Friday, May 31, 2013

नार्वे सपनो का देश |

सचमुच ज़िंदगी कैसी होती है होगी दुनिया के दूसरे हिस्सों में? कि ज़िंदगी का एक पल, एक घंटा, एक दिन वहाँ के माहौल में किस कद्र  बदल जाता होगा?...यह सोचने वाली बात है न ...पर आप हर जगह तो नहीं जा सकते इस उत्सुकता को बनाए रखती है पढ़ी गयी किताबें .मुझे यात्रा पर लिखी किताबें  व उस पर लिखे संस्मरण बहुत ही अधिक पसंद है और कुछ डूब कर उन को इस तरह से पढ़ती हूँ कि यदि वहां जा नहीं सकती तो उस जगह  पर खुद को मौजूद कर सकूं | ..नार्वे ..कुछ समय पहले पढ़ी गयी एक यात्रा पर किताब ..जिस में नार्वे के बारे में इतना कुछ लिखा था कि मुझे कुछ ऐसा लगा कि जैसे मैं वहां पर खुद ही मौजूद हूँ ...इस तरह से घूमने का यह शौक बहुत से लोगों को रहता है ..बहुत से लोग घर छोड़ कर घूमने निकल पड़ते हैं कुछ घर पर रह कर ही इस शौक को पूरा करते हैं और कुछ मेरी तरह है जो यूँ किताबों से या डिस्कवरी चेनल से दिखाए गए स्थानों पर घूम लेते हैं ...घूमने फिरने की इच्छा सभी में होती है..बस इस इच्छा को कैसे जगाये रखना है यह व्यक्ति पर खुद पर निर्भर है |क्या पता कब वहां  जाने का सपना सच हो  जाए |

