Saturday, August 31, 2013

ऐ हजारी लगाने वाली !

आज का आँगन भरा हुआ है सारे मौसमों से ,और मौसमों के सब रंगों से और सुगंधों से | सभी त्योहारों से | सारे अदब से और सारी पाकीजगी से | ३६५ सूरजों से ... मैं आधी सदी के सारे सूरज को आज को -३१ अगस्त को तुम्हारे अस्तित्व को टोस्ट दे रहा हूँ --सदी के आने वाले सूरजों का "
३१ अगस्त ६७ यह ख़त इमरोज़ ने अमृता को उनके जन्मदिन पर लिखा जब वह हंगरी में थी .. और इस के साथ ही हमारा सलाम है उस शायरा को .उस नेक रूह को और उस औरत को जो अपने वक्त से आगे चलने की हिम्मत रखती हैं ...सच कहा उन्होंने कि अमृता किसी एक धरती ,किसी एक देश .किसी एक जुबान या किसी एक कोम से नही जुड़ी है ,वह तो जुड़ी है हर उस धरती से जहाँ धरती दिल की तरह विशाल होती है और जज्बात से महकती है .... अमृता का जुडाव है हर उस देश से जहाँ अदब और कल्चर रात दिन बढ़ते हैं ,हर तरह की हदबंदी से मुक्त .... अमृता तुम पहचान हो हर उस जबान की जहाँ दिलों की सुनना भी आता है देखना भी .....और पहचानना भी ......अमृता नाम है आज में जीने का उस कौम का जहाँ सिर्फ़ आज में वर्तमान में जीया जाता है और आज के लोगों के साथ अपन आपके साथ जीने का जज्बा रखते हैं .....अमृता नाम है उस हर दिन और रात का जहाँ हर रात एक नई कृति के ख्याल को कोख में डाल कर सोती है और हर सवेरा एक नया गीत गुनगुनाते हुए दिन की सीढियां चढ़ता है .....

एक सूरज आसमान में चढ़ता है ,आम सूरज ,सारी धरती के लिए सांझे का सूरज ,जिसकी रौशनी से धरती पर सब कुछ दिखायी देता है जिसकी तपिश से सब कुछ जीता है जन्मता है फलता है .... लेकिन एक सूरज धरती पर भी उगता है ख़ास सूरज सिर्फ़ एक मन की धरती के लिए ..... सिर्फ़ के मन के लिए ,सारे का सारा ..... इस से एक बात रिश्ता बन जाती है, एक ख्याल - एक कृति और एक सपना -एक हकीकत ...... इस सूरज का रूप भी इंसान का होता है..... इंसान के कई रूपों की तरह इसके भी कई रूप हो सकते हैं ......आमतौर पर यह सूरज एक ही धरती के लिए होता है ,लेकिन कभी कभी आसमान के सूरज की तरह आम भी हो जाता है -सबके लिए -जब यह देवेता ,गुरु ,या पैगम्बर के रूप में आता है ..... इमरोज़ ने इस सूरज को पहली बार एक लेखिका के रूप में देखा था ,एक शायरा के रूप में ....और उसको अपना बना लिया एक औरत के रूप में .एक दोस्त के रूप में .एक आर्टिस्ट के रूप में और एक महबूबा के रूप में .....

अमृता की अमृता से मुलाकात .उनके व्यक्तित्व का एक ख़ास पहलू--उसके मन की फकीरी - बड़ा उभर कर आया है उनकी पुस्तक जंग जारी है में ----एक दर्द है कि .''मैं सिर्फ़ एक शायरा बन कर रह गई - एक शायर ,एक अदीब ........ हजारी प्रसाद दिवेद्धी के नावल में एक राजकुमारी एक ऋषिपुत्र को प्यार करती है ,और इस प्यार को छाती में वहां छिपा लेती है जहाँ किसी की दृष्टि नही जाती ..पर एक बार उसकी सहेलियों जैसी बहन उस से मिलने आती है ,और वह उस प्यार की गंध पा जाती है ..
उस समय राजकुमारी उस से कहती है ..अरु ! तुम कवि बन गई हो ,इस लिए सब कुछ गडबडा गया ......आदिकाल से तितली फूल के इर्द गिर्द घुमती हैं ,बेल पेड़ के गले लगती है ,रात को खिलाने वाले कमल चाँद की चांदनी के लिए व्याकुल होता है .... बिजली बादलों से खेलती है ....पर यह सब कुछ सहज मन में होता था ,कभी इसकी और कोई उंगली नहीं उठाता था और न ही इसको कोई समझने का दावा करता था , न ही कोई इसके भेद को समझने कादावा करता था ..........पर एक दिन कवि आ गया ,वह चीख चीख कर कहने लगा ,
मैं इस चुप की भाषा समझता हूँ ..सुनो सुनो दुनिया वालों ! मैं आंखों की भाषा भी समझता हूँ .....बाहों की बोली जानता हूँ ......और जो कुछ भी लुका छिपी है वह भी सब जानता हूँ ! और उसी दिन से कुदरत का सारा पसारा गडबडा गया ...यह एक बहुत बड़ा सच है ..कुछ बातें सचमुच ऐसी होती हैं ,जिन्हें खामोशी की बोली नसीब होनी चाहिए ..पर हम लोग ,हम शायर ,और अदीब उनको बोली से निकला कर बाहर शोर में ले जाते हैं ..

