ज़िन्दगी
जैसे एक "नज्म की किताब "
और फिर ...
न जाने क्यों तुम
न जाने क्यों तुम
उसको अधूरा छोड़ के
चल दिए कहाँ ?
पर ...
उस नज्म के लफ्ज़
उस नज्म के लफ्ज़
अभी भी पढ़े जाने की राह में
उसी मुड़े हुए पन्ने पर
अटके हुए भटक रहे हैं ............
अटके हुए भटक रहे हैं ............
दर्द दे कर बिछुड़ते रहे हैं कुछ लोग ज़िन्दगी के इस सफ़र में ...पर यही लोग फिर ज़िन्दगी को सही मायनों में जीने के फलसफे भी समझा गए ....#रंजू भाटिया