             नार्वे का अर्थ होता है "नार्थ वे "यानी "उत्तरी  रास्ता "...जहाँ सफ़ेद भालू ,कुत्तो द्वारा खेंची जाने वाली स्लेज गाड़ियां | मैंने तो इतना पढा है नार्वे के बारे में कि मानसिक रूप से वहां हो आई हूँ लगता है ..जाने कब सच में जाना हो पर ज़िन्दगी में एक बार वहां जरुर जाना चाहूंगी स्पेशल "ओस्लो ."शायद पिछले जन्म का कोई नाता हो वहां से ...यहाँ एक विषय में पढ़ी गयी जानकारी के अनुसार दस हजार वर्ष पूर्व आदमी के पांव नार्वे की धरती पर पड़े थे | यहाँ के निवासी उदार स्वभाव के हैं सबकी सहायता में विश्वास रखते हैं |कुदरत ने यहाँ अदभुत व्यवस्था कर रखी है नार्वे में जहाँ इतनी सर्दी पड़ती है वहां नार्वे के सागर तटों में "गल्फ स्ट्रीम की धारा "भी बहती है जिस से किनारे का सागर जल जमता नहीं है और हर वक़्त यहाँ यातायात चलता रहता है |
                   नार्वे पर पढ़ी गयी जानकारी के अनुसार सबसे पहले जो स्थान मुझे पता चला वह था" टॉम्सो"..आकर्टिक सर्किल से सेंकडों मील अन्दर की तरह ..और जिसको "दुनिया की छत "भी कहा जाता है यही सुना है इस के बारे में ...कि यही से लैपलैंड शुरू होता है ..हमेशा बर्फ पर रहने वाले रेनडियर को पालने वाले घुमंतू का देश .यह उत्तरी नार्वे की  राजधानी है और यहाँ का विश्व विद्यालय दुनिया का एकमात्र विश्वविधालय है जो इतने धुर उत्तर में हैं | नार्वे में मछली पकड़ने का भी सबसे बड़ा केंद्र यहीं हैं | इस के आस पास के क्षेत्रों में आज भी आदिवासी लैप रहते हैं जो आज भी अपनी पुरानी परम्पराएं अब तक उसी तरह से निभा रहे हैं जैसे उनके पूर्वज निभाया करते थे | आज भी उनके कपडे वैसे ही रंग बिरंगे हैं जैसे सदियों पहले होते थे हाँ अब उनके घर यहाँ की सरकार ने बनवा दिए हैं वह अब तम्बू या बर्फ के घरों  में नहीं रहते हैं | यहाँ के बच्चे अब स्कूल जाते हैं| इनकी अपनी लैप भाषा है |यह लोग बहुत मेहनती ,सहनशील और मिलनसार होते हैं |
              फिर जाना "लिली हामेर" के बारे में जो लेखिका "सिगरी उनसत" की तपोभूमि रही है ..वहां पर कैसे कहाँ वह रहती थी उस के जानने के साथ जाना कि यहाँ का मौसम माहौल  उस वक़्त कैसा था और अब कैसा है पढ़ते ही वहां का मन हो कर उड़ने लगता है ...".हलके हलके सुरमई बादल .ठन्डी हवा .सूरज की पीली किरणें ,पीला प्रकाश ,पर कही गर्मी झलकती नहीं रात के दस बजे ,ग्यारह बजे भी सूरज ऐसे चमकता है बिना किसी गर्मी के ...यहाँ अँधेरा धुर्व प्रदेश के निकट होने के कारण बहुत कम दिखाई देता है दिन का दायरा इतना बड़ा हो जाता है कि रात सिमट कर बहुत छोटी हो जाती है ..न रात जैसी रात ..न दिन जैसा दिन ..यही यहाँ घूमने वालो के दिल में एक जनून जगा देता है घूमने का ..सारी सारी रात सारे सारे दिन यहाँ घूमा  जा सकता है ..".सिगरी उनसत "जिसे १९२८ में नोबल पुरस्कार मिला | उस ने नार्वे के मध्ययुगीन इतिहास का इतना गहरा अध्ययन किया था कि वह आसानी से बात सकती थी कि १३०० के आस पास किस तरह घास की मेजें साफ़ की जाती थी |.बर्फीली धरती पर लोग टूटी गाड़ियों की मरमम्त कैसे करते थे .अपनी रचनाओं में उसने इतना सजीव वर्णन किया है कि पढने वाला पाठक इस वक़्त को आसानी से पढ़ कर उस वक़्त में जी सकता है | ओस्लो के जीवन से निराश हो कर सिगरी उनसत किसी शांतिपूर्ण स्थान की तलाश में लिली हामेर पहुंची थी और उस वक़्त लिली हामेर ने सिगरी को शान्ति शक्ति ही नहीं बल्कि खूब लिखने की प्रेरणा भी दी थी |उत्तरी नार्वे के पर्वत देश के रहने वाले लोग जब भी दूसरे विश्वयुद्ध और १९४० के नाजी हमले को याद करते हैं तो इस महिला को जरुर याद करते हैं |नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ,यह महिला नार्वे सरकार के सूचना विभाग में न्यूयार्क में कई वर्षों तक काम करती रही अपनी लिखी रचनाओं से इस ने नाजियों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा और "नार्वे में बिताये स्वर्णिम दिन " भविष्य की  और वापसी "जैसी किताबे लिखी | पांच वर्ष बाद वह वापस लिली हामेर स्वाधीन नार्वे लौटी |आज भी उनका घर वैसे ही रखा गया है उनके कपडे ,उनकी पुस्तकें और उनकी दैनिक उपयोग की चीजें आज भी वैसे ही सरंक्षित रखी गयी है |
              नार्वे की सबसे बड़ी मीठे पानी की झील" म्योसा "को देखने का दिल करता है ..जिसका पानी दर्पण की तरह साफ़ है और इसके अंत और छोर का कहीं पता नहीं चलता है ..नार्वे के वह घर देखने का दिल करता है जो पूरे के पूरे लकड़ी के बने होते हैं और यह घर सदियों तक साथ निभाते हैं ..यहाँ लकड़ी के तख्तों को जोड़ कर घर की दीवारे बनायी जाती है बीच बीच में सफ़ेद खिड़कियाँ ..और घरों के आगे झंडा फहराने के एक परम्परा दिखाई देती है यह लहराते झंडे दूर से ही एहसास करवाने लगते हैं कि यहाँ घर है और कोई रहता है ..यह लिली हामेर के बारे में पढ़ के घुमा गया जीवंत दृश्य है जो मेरी दिलो दिमाग में इसी तरह से छाया हुआ है|
              इस के बाद की मानसिक यात्रा "ओस्लो "..भू वैज्ञानिकों का कहना है कि लाखों वर्ष पहले ओस्लो ज्वालमुखी क्षेत्र था फिर बाद में वह धंस गया उस से ही बना फीयोर्ड यहाँ यह बहुत है |..यही के पास शहर है सीयन ...यह शहर बिखरा हुआ सा शहर दिखायी देता है आस पास बड़े बड़े चरागाह , दूर दूर तक फैली छिटकी हुई बस्तियां और हरे भरे वृक्षों से घिरे घर ..वाकई क्या सुन्दर दीखते होंगे | सीयन का अर्थ होता है वह स्थान जहाँ पानी बिखरा रहता है ..सागर का तट ..यानी फीयोर्ड बहुत से झरने ..यही है सीयन यही पर नाटककार हेनरिक  इब्सन का जन्म २० मार्च १८२८ को  हुआ था और नार्वे निवासी इस  पर गर्व करते हैं | वहाँ के सबसे बड़े नोट यानी एक हजार के क्रोनर के नोट पर किसी वहां के राजा या अन्य किसी विशेष स्मारक की फोटो नहीं है इब्सन की आकृति का रेखांकन है |इब्सन के जीवन के शुरूआती दिन सुनहरे दिन इसी शहर में बीते थे जब इब्सन की  ख्याति सारी दुनिया में फ़ैल गयी तो नार्वे निवासियों ने इब्सन के सम्मान में अनेक स्मारक बनाए वह आज भी वहां देखें जा सकते हैं उनका घर आज भी दुनिया के लिए एक धरोहर है जो आज भी उसी तरह रखा गया है जैसे उनके जीवन काल में था |
                  ओस्लो नार्वे की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है,.इसे सन १६२४ से १८७९ तक क्रिस्टैनिया के नाम से जाना जाता था। इस के बारे में कहा जाता है कि जब भी ओस्लो आना हो तो छतरी और गम बूट जरुर लायें किन्तु उनको अपने साथ ही रखे कहीं होटल या कहीं भूले नहीं यहाँ का मौसम अपने रंग ढंग दिखाता रहता है ..बरसात शुरू होती है पर हमारे देश की तरह नहीं कि बरसती चली जा रही है ..बीच में सूरज निकल आएगा और फिर सहसा ठण्ड का एहसास होने लगता है ..यहाँ के लोगो के बारे में पढा है कि यहाँ के लोग आज के वर्तमान में जीते हैं |यहाँ पर जनसंख्या कम है जिस से हर तरफ एक शान्ति सी रहती है .स्टेशन पर सडको पर न कोई शोर न कोई भीड़ भाड़,,हाँ यहाँ भाषा को ले कर थोड़ी परेशानी जरुर रहती है सिर्फ अंग्रेजी जानना यहाँ के लिए काफी नहीं है |.खाने में कुछ समस्या हो सकती है यदि आप शुद्ध शाकाहारी है तो ..यहाँ मुख्यता गोमांस ही खाया जाता है |ऐसा नहीं है कि यहाँ सब्जियां नहीं होती है .यहाँ के लोग सड़क के किनारे खेतों में कांच और पालिथीन के घरों में टमाटर ,भिन्डी ,पालक और कद्दू उगाते हैं |बहुत सर्दी होने के कारण यहाँ खेती की  ऐसी ही व्यवस्था है परन्तु यहाँ इस तरह सब्जियां उगाना बहुत मुश्किल होता होगा न ?स्ट्राबेरी और आलू की खेती भी यहाँ खूब की जाती है सिचाई के लिए यहाँ फव्वारे लगे हुए हैं पानी यहाँ व्यर्थ नहीं किया जाता है |
              नार्वे में सतरह सौ ग्लेशियर ,पचास हजार द्वीप हैं और पंद्रह सौ से अधिक झीलें ...सप्ताह के अंत में यहाँ लोग अपने परिवार के साथ कारों के पीछे लगे ट्रेलर में जिस में एक कमरा फ्रिज ,चूल्हा और रसोई का समान है ले कर चल पड़ते हैं किसी भी सैरगाह की तरफ या सागर तट की और ,जहाँ मन हुआ जब तक मन हुआ रुक लिए नहीं तो आगे चल पड़े ...सागर के किनारे ऐसी नावों का जमघट लगा रहता है प्लास्टिक की छोटी छोटी नावें भी यह लोग कार की छत पर ही बांध लेते हैं सही में पांच दिन के कठिन परिश्रम के बाद अंत के यह दो दिन मौज मस्ती में बिताना  और फिर से उत्साह पूर्वक अपने काम पर लौटना बहुत अच्छे से जानते हैं यह नार्वे के लोग |यहाँ न पसीना आता है , न मिटटी न धूल इत्यादि |जमीन का असली  रंग तो दिखता ही नहीं यह तो बर्फ या पानी और घास .ठन्डे प्रदेशों में क्या वाकई ऐसा होता है ?
         यहाँ ओस्लो के पास ही चांदी की खाने भी है .."कोंग्स्बर्ग सिल्वर माइनस "..कभी यह नार्वे की अर्थव्यवस्था की नीवं थी| नार्वे की समृद्धि में इनका बहुत योगदान रहा है यह तीन सौ सालों तक नार्वे की सबसे बड़ी खानें  रही है सन १६२३ में इन खानों का पता चला पर इनसे चांदी निकालने का काम १६४२ में शुरू हुआ और १९५६ में इसको बंद कर दिया गया ...पर आज भी घूमने वाले वहां पर एक छोटी सी रेलगाड़ी से इन खानों को भीतर से देखने जाते हैं |यहाँ अन्दर तापमान बहुत नीचे रहता है और बहुत देर तक अन्दर रुका नहीं जा सकता है ..पता नहीं कैसे वहां जब काम होता होगा तो रुका जाता होगा .तब तो सुविधाएं भी अधिक नहीं रही होंगी और तकनीकी ज्ञान भी कम होगा पर फिर भी वह लोग नीचे उतर कर चांदी मिली मिटटी लाते और चांदी अलग करते होंगे ....और अब इन्हें देखना कितना मनमोहक लगता होगा |
              नार्वे में सड़कों का रखरखाव बहुत अच्छे से होता है स्वस्थ .सफाई इत्यादि पर बहुत ध्यान दिया जाता है .|यहाँ जंगलों में दूर दूर  तक छितरे हुए समर हाउस बने हुए हैं छोटे छोटे लकड़ी के घर ,जिस में सब साजो समान है पर सब ऐसे ही रहते हैं कोई चोरी चकारी का डर नहीं यहाँ यह शब्द का  मतलब लोग जानते ही नहीं | नार्वे के लोग पिछले कुछ वर्षों से कुदरत पर बहुत विश्वास करने लगे हैं ..यहाँ शोर शराबा पसंद नहीं किए जाता है |यहाँ न आप बेवजह गाडी का होर्न सुनेंगे न ही ड्राइवर को गाडी चलाते समय किसी से बाते करते ही देखेंगे |हमारे देश भारत में कीप लेफ्ट का नियम माना जाता है उसी तरह यहाँ कीप राईट का नियम माना जाता है | सुरंगे बनाने में यहाँ के लोगों का नार्वे निवासियों का कोई जवाब नहीं कठोर चट्टानी पर्वतों को छेद कर यह लोग लम्बी सुरंगे बना लेते हैं न तो यह टूटती हैं न ही धंसती है जैसी बनी वैसी ही सदा बनी रहती है |
              नार्वे के लोग इसाई धर्म के अनुयाई हैं |यहाँ का सबसे पुराना चर्च "हेदल स्टेव चर्च" है ...यह सन १२५० में बना था और यह पूरा लकड़ी से बना हुआ है सदियों से यह आज भी उसी तरह से खड़ा हुआ है दीवारों पर रंग बिरंगे चित्र हैं जो सन १६६८ में बनाए गए थे |यहाँ हर शनिवार को इस गिरिजा घर में विवाह होते हैं |रात का भोजन अक्सर नार्वेजियन शाम को ही ख़त्म कर देते हैं और फिर घूमने निकल पड़ते हैं अपने अपने दोस्तों के साथ कुदरत के नज़ारे देखने |यहाँ पर सूर्य उत्सव मनाया जाता है जब बहुत महीनो बाद सूरज के दर्शन होते हैं |
             
    ...यह तो थी मेरी मानसिक यात्रा .मैं सचमुच में इस देश को अपनी नजरों से देखना चाहती हूँ ,यहाँ की हवा को महसूस करना चाहती हूँ ..और यदि हो सके तो यही की हो कर रहना चाहती हूँ |बहुत ही अनोखा देश है यह .अदभुत सुन्दरता और साहित्य से भरपूर ....नार्वे मेरे सपनो का देश |

(यह जानकारी कई पुस्तकों में पढ़ी गयी और डिस्कवरी चेनल पर देखे गए प्रोग्राम पर आधारित है ...)
   

Wednesday, May 22, 2013

मैं की तलाश ............

मैं कौन हूँ "? यह सवाल अक्सर हर इंसान के दिल में उभर के आता है कुछ इसकी खोज में जुट जाते हैं ...और कुछ रास्ता भटक कर दिशाहीन हो जाते हैं .यह मैं की यात्रा इंसान की कोख से आरम्भ होती है और फिर निरन्तर साँसों के अंतिम पडाव तक जारी रहती है ....

खुद में खुद को पाने की लालसा
खुद में खुद को पाने की तलाश
उस सुख को पाने का भ्रम
या तो पहुंचा देता है
मन को ऊँचाइयों में
या कर देता है
दिग्भ्रमित
और तब
लगता है जैसे
मानव मन पर
कोई और हो गया है ..........यदि यह मैं कौन हूँ का सवाल मिल जाता है तो इंसान बुद्धा हो जाता है ..और नहीं मिलता तो तलाश जारी रहती है ..इसी तलाश में जारी है मेरी एक कोशिश भी ..

सुबह की उजली ओस
और गुनगुनाती भोर से
मैंने चुपके से ..
एक किरण चुरा ली है
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में ,
इसकी गुनगुनी गर्माहट से
पिघल रहा है धीरे धीरे
"मेरा "जमा हुआ अस्तित्व
और छंट रहा है ..
मेरे अन्दर का
जमा हुआ अँधेरा
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी "मैं "ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
"मैं "ख़ुद ही बनूंगी !!

