छू गयी.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.

रामराम.

निर्मला कपिला said...

कहाँ तलाशुं तुमको मैं प्रीतम
हर खोज एकाकी सी रह जाती
घिरी इस दुनिया के मेले में
तेरा कहीँ ठौर तो पाती
बहुत सुन्दर अध्यात्म रस बरस रहा है जब प्यास है तो वो जरूर मिलेगा बहुत बहुत बधाई आप बहुत गहरे मे उतर कर लिखती हैं

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

कई बार आ नहीं पाई ...पर आज आपकी सुन्दर पंक्तियों ने मन मोह लिया है :)
अब आगे की प्रविष्टियाँ भी पढ़ती हूँ
स्नेह सहित,
- लावण्या

Anonymous said...

सुन्दर रचना !!

vikram7 said...

हाथ बढ़ा के थाम जो लेता
तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती
अति सुन्दर

रश्मि प्रभा... said...

bhawnaaon ka adbhut sanyojan hai...

vikram7 said...

बेबस हुई मन की तरंगों से
कुछ सवालों का जवाब बन जाती
हाथ बढ़ा के थाम जो लेता
तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती !!
सुन्दर अभिव्यक्ति

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर रचना .. दिल की गहराइयों से लिख गयी .. बहुत बहुत बधाई !!

दिगम्बर नासवा said...

हाथ बढ़ा के थाम जो लेता
तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती !!

प्रेम, sneh की anoki parakaashta पर है आपकी rachna .............. shaant gahre samundar सी bati huyee दिल में samaati rachna .......... lajawaab लिखा है

Himanshu Pandey said...

"मन की अटल गहराई सिंधु सी
हर पीड़ा को हर जाती
सृष्टि के नव सृजन सी
ख़ुद पर ही इठलाती"

फलक का विस्तार है इस रचना में, गहराई भी । आभार ।

SACCHAI said...

adbhut ..bahut khub ...aap ki is kavita ne kume jit liya ...is tarah ki gaherai bahut kum dekhne milti hai ..."

thanx

plz wellcome on my blog

----- eksacchai {AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

http://hindimasti4u.blogspot.com

Asha Joglekar said...

Hath badha kar tham jo leta apne pyar ka pratidan pa jatee Bahut sunder Ranju jee.

विवेक रस्तोगी said...

तेरे बिना सजना मैं
श्याम वर्ण ही कहलाती

वाह अतिउत्तम।

कुश said...

वाह.. आज तो आपने कुछ हटकर लिखा है

mehek said...

bahut khubsurat

vandana gupta said...

आज तो रचना ने निशब्द कर दिया……………………………हर शब्द दिल मे गहरे उतर गया………………एक असीम अनुभूति।

आशीष खण्डेलवाल (Ashish Khandelwal) said...

Behatreen.. Happy Blogging

Mishra Pankaj said...

पाती जो तेरे प्यार की तपिश
तो हिमखण्ड ना बन पाती!

सुन्दर रचना .
आभार आपका

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अदभुत भावाभिव्यक्ति।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Atmaram Sharma said...

बहुत सुंदर.

Abhishek Ojha said...

हर बार की तरह लाजवाब.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"मन की अटल गहराई सिंधु सी
हर पीड़ा को हर जाती
सृष्टि के नव सृजन सी
ख़ुद पर ही इठलाती"
प्रेम भरे भावों की सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

Alpana Verma said...

'मन की अटल गहराई सिंधु सी
हर पीड़ा को हर जाती'

बहुत ही सुन्दर कविता है.
भावों की गहनता लिये हुए.

-----
'हर खोज एकाकी सी रह जाती'
खास कर यह पन्क्ति बहुत ही खास लगी.अपने आप मे जैसे सम्पूर्न अभिव्यक्ति हो..

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bas ek hei word...
"waah"

कंचनलता चतुर्वेदी said...

बहुत सुन्दर रचना....बहुत बहुत बधाई....

डॉ .अनुराग said...

चिर आकांक्षा !yes true word....

Nitish Raj said...

तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती।
बहुत ही सुंदर बढ़िया।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत सुंदर अभिलाषा है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

कहाँ तलाशुं तुमको मैं प्रीतम
हर खोज एकाकी सी रह जाती
घिरी इस दुनिया के मेले में
तेरा कहीँ ठौर तो पाती........

bahut hi sunder lines.......... dil mein utar gayin.......

निर्मला कपिला said...

्रंजना जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई

मुकेश कुमार तिवारी said...

रंजना जी,

बहुत ही संजीदा कविता जो आगे बढते हुये दिल में उतरने लगती है।

मन की अटल गहराई सिंधु सी
हर पीड़ा को हर जाती
सृष्टि के नव सृजन सी
ख़ुद पर ही इठलाती

वाह क्या बात कही है!!!

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

Anita said...

bahut hi achha likha hai aap ne Ranju di!! I am like wow!!

Such pritty hindi words ... i am learning a lot.

Wish you all the best! :)

hem pandey said...

'पाती जो तेरे प्यार की तपिश
तो हिमखण्ड ना बन पाती
धूमती धुरी पर जैसे धरती
युगों युगों तक साथ तेरा निभाती'
- सुन्दर

.

गौतम राजऋषि said...

कोमल शब्दों और सुंदर छंद में एक मन को छूती रचना मैम...


अब पुरानी डायरी के पन्नों को साया-२ की शक्ल दे ही दीजिये!

स्वप्न मञ्जूषा said...

पाती जो तेरे प्यार की तपिश
तो हिमखण्ड ना बन पाती
bahut sundar panktiyan..

Mumukshh Ki Rachanain said...

बेबस हुई मन की तरंगों से
कुछ सवालों का जवाब बन जाती

बहुत ही सुन्दर. गहन भावों से भरा आपका यह विरह-गीत दिल को छू गया.

बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

सुन्दर पंक्तियों..... से बनी ये रचना......
मन सब का मोहे........ये रचना.....

Anonymous said...

सारी पीड़ा समेट कर कविता का रूप दे दिया? क्यों हर कहीं तुम्हारी सिसक सुनाई देती है.रूप निखर उठता है जब सूरज धरती पर अपने प्रेम की किरनों को बिखेर देता है.दुगनी वेग से बहने लगती है नदी जब एक और जल धारा उसमे आ कर समा जाती है किन्तु यही धरती या नदी के भाग्य निर्माता तो नही!देखो सकल ब्रह्माण्ड में धरती सा कोई नही.सारे ब्रह्माण्ड की ख़ूबसूरती को सहेजने,सराहने वाली मात्र धरती और उससे जुड़े लोग हैं.क्या कहूँ?क्या लिखू? दर्द के गीत हमारे लिए नही हैं बस.