जानते हो उस राजकुमारी ने फ़िर अपनी सखी से क्या कहा था ? ....कहा अरु ! तुमने जो समझा है ,उसे चुपचाप अपन पास रख लो ..तुम कवि से बड़ी हो जाओ !""मेरा यही दर्द है कि मैं कवि से बड़ी नही हो सकी .जो भी मन की तहों में जीया सब कागजों के हवाले कर दिया ..लेखक के तौर पर सिर्फ़ इतना ही नहीं रचना के क्षणों का भी इतिहास लिख दिया ..रसीदी टिकट मेरी प्राप्ति है ,पर मैं केवल लेखक बनी बड़ी नही हो सकी ....

पर हम जानते हैं कि वह क्या थी ... साहित्यिक इर्ष्या जैसी चीज अमृता कि समझ में कभी नही आई | वह कहती थी कि ,''दुनिया में जहाँ भी कोई अच्छाई है ,जहाँ भी कोई खूबसूरती है ,वह मेरी है ..मैंने क्रीट टापू नही देखा है पर वहां का काजनजाकिस मेरा है ..कमलेशवर जब कितने अच्छे दिन जैसी कहानी लिखता है वह मुझे अपनी कहानी लगती है ..डॉ लक्ष्मी नारायण लाल जब यक्ष प्रश्न लिखता है ,निर्मल वर्मा जब डेढ़ इंच ऊपर लिखता है ..कृष्णा सोबती जब सूरज मुखी अंधेरे के .लिखती है तो तो ..वह भी सब मेरा है ...उस वक्त अमृता का कहा सुन कर ऐसा लगता है वह सचमुच एक धरती के समान है जिसकी बाहों में पर्वत भी है और समुन्द्र भी .....

मुझे वह समय याद है ---
जब धूप का एक टुकडा
सूरज कि उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में खो गया ...

imroz ke shbdo mein aaj unke janmdin par ....

ऐ हजारी लगाने वाली !

आ कर रजिस्टर क्यूँ नही संभाल लेती हो | एक मकान बहुत सुंदर जगह लिया है ,आ कर इसको घर बना दो | अपना और अपने सपनों का घर |ज़िन्दगी में पहली बार मैंने घर चाहा है | तुम नामुमकिन जैसी जगह पर थी, जब मैं तुमसे मिला था | मुझ पर भरोसा करो ,मेरे अपनत्व पर पूरा एतबार करो | जीने की हद तक तुम्हारा ,तुम्हारे जीवन का जामिन ,तुम्हारा जीती !
मैं अपने आतीत ,वर्तमान और भविष्य का पल्ला तुम्हारे आगे फैलाता हूँ -- इस में अपने आतीत .वर्तमान और भविष्य डाल दो!

मेरे जुनूं मेरी वहशत का इम्तहान ले लो !
अपने हुस्न की अजमत का इम्तहान तो दो !

Monday, August 26, 2013

किनारे

तुम कहते हो
"यह नहीं होगा "
मैं कहती हूँ 
"वो नहीं होगा "
जिदों की दीवारों से टकराते हैं 
हम दोनों के "अहम् .."
कब तक खुद को 
यूँ ही झुलझाए जलाएं 
चलो एक फैसला कर लें 
अपने अपने वजूद की तलाश में 
इस ज़िन्दगी के 
दो जुदा किनारे ढूंढ़  लें !!

आज का आस पास का माहौल बस कुछ यह है कहता दिखता  है ..और ज़िन्दगी मिल कर फिर नदी के दो किनारों सी बहती चली जाती है ..


Sunday, August 18, 2013

उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ ,मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले



शहतूत की डाल पर बैठी मीना
बुनती रेशम के धागे
लम्हा लम्हा खोल रही है
पत्ता पत्ता बीन रही है
एक एक साँस बजा कर सुनती है सोदायन
अपने तन पर लिपटती जाती है
अपने ही धागों की कैदी
रेशम की यह कैदी शायद एक दिन अपन ही धागों में घुट कर मर जायेगी !(गुलजार )
इसको सुन कर मीना जी का दर्द आंखो से छलक उठा उनकी गहरी हँसी ने उनकी हकीकत बयान कर दी  और कहा जानते हो न वह धागे क्या हैं ? उन्हें  प्यार कहते हैं मुझे तो प्यार से प्यार है ..प्यार के एहसास से प्यार है ..प्यार के नाम से प्यार है इतना प्यार कोई अपने तन पर लिपटा सके तो और क्या चाहिए...

मीनाकुमारी ने जीते जी अपनी डायरी के बिखरे पन्ने प्रसिद्ध लेखक गीतकार गुलजार जी को सौंप  दिए थे ।  सिर्फ़ इसी आशा से कि सारी फिल्मी दुनिया में वही एक ऐसा शख्स है ,जिसने मन में प्यार और लेखन के प्रति   आदर भाव थे ।मीना जी को यह पूरा  विश्वास था कि गुलजार  ही सिर्फ़ ऐसे  इन्सान है जो उनके लिखे से बेहद  प्यार करते हैं ...उनके लिखे को समझते हैं सो वही उनकी डायरी के सही हकदार हैं जो उनके जाने के बाद भी उनके लिखे को जिंदा रखेंगे और उनका विश्वास झूठा नही निकला |गुलजार जी ने मीना जी की भावनाओं की पूरी इज्जत की उन्होंने उनकी नज्म ,गजल ,कविता और शेर को एक किताब का रूप दिया |
मीना जी की आदत थी रोज़ हर वक्त जब भी खाली होती डायरी लिखने की ..वह छोटी छोटी सी पाकेट डायरी अपने पर्स में रखती थी ,गुलजार जी ने एक बार पूछा उनसे कि यह हर वक्त क्या लिखती रहती हो,तो उन्होंने जवाब दिया कि मैं कोई अपनी आत्मकथा तो लिख नही रही हूँ बसकह देती हूँ बाद में सोच के लिखा तो उस में बनावट  आ जायेगी जो जैसा महसूस किया है उसको उसी वक्त लिखना अधिक अच्छा लगता  है  मुझे ...और वही डायरियाँ नज़मे ,गजले वह विरासत में अपनी वसीयत में गुलजार जी  को दे गई जिस में से उनकी  गजले किताब के रूप में आ चुकी हैऔर अभी डायरी आना बाकी है |
गुलजार जी कहते हैं पता नही उसने मुझे ही क्यों चुना इस के लिए वह कहती थी कि  जो सेल्फ एक्सप्रेशन अभिव्यक्ति  हर लिखने  वाला राइटर शायर या कोई कलाकार   तलाश करता है वह तलाश उन्हें  भी थी शायद वह कहती थी कि जो में यह सब एक्टिंग करती हूँ वह ख्याल किसी और का है स्क्रिप्ट किसी और की  और डायरेक्शन  किसी और कहा  कि इस में मेरा अपना जन्म हुआ कुछ भी  नही मेरा जन्म वही है जो इन डायरी में लिखा  हुआ है ...मीना जी का विश्वास गुलजार पर सही था ...आज गुलजार जी के जन्मदिन पर यह लिखा हुआ याद आ गया ...जन्मदिन मुबारक गुलजार जी ...........

क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा
अगरचे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ.......(.गुलजार )

Friday, August 16, 2013

बस एक बार

ए !!मेरे प्यार के  हमराही ......
मुझे अपनी पलको में बिठा के वहाँ ले चल
जहाँ खिलते हैं
मोहब्बत के फूल
गीतो से
तू अपनी नज़रो में 
बसा कर  वहाँ ले चल

जो महक रहा है तेरा दामन
 जिन पलो की ख़ुश्बू से
उन पलो में 
एक बार फिर डुबो कर मुझे वहाँ ले चल.........
जहाँ देखे थे 
हमने दो  जहान मिलते हुए
उस साँझ के आँचल तले
 एक आस का दीप जला कर
बस एक बार मुझे वहाँ ले चल................ जय श्री कृष्णा

Monday, August 12, 2013

कुछ यूँ ही बेवजह.........

बदल कर रस्ते पल पल
कौन सी मंजिल की तलाश है
रिश्ते भी  मौसमो की फितरत हुए जाते हैं!

*****************
पढ़ लेना ख़ामोशी को
धीरे से छु लेना साँसे
कुछ ख्वाइशें किस कदर मासूम होती है !!
****************
बदल लिया रास्ता
 अनदेखा कर के

तौबा !!तुम्हे तो ठीक से रूठना भी न आया
********************

डायरी , पन्ने उसमे रखे कुछ निशाँ
पढ़ लेती हैं नजरे आज भी अनकही बातें

इन्ही यादो से तो कोई दिल के करीब रहता है !!
***********************

Monday, August 05, 2013

कोई कैसे आखिर कब तक बचा सकता है प्रेम से

रविवार की सुबह से एक किताब हाथ लग गयी और उस पर प्रेम विषय कई तरह से परिभाषित था | कई बाते सही लगी ..कई बकवास क्यों कि आज का युग ..बहुत स्वार्थी युग है ,जहाँ प्रेम एक पल में जन्म लेता है और दूसरे पल अंतिम साँसे गिन रहा होता है :)
एक जगह पढ़ा कि  प्यार बुनयादी तौर  लेना देना ही है --जिस हद तक तुम दे सकते हो और जिस हद तक मैं ले सकता हूँ। .सच ही तो तो है। प्रेम  को परिभाषित करना मिर्जा ग़ालिब के शब्दों में। ।इश्क़ - ऐ तबियत ने जीस्त का मजा पाया /दर्द की दवा पायी दर्द -ऐ -बे दवा पाया। भाव -- मैंने प्रेम के माध्यम से जीवन का परमानन्द पा लिया। एक दर्द का इलाज हो गया ,पर एक रोग लाइलाज लगा लिया।…. प्रेम की अपनी परिभाषा जब आप प्यार मे   होते हैं तो  कुछ और   सोच नहीं पाते सिर्फ इस खेल के कि वह मुझे प्यार करता है या वह मुझे प्यार नहीं करता :) प्रेम भाषा का संस्कृत काव्य में बहुत हद तक परिष्कृत काव्य के साथ साथ लोकिक प्रेम काव्य पाया जाता है ..रामायण से हमें एक संदर्भ मिलता है कि प्रेमी इस तथ्य से आन्दित है कि वह उसी हवा में सांस ले रहा है जिस में उसकी प्रिया सांस ले रही है ...ऐ पवन ! तू वहां तक बह कर जा.जहाँ मेरी प्रिय है उसको स्पर्श कर और मुझे स्पर्श कर ...मैं तेरे माध्यम से उसके कोमल स्पर्श का अनुभव करूँगा और चन्द्रमा के प्रकाश में उसका सौन्दर्य  देखूंगा ..अब आज के युग में यही सब बाते बहुत बचकानी लग सकती है ...खैर जी जो  कुछ पढ़ा गया इस पर यह अब शोध का विषय है या नहीं ..नहीं जानती पर अपनी कलम से तो लिख दिया इस पर :)


प्रेम
उस विस्तृत नील गगन सा
जो सिर्फ अपने आभास से ही
खुद के अस्तित्व को सच बना देता है.......


प्रेम
टूट कर बिखरने की
एक वह प्रक्रिया
जो सिर्फ चांदनी की रिमझिम में
मद्दम मद्धम सा
दिल के आँगन में
तारों की तरह टूटता रहता है!
प्रेम
है वह एक जंगली जानवर सा
जो चुपके से दबोच लेता है मन तन को
जलाता है उम्मीदों की रौशनी
न चाहते हुए भी
उस से बचा नहीं जा सकता


प्रेम
यह है उस कमर तोड़ बुखार सा
जो सरसराता हुआ दौड़ता है रगों में
और हर दवा हर वर्जना को तोड़ता हुआ
घर कर लेता है मन तन पर
आखिर
कोई कैसे कब तक बचा सकता है प्रेम से.................
आप क्या कहते हैं इस लिखे को पढ़ कर ...जानने का इन्तजार रहेगा ...# रंजू भाटिया ५ अगस्त २०१३