मैं की तलाश ............रश्मि जी के बहुत ही खूबसूरत  ब्लॉग "मैं "पर यह प्रकाशित हुआ ..यहाँ आप मैं से जुडी और भी बहुत खूबसूरत पोस्ट पढ़ सकते हैं ...:)

Friday, May 17, 2013

वजूद की तलाश


तुम कहते हो
"यह नहीं होगा "
मैं कहती हूँ
"वो नहीं होगा "
जिदों की दीवारों से टकराते हैं
हम दोनों के "अहम् .."
कब तक खुद को
यूँ ही झुलझाए जलाएं
चलो एक फैसला कर लें
अपने अपने वजूद की तलाश में
इस ज़िन्दगी के
दो जुदा किनारे ढूंढ़ लें !!



आज का आस पास का माहौल बस कुछ यह है कहता दिखता है ..और ज़िन्दगी मिल कर फिर नदी के दो किनारों सी बहती चली जाती है ..रंजू भाटिया

Tuesday, May 14, 2013

श्रीनगर यात्रा भाग ५(वही बादल दूर दूर तक घूमती फिरती वादी भी उसी शक्ल में





श्रीनगर का आखिरी दिन .जैसे जाने के नाम से दिल खींच रहा हो कोई ..और डल लेक के बीचो बीच  नाम उसका ज़ूम ज़ूम ..वाकई "ज़ूम ज़ूम "बस दिल कहे यही रुक जा रे रुक जा यहीं पर कहीं जो बात इस जगह है वो कहीं भी नहीं |सही तो है श्रीनगर जाना और वहां से वापस आने में बहुत ही अलग एहसास है |जाते हुए बहुत से डर बहुत से सुझाव और बहुत से भ्रम है आपके साथ और वापस आते हुए आपके साथ वहां के लोगों का स्नेह ..भोलापन ..मासूमियत  वहां के हवा में  फैली   चिनार की महक है .और भी बहुत कुछ ..जो आपके साथ ता उम्र रहने वाला है ..
डल लेक  अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। ये बात  बचपन से सुनते आएं हैं कश्मीर के लिए । और कश्मीर का ताज है  है डल झील।  डल झील जिसने सदियों से यहां की परंपरा यहां की संस्कृति को सहेज कर रखा। डल झील जिस पर न जाने कितनी फिल्मों की शूटिंग हुई, जहाँ साठसत्तर के दशक  में बहुत से लोगों ने इस डल   झील की नजर से ही श्रीनगर के सौन्दर्य को निहार कर अपनी नजरों में बसाया है  ..जहाँ के कई गाने  आज भी जुबान पर हैं | वह डल झील आज भी उतनी ही खूबसूरत है | | समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद डल एक प्राकृतिक झील है और तकरीबन 50,000 साल पुरानी है। बर्फ के गलने या बारिश की एक-एक बूंद इसमें आती है और अपने साफ़ जल से इसको भरती रहती है ।  इस झील में  दो पिकनिक स्थान हैं।  चार चिनार के नाम से जाने वाले इस धरती के टुकड़े को  चार-चार चिनार के पेड़   होने से  जाना जाता है। झील के दुसरे भाग  में स्थित हरिपर्वत भी देखने  लायक है |वहीँ से  शंकराचार्य मंदिर भी दिखता है|डल झील के बीच में  भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में नेहरू पार्क  भी है।
कभी डल झील के साफ़ पानी के आईने में कुदरत  खुद को निहार लेती थी  पर आज लगातार बढ़ते  हाउस बोट और ध्यान न देने से वहां का पानी काला होता जा रहा है यह बहुत ही दुःख का विषय है | पर यह भी सच है  
 कि कश्मीर की सैर के लिए जाकर डल झील के हाउस बोट में न ठहरा जाये तो कश्मीर की सैर अधूरी रह जाती है। यहाँ के तैरते बाजार और वहां झील में ही सब्जी उगाने वाले लोगो के घर मन मोह लेते हैं | तरह तरह की पेड़ पौधो की झलक  झील की सुंदरता को और निखार देती है। कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी, झील की सुंदरता में चार चाँद लगा देती है। यहाँ आने वालों   के लिए विभिन्न प्रकार के मनोरंजन के साधन जैसे  शिकारे पर घूमना   पानी पर सर्फिंग करना और मछली पकड़ना बहुत अच्छे लगते हैं |झील  में तैरते हाउसबोट और शिकारे  शांति, सुकून और मनमोहक खूबसूरती से भरी एक ऐसी दुनिया में होने का अहसास कराते हैं, जिससे कभी दूर होने का मन न करे। यहां आकर आपको  एक ही गाना याद आएगा  ‘सोचो कि झीलों का शहर हो, लहरों पर अपना एक घर हो..’ पर वहीँ कुछ कडवे सच भी है इस देव भूमि के साथ जुड़े हुए ..
आज का  कश्मीर और वहां की सोच वहां जितने लोगों से बात हुई सभी अमन शान्ति चाहते हैं कोई भी लड़ाई आतंक  नहीं चाहता ...वहां का मुख्य जीवन पर्यटक से जुडा  है जब जब वहां कुछ आशांति  होती है तब तब वहां यह प्रभवित हो जाता है ..लोग उदास हो जाते हैं ..वो चाहते हैं कि लोग यहाँ आये घुमे और यहाँ की सुन्दरता से जुड़े इस तरह की फिर फिर वापस आना चाहे ..पर शायद न वहां पर आंतक फैलाते  आतंकवादी  को यह पसंद  है न ही सरकार को ...और यही वजह है की कुदरती सुन्दरता तो वहां बिखरी है पर साथ  ही साथ  यहाँ कोई तरक्की  नहीं हुई है वहां .सड़के कई जगह  से बहुत खराब है ..बाग़ हैं सुन्दर पर लोगों  के चेहरे उदास हैं कई जगह बहुत अजीब लगी ..जैसा कि पहले जिक्र किया था कि पहलगाम के रास्ते में एक जगह है जहाँ बेट ही बेट बनते हैं जहां दुकानों के बाहर सचिन धोनी तो थे पर अधिकतर पाकिस्तानी प्लेयर नजर आते हैं बच्चे भी पाकिस्तान की हरी ड्रेस में खेलते दिखे| आगे ही अनंत नाग है. यहाँ से कुछ दूर ही वह जगह है जहाँ पीछे बी एस ऍफ़ के जवानों पर गोलियां चली |
कश्मीरी पंडितों को जिस तरह से वहां से निकाल बाहर कर दिया गया वह आज भी वहां रहने वाले लोगों को ही चुभता  है ..जो लोग अपने ही घर से बेघर है, वहां नहीं रह पाते वो कितना निराश होंगे सोचने वाली बात है | कोई नहीं सोचता इस बारे में शायद सिर्फ वहां के लोकल लोगों के अलवा  | जो लोग वहां रह गए हैं शिकारे वाले ने बताया कि वह उन हिन्दू परिवारों का पूरा ध्यान रखते हैं | फिर सरकार क्यों नहीं सोचती है ?कश्मीरी पंडितो को अपने घर कश्मीर को छोड़े हुए कई  वर्ष बीत गए लेकिन घर वापसी की रास्ता अभी भी कहीं गुम है  । लगभग 7 लाख कश्मीरी परिवार भारत के विभिन्न हिस्सों व् रिफ्यूजी कैम्प में शरणार्थियो की तरह जीवन बिताने को मजबूर है।  आतंकी इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि जब तक कश्मीरी पंडित कश्मीर में है, तब तक वह अपने इरादो में कामयाब नहीं हो पायेगें। इसलिए सबसे पहले इन्हें निशाना बनाया गया।
 कश्मीरी पंडित थे तो घाटी मन्त्रों से गूंजती थी अजान के साथ साथ पर उन्ही के जब मुख्य सदस्यों को मारा गया तो उन्हें   अपने जान बचाने के लिए अपनी जन्म भूमि को छोड़कर शरणार्थियो की तरह जीवन बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा। कश्मीर के धरती पर जितना हक बाकि लोगो का है, उतना ही हक इन कश्मीरी पंडितों का भी है।

