Thursday, August 30, 2012

कच्ची शराब की कतरन ..........






कच्ची शराब की कतरन  (कविता-संग्रह)


कवियत्री स्वाति भालोटिया
मूल्य- रु २००
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
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न सवाल बन के मिला करो ,न जवाब बन के  मिला करो
मुझे मैकदे में गर मिलो तो शराब बन कर मिला करो ...

कच्ची शराब की कतरन ..नाम ही ऐसा है कि हाथ में आते हो यह शेर बरबस जुबान पर आ गया ...नशा तो शीर्षक पढ़ के ही हो गया था इस संग्रह का ...और जब लफ़्ज़ों से भरे जाम सा यह संग्रह हाथ में आया तो मौसम भी नशीला था ..हलकी रिमझिम बारिश और यह बहते हुए लफ्ज़ पन्ना दर पन्ना जहन में एक हलके  से  सरूर से उतरते रहे .....और लिखवा गए ..........

कहते हुए लफ्ज़ बेसुध करते गए कुछ इस तरह /कि इतना नशा तो होता न किसी असली जाम से ...

स्वाति भालोटिया का यह काव्य संग्रह .कई लोगों के लिए इन्तजार का सबब बना हुआ है बेताबी से सब इसको पढने के इन्तजार में है ...मुझे भी इस संग्रह का बेसब्री से इन्तजार रहा है .,,इसके परिचय में पूर्णिमा वर्मन ने बिलकुल सही लिखा है कि इन कच्ची शराब की कतरनों में थोडा कच्चापन है ,लिखी हुई इबारतों का थोडा नशा है .थोडा प्यार और एक नरमाहट है जो कभी घुंघरू की तरह बजती है ,कभी शांत हवा सी गुजर जाती है |ठीक कुछ इसी तरह .....

"कच्ची शराब को कोई समझेगा कोई क्यों भला
जिसका कभी इश्क में दिल जला ही न हो ".........खुद स्वाति जी के लफ़्ज़ों में" एक देसी शराब की तरह ये शब्द ,एहसासों की सिहरन ,कंठ में कडवाहट और जहन में एक धक्का बन कर इस लोक से मुझे दूर ले जाने में हमेशा कारगार रहे हैं |इस एक एहसास के साथ कि मैं इस लोक के सर्वोच्च प्रेम भाव को पा लेने की इच्छा में इन शब्दों के रंग ,कागज़ के कैनवास पर घोला करती हूँ जैसे कोई षोडशी यह सोच ले प्यार कर भी लूँ और खुश भी रह लूँ ."ये धडकनों की फरेब मानों हर कविता में ,हर भीगी सी शाम नींद की परियां ,लरजती साँसों में रोप जाती है |" यह खुद के उनके लिखे शब्द ही आगे उनके लिखे का परिचय दे देते हैं .और जहन में फिर से कुछ पंक्तियाँ कोंध जाती है

"हम भटकते हैं, क्यों भटकते हैं, दश्तो-सेहरा में
ऐसा लगता है, मौज प्यासी है, अपने दरिया में/एक साया सा, रू-बरू क्या है/आरज़ू क्या है, जुस्तजू क्या है??

स्वाति जी की रचनाएं नियमों से परे छंदमुक्त रचनाएं हैं जो नए बिम्बों से सजी हुई है | और इसकी कई कतरने वाकई कच्ची शराब सी है ...आईये रूबरू होते हैं इन कतरनों से लफ़्ज़ों के जाम उठा कर ....जहाँ वह छू लेती हैं कुछ इस अंदाज से

.यह हवाएं ही तो हैं
जिनके पन्ने पर लिखा करती हूँ नाम तुम्हारा
कुछ कविताओं को बीजा करती हूँ
और उनके अम्बर तले
चुपके से हाथ बढाकर
जब सब पढ़ रहे होते हैं शब्द
छू लिया करती हूँ तुम्हे .....यह छुना उस मन के रूमानी भाव से परिचित करवाता है जो फिर से मीठी सी शिकायत कर बैