घर के
सामने से
गुजरती ट्रेन
कर देती है
नींद का क़त्ल
और क्षत-विक्षित
मन की उलझनों को,.....
जिन्हें सुलाया था
मुश्किलों से......
दर्द से कहराता
और फिर भटकता
रहता है
उनींदा से ख्वाब लिए
मेरा बंजारा मन
सुबह होने तक
फिर से एक नयी जंग के लिए...
मेरे घर के सामने से हर वक़्त ट्रेन जाती रहती है ..दिन में तो अधिक नोटिस नहीं लिया जाता आदत है ..पर रात को गुजरती ट्रेन अक्सर कई कवितायें लिखवा देती है :)
14 comments:
बहुत बढिया!!
वाह ... बेहतरीन
मेरे घर के सामने से भी ट्रेन गुज़रती है रंजना जी, स्टेशन भी इतने पास, की रात के सन्नाटे में सभी गाड़ियों के आगमन-प्रस्थान की सूचना घर बैठे ही मिल जाती है :) लेकिन इस स्थिति पर कोई कविता नहीं रच पाई...कवि जो नहीं हूँ... :) सुन्दर कविता है .
बहुत खूब!
आप की कई कविताओं की प्रेरणा' ट्रेनों '' को बधाई!
बहुत खूब बढिया!!
एक पीड़ा जिसने कई कविताएँ रच दी !!
रेलवे में बहुतों को बिना ट्रेन की आवाज सुने नींद ही नहीं आती है..
:) कविता अच्छी लगी
न घर और न ही रेलवे ट्रैक विस्थापित हो सकता है -एक छुपा हुआ वरदान हम सभी के लिए कि ऐसी रचनाएं मिलती रहेगीं मगर आपकी नींद का क्या किया जाय ..??
कोई गाता मैं सो जाता वाली व्यवस्था करवाईये न ! या लोरी ??
मन के भावों को प्रकट करने का बेहतरीन प्रेरणी श्रोत तलाश लिया आपने....अति सुंदर।
:):) नींद में खलल डाल कर कुछ सृजन ही करवा देती है रेल :):)
अच्छी प्रस्तुति
humein to train mein bhee neend nahee aatee!!!
कई बार ओस कुछ होता है जो उघाड़ देता है धागों को और शब्द बहने लगते हैं ... गुज़रती ट्रेन भी यही करती है अक्सर ...
Very nice post.....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.
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