राज्य व केन्द्र सरकार यह दावा तो करती है कि कश्मीर अब कश्मीरी पंडितो के लिए खुला है और वह चाहे तो घर वापसी कर सकते है, पर इसकी सच्चाई कितनी  है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। अगर यह घर वापसी कर भी ले, तो जाये कहां, क्योंकि उनका अधिकतर घर अब टूट चुके हैं और उनकी सुरक्षा कौन लेगा ?

वहां पढ़े एक लेख के अनुसार  जिन नौ परिवारो ने घर वापसी की थी, उनका अनुभव अच्छा नही रहा। उनका कहना है कि कश्मीर के अधिकारी उन्हें वहाँ फिर से बसने में हतोत्साहित करते हैं।.वे अपने गाँवों में फिर से घर बनाना चाहते हैं, लेकिन सरकार  उनसे ज़मीन छीन रही है। इन सब के अनुभव यह बताते  है कि कश्मीर में अभी भी कश्मीरी पंडितो के लिए हालात इस लायक नहीं हुए है कि वह अपनी घर वापसी की सोच सके।

कश्मीर की सुन्दरता इन लोगों के बिना अधूरी है | यहाँ मंदिर अब बहुत कम दिखायी दिए | लगातार आती आजान की आवाज़ ने सच ब्यान कर दिया और कुछ हैरानी वाली बात यह लगी कि गुरूद्वारे भी बहुत अधिक दिखे | श्रीनगर घूमते हुए बहुत से सच ब्यान हुए वहां रहने वाले मुस्लिम गाइड ने बताया कि वह अब अब अपना छोटा नाम रखना पसंद करते हैं | सर्दी में कारगिल की तरफ से आने वाले आतंकवादियों को अपने घर में दो कमरे देने पड़ते हैं और वो जो भी मांगे वह मांग अनुचित भी हो तो पूरी करनी पड़ती है ..सत्रह वर्ष के उस गाइड की  आँखों में आतंक के प्रति नफरत और दर्द एक साथ दिखा | मैं वह उसकी आँखे भूल नहीं पा रही हूँ | कुदरत के हर सर्द गर्म को सहने वाले इंसान के जुल्म के आगे कितने बेबस हैं यह उसकी बातों  से ब्यान हुआ | फिर भी श्रीनगर की  यादे मधुर है | कोई कहे फिर से जाने को तीसरी बार भी मैं जाना चाहूंगी| और वहां के लोगो से खूब बतियाना चाहूंगी| वो मेरे देश से जुडा हुआ एक अटूट हिस्सा है जिसकी सुन्दरता के आगे शायद कभी आतंक  हार जाएगा यही उम्मीद के साथ फिर अगली किसी यात्रा से आपसे बाते करुँगी ..


लिखते हुए मीना कुमारी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है ..
फ़िर वही नहाई नहाई सी सुबह
वही बादल
दूर दूर तक घूमती फिरती वादी भी उसी शक्ल में 
घूमते फिरते थे
ठहरे हुए से
कितनी चिडियां देखी
कितने कितने सारे फूल, पत्ते चुने पत्थर भी...

Wednesday, May 08, 2013

ये चाँद सा रोशन चेहरा, जुल्फों का रंग सुनहरा ..श्रीनगर यात्रा भाग ४

 ये  चाँद  सा  रोशन  चेहरा, जुल्फों  का  रंग  सुनहरा
ये  झील  सी  नीली  आँखें, कोई  राज़  है  इन  में  गहरा
तारीफ़  करूँ  क्या  उसकी,  जिस  ने  तुम्हे  बनाया
...श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरते ही यह गाना बरबस दिल गाने लगता है ...( यह बात और है जब हम सब ने यह गाना हाउस बोट जाने के लिए शिकारे पर बैठ कर गाना शुरू किया तो शिकारे वाले ने कहा "अबी नहीं गाना ..जब आप शिकारे की सैर पर जायेंगे न तब गाये ..बहुत अच्छा लगेगा ) सुन कर मेरे होंठो पर मुस्कान आ गयी ..लगा हर आने वाला टूरिस्ट यह गाना जरुर गाता होगा तभी सहजता से इस शिकारे को चलाने वाले ने कह दिया :) कश्मीर के लोग वाकई जितने सुन्दर है उतने ही दिल के भी सुन्दर मासूम

एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही सुन्दर गुलाबी चेहरे ..गहरे हलके रंग के लम्बे गर्म कुरता  जिस को हम सब भी फेरन के नाम से जानते हैं ...उस में नजर आये ..बुरका नहीं था अधिक जैसा लगा  था पर हर लड़की छोटी या बड़ी सर से पांव तक ढकी थी ...सर से पांव तक ढकी यह सुन्दरता जब पूर्ण रूप से गहनों में सिमट जाती होगी तो वाकई कयामत नजर आती होगी ...और जब आप वहां पहुँचते हैं तो यह उत्सुकता बहुत ही स्वभाविक रूप से जानने को दिल करता है कि वहां का पूर्ण पहनावा और रहन सहन के बारे में जाना जाए ..इसी सिलसले में आज आपसे कश्मीरी गहनों के बारे में बात करते हैं |जम्मू कश्मीर में बहुत समय तक रहने के कारण कश्मीरी लड़कियों के पहने हुए गहनों से बहुत प्रभावित रही हूँ मैं | हर प्रांत हर जगह की अपनी एक ख़ास पहचान होती है | और कोई न कोई बात उसके पहनावे ,गहनों और रीति रिवाजो से जुड़ी होती है |उनके बारे में जानना बहुत ही दिलचस्प लगता है | कानों से लटकती लाल डोरी ..गुलाबी चेहरों का नूर और उस पर डाला हुआ फेरन जैसे एक जादू सा करता है |  यही उत्सुकता रही और इस लेख में वहां पहने जाने वाले गहनों कपड़ो के बारे में जानकारी मिली वह आपसे इस यात्रा संस्मरण में शेयर करने का दिल हो आया ..:)


चित्र पूर्वा भाटिया
गहने बहुत प्राचीन समय से मनुष्य को आकर्षित करते रहे हैं | आदि काल से जब उसने खाना पहना ,घर बनाना सीखा तब ही साथ गहने भी बनाए पत्थर के और ख़ुद को उनसे सजाया | वक्त के साथ साथ गहनों का सफर भी चलता रहा और यह अपने नए प्रकार के घातु में ढल कर स्त्री पुरूष दोनों के व्यक्तित्व की शोभा बढाते रहे | इनको पहनना सिर्फ़ श्रृंगार  की दृष्टि से ही नही था बलिक शरीर के उन महत्वपूर्ण जगह पर दबाब देने से भी  था जो मनुष्य को स्वस्थ रखते हैं | यह बात विज्ञान ने भी सिद्ध की है |

.कश्मीर में हर लड़की की शादी से पहले लौगाक्ष गृह सूत्र " की रस्म अदा की जाती है जिस में लड़की के सामने सारे रहस्य खोले जाते हैं | लौगाक्ष एक ऋषि हुआ था जिस ने तन ,मन और आत्मा की चेतना के कुछ सूत्र लिखे थे ,वही सूत्र पढ़े जाते हैं और उनकी व्याख्या की जाती है |

गुणस..मटमैले रंग के एक जहरीले पहाडी सांप को गुणस कहते हैं और जो सर्प मुखी सोने का कंगन बनाया जाता है उसको भी गुणस कहते हैं | इस आभूषण को जब मंत्रित कर के लड़की की दोनों कलाई यों में पहनाया जाता है तो मान लिया जाता है की इस की शक्ति उसकी रगों में उतर जायेगी और वह अपनी रक्षा कर सकेगी |

कन वाजि- कर्ण फूल वाजि गोल कुंडल को कहते हैं और कान का कुंडल यह फूल के आकार में बना सोने का आभूषण है जिसको पहनाने से यह माना जाता है की दोनों कानो में पहनाने से इडा और पिंगला दोनों नाडीयों को जगा देंगे इडा नाडी खुलने से चन्द्र शक्ति और दायें तरफ़ पहनाने से पिंगला नाडी खुलेगी जिस से सूरज शक्ति जग जायेगी |
ड्याजी -होर काया विज्ञान की बुनियाद पर सोने का एक आभूषण पहनाया जाता है जो योनी मुद्रा आकार का होता है यह प्रतीक हैं दो शक्तियों ने अब एक होना है | ड्याजी शब्द मूल द्विज से आया है जिसका अर्थ है दो और होर का मतलब जुड़ना | इस में तीन पतियाँ बनायी जाती है जो तीन बुनयादी गुण है .इच्छा ,ज्ञान ,और क्रिया | यह सोने का तिल्ले के तीन फूलों के रूप में होती है |
निशात बाग़ में सजे हुए कश्मीरी ड्रेस ..चित्र पूर्वा भाटिया

तल राज तल रज इस आभूषण के दोनों सिरों पर जो लाल डोरियाँ बाँधी जाती है ,उनको तल रज कहते हैं |रज का अर्थ है --धागा और ताल से मतलब है सिर के तालू की वह जगह ,जहाँ पूरी काया में बसे हुए चक्रों का आखरी चक्र होता है सहस्त्रार | आर का अर्थ है धुरी और वह धुरी जिसके इर्द गिर्द कई चक्र बनते हैं | काया विज्ञान को जानने वाले रोगियों के अनुसार इस सहस्त्रार में कुंडलिनी जागृत होती है ,परम चेतना जागृत होती है | यह आभूषण दोनों कानों के मध्य में पहना जाता है .उस नाडी को छेद कर के जिसका संबंध सिर के तालू के साथ जुडा होता है ,और माना जाता है की इस आभूषण के पहनने से सहस्त्रार के साथ जुड़ी हुई नाडियाँ तरंगित हो जायेंगी |

कल वल्युन कलपोश---कल खोपडी को कहते हैं और पोश पहनने को | यह सिर पर ढकने वाली एक टोपी सी होती है -जो सुनहरी रंग के कपड़े को आठ टुकडों में काट कर बनायी जाती है | यह उन का सुनहरी रंग का कपड़ा सा होता है और जिस पर यदि तिल्ले की कढाई की जाए तो उसको जरबाफ कहते हैं | यह आठ टुकड़े आठ सिद्धियों के प्रतीक हैं इस एक लाल रंग की पट्टी राजस गुन की प्रतीक है और सफ़ेद रंग के जो फेर दिए जाते हैं वह सात्विक रूचि को दर्शाते हैं | इस आठ डोरियों को दोनों और से एक एक सुई के साथ जोड़ दिया जाता है जिस पर काले रंग का बटन लगा होता है | यह बटन तामसिक शक्तियों से रक्षा करेगा इस बात को बताता है |
चित्र पूर्वा भाटिया

वोजिज डूर-लाल डोरी --वोजिज लफ्ज़ उज्जवल लफ्ज़ से आया है और डूर का अर्थ है डोरी | इसको दोनों कानो में ड्याजी -- होर जो आभूषण है वह दोनी कानो में इसके साथ बाँधा जाता है | उनका लाल रंग शक्ति का प्रतीक है और बाएँ कान में स्त्री अपने लिए पहनती है और दायें कान में अपने पति के लिए पहनती है इसका अर्थ यह है की दोनों ने आपने अपने तीन गुन इच्छा ज्ञान और क्रिया अब एक कर लिए हैं |

तरंग कालपोश को सफ़ेद सूती कपड़े में लपेटा जाता है -जो सिर से ले कर पीठ की और से होता हुआ कमर तक लटका होता है |मूलाधार चक्र तक और इस तरह सब छः चक्र उस कपड़े की लपेट में आ जाते हैं इसका सफ़ेद रंग तन मन और आत्मा की पाकीजगी का चिन्ह है |

स्त्री शक्ति कश्मीर में शक्तिवाद सबसे अधिक सम्मानित हुआ है |इस लिए स्त्री की पहचान एक शक्ति के रूप में होती है और इस लिए उसके पहरन में दो रंग जरुर होते हैं सफ़ेद सत्व गुण का प्रतीक और लाल राजस गुन का प्रतीक | काले रंग का उस के पहरन में कोई स्थान नही क्यूंकि वह तमस गुण का प्रतीक होता है |

फेरन --यह सर्दियों में पश्मीने का होता है और गर्मियों में सूती कपड़े का | यह भी काले रंग का कभी नही होता है | इसकी कटाई योनी मुद्रा में की जाती है जिस पर लाल रंग की पट्टी जरुर लगाई जाती है | इसको दोनों तरफ़ से चाक नही किया जाता इसका अर्थ यह होता है की शक्ति बिखरेगी नही |इसके बायीं तरफ़ जेब होती है जो स्त्री की अपनी तरफ़ है | उस तरफ़ की जेब लक्ष्मी का प्रतीक है और इस में भी लाल पट्टी जरुर लगाई जाती है | इसका अर्थ यह है की लक्ष्मी स्त्री के पास रहेगी और वह इसकी रक्षा अपने तमस गुण से करेगी |

पौंछ---यह फेरन के अन्दर पहने जाने वाला कपड़ा होता है और यह अक्सर सफ़ेद रंग का ही होता है -यानी सात्विक शक्ति स्त्री के शरीर के साथ रहेगी जिस के ऊपर लाल रंग का फेरन होगा रजस शक्ति का प्रतीक |

इसकी बाहों की लम्बाई कभी भी अधिक लम्बी कलाई तक नही होती है और इस के आख़िर में में भी लाल पट्टी लगा दी जाती है |

लुंगी --यह कई रंगों का एक पटका सा होता है जिसको फेरन के साथ कमर पर बाँध लिया जाता है और इसकी गाँठ को एक ख़ास तरकीब से बाँधा जाता है जो पटके की पहले लगी दो गांठो को लपेट लेती है जो की एक स्त्री शक्ति का प्रतीक है और एक पुरूष शक्ति का प्रतीक है और एक गाँठ में बाँधने का मतलब है की अब वह दोनों एक हैं |

पुलहोर--कुशा ग्रास को सुनहरी धागों में बुन कर स्त्री के पैरों के लिए जो जूती बनायी जाती है उसको पुलहोर कहते हैं | माना जाता है कि कुशा ग्रास की शक्ति के सामने असुरी शक्ति शक्तिहीन हो जाती हैं और ज़िन्दगी की मुश्किल राहों पर स्त्री आसानी से आगे बढ़ सकेंगी और साबुत कदम रख सकेगी |

इस प्रकार यह गहने शक्ति के भी प्रतीक बन जाते हैं और हर लड़की खुशी खुशी इनको धारण करती है | यह कोई बंधन नही एक परम्परा है जिस का सम्मान और उस से प्यार हर लड़की को ख़ुद बा ख़ुद हो जाता है |
गूगल के सोजन्य से चित्र




मुझे कश्मीरी गहने पहनने को तो नहीं मिले ...सर पर स्कार्फ बाँध कर ही वही फीलिंग लाने की एक कोशिश :) बहुत कुछ कहते हैं यह कश्मीरी गहने ...वहां कि सुन्दरता गहनों में मुखर है और अपनी बात कहने कि ताकत रखती है ...वैसे जो वहां आते जाते सूरतें दिखी वह अपने चेहरे के तेज से बता रही थी ..कि बंधी हुई नहीं है यहाँ सब ..हर बाग़ में कश्मीरी परिवार दिखा कुछ खाते हुए ..कुछ बतियाते हुए ..जरुरी नहीं था कि कोई मर्द साथ हो ..बस वो थी और उनकी बातें ..उत्सुकता से देखती नजरे ..इधर उधर ..कश्मीर का एक लोक गीत है जिस में हर लड़की के दिल की बात है ...उसका भवार्थ यहाँ कुछ इस तरह से है ..बिलकुल कश्मीर के पहनावे और वहां के रहने वालियों के दिल सा सुन्दर ...

कश्मीर के लोक गीत में एक लड़की चरखे को बहुत प्यार से अपने पास बैठने को कहती है और उस से अपने मन की बात कुछ इस तरह से कहती है ...

मेरे सुख दुःख के साथी !
मेरे मित्र ! मेरे मरहम !
मेरे पास बैठ जाओ !

मैं तेरा धागा
फूलों के पानी में भीगों कर बनाऊंगी 
और पश्मीना के लंबे लंबे तार कातती रहूंगी

देखो आहिस्ता आहिस्ता बोलना
अगर मेरा महबूब आए -
तो उस से कहना --
मुझे इतना क्यों भुला दिया ?
फूलों सी जान को इस तरह नही रुलाते ...

Friday, May 03, 2013

बाग़ बगीचों का गुलदस्ता श्रीनगर यात्रा भाग ३




श्रीनगर बाग़ बगीचों का गुलदस्ता है ..सुन्दर बाग़ इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं ....यहाँ के हर बाग़ को देख कर यही लगा कि काश यही हमेशा के लिए बस सकते ...सीढ़ीदार लॉन, झरने, फव्वारों और कई फूलों से भरे हुए  ये बगीचे  कश्मीर की खूबसूरती में चारचांद लगा देते हैं। .डल  झील के किनारे शालीमार, चश्मे शाही और निशात नाम से जाने जानेवाले सभी बागीचे मुग़ल समय के बने हुए हैं  इन सबके एक तरफ लम्बी चौड़ी डल झील है तो दूसरी तरफ  पहाड़ियों की श्रंखला जहाँ से हमेशा   बहने वाले  झरनों निराला नजारा है   शायद इसी कारण यहाँ पर बागीचे बनाए गए होंगे ..यह सब मुगल गार्डन कहे जाते हैं जो कि एक खास तरह की मुगल शैली के बागीचे हैं, यह  कई बड़े क्षेत्रफल में फैले होते हैं और ज्यादातार बागीचों में जन्नत के नक्शे को बयां किया जाता है।.बागीचे में प्रवेश के लिए टिकट लेने पड़ते हैं. हर जगह लोकल और बाहर से आये लोग थे ,जिस में मुझे तो गुजराती और बंगाली अधिक नजर आये .. विदेशी पर्यटक भी दिखे पर बहुत अधिक नहीं ..पर जो भी थे सब बगीचों की सुन्दरता देख कर मन्त्रमुग्ध से थे ..चश्मा शाही  बागीचे के बारे में पता चला कि एक प्रसिद्द कश्मीरी महिला संत ‘रूपा भवानी’ जिसका पारिवारिक नाम साहिबी था ने ही एक कुदरती जल स्रोत ढूंढा   था. इसी वजह से नाम पड़ गया ‘चश्मे साहिबी’ जो बाद  में चश्मे शाही कहलाया. वैसे योजनाबद्ध तरीके से यहाँ के बागीचे को कश्मीर के मुग़ल गवर्नर अली मरदान द्वारा बनवाये जाने का  उल्लेख मिलता है.चश्में शाही के मुख्य जलकुंड में एक भवन निर्मित है जहाँ कल कल करते हुए ऊपर की पहाड़ियों से पानी गिरता है. यहाँ के झरने का पानी पीया जाता है और पीने वालों की खूब भीड़ थी यहाँ .कहा जाता है की इस जल से पेट की बेमारी दूर हो जाती है वैसे भी पहाड़ी झरने का जल हमेशा से अच्छा माना जाता है हम में से एक दो ने यह पानी बोतल में भी साथ के लिए ले लिया ..इस के बाद देखा शालीमार और निशात बाग़ शालीमार बाग़ को" प्यार का घर" भी कहा जाता है इस बाग का निर्माण सन 1619 में मुगल शासक जहांगीर ने अपनी पत्नी नूरजहां के लिए बनवाया था। और निशात का मतलब आनन्द का बगीचा .इसको 1633 में नूरजहां के बड़े भाई आसिफ खान ने बनवाया था। इस बाग़ की संरचना आयताकार है. शालीमार बाग़ के बाद यह कश्मीर के सबसे बड़े बागों में आता है.इसके साथ ही हमने बादाम वाड़ी .देखी .सब बागों में एक शानदार बात है कि आप बाग के जिस मर्जी हिस्से में चले जाओ डल झील आपकी आँखों  में  ही रहती है.
अगले दिन से सुबह बादाम बाग जो की हरी पर्वत किले की तलहटी में है और जिसको कभी अकबर ने बनवाया था, हाँ एक जगह बादाम की शक्ल में पत्थर को तराशा गया है और उस पर अल्लाह लिखा हुआ है| ऐसे ही शालीमार और  निशात बाग़ के कई पेड़ों  पर भी दिखा कि  उसकी  बनावट और कटाई  "अल्लाह " शब्द के तर्ज़ पर की गयी है बादाम वाड़ी नाम देना इसको सही ही था क्यों कि यहाँ पर बताया कि लगबग १४०० सिर्फ बादाम के ही पेड़ हैं .इस वक़्त इस पर हरे बादाम बहुत छोटे लगे हुए थे ..कुछ तोड़ कर खाए मीठे और बहुत ही नाजुक थे ..इतने बादाम देख कर ही मन हरा भरा हो गया :) .यही पर खूबसूरत  नक्काशी किए हुआ एक कुआँ  भी देखा जो जी बहुत गहरा था और यह गोरियाँ चिड़िया भी दिखी जो अब दिल्ली में नहीं दिखती :( 
ऊपर दूर पहाड़ी पर एक किला दिख रहा था जिसको हरिपर्वत किला कहा जाता है ..
यहाँ लगे चिनार के पेड़ बहुत ही खूबसूरत है निशात बाग़ तो इसी खूबसूरती के कारण जाना जाता है ..मुझे चिनार के पत्तो की खूबसूरती ने मोह लिया .
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हजरत बल 
इसके बाद गए हजरत बल यहाँ हजरत  मुहम्मद की दाढ़ी के बाल को संभल कर रखा गया है और वोह साल में अलग अलग १० दिनों तक  लोगों के देखने के लिए सामने लाया जाता है |इस दरगाह में औरतों को अंदर जाने की मनाही है. हिंदू लोग भी अंदर सिर ढक कर जा सकते हैं यह जगह मशहूर इसलिए है कि कश्मीर के मुस्लिम सम्प्रदाय के विश्वास के अनुसार  यहाँ पर हज़रत मोहम्मद के दाढ़ी के पवित्र बाल को बड़े जतन से रक्खा गया है. आतंकवादियोंने  इस दरगाह में प्रवेश कर पवित्र बाल को चुरा ले जाने का भी प्रयास किया था और उस समय हुई गोली बारी में लगभग दो दर्ज़न आतंकवादी मारे गए थे. बाद में भी छुटपुट घटनाएं होती रही हैं. यहाँ पर सुरक्षा बल के बहुत से सैनिक दिखे ..औरत पुलिस भी बहुत थी   शायद उस दिन जुम्मे की नमाज का दिन वीरवार था सख्ती अधिक थी यहाँ कबूतरों की भारी तादाद है  
अगली कड़ी में हॉउस बोट और कश्मीरी लोगो की दिल की बातें ...जो हमने डरते डरते ...अपने बस के  चालक उसके हेल्पर और हाउस बोट के मालिक से की ...इन्तजार करियेगा ...बहुत रोचक है वह ...
शालीमार बाग़ में मोक्ष प्राप्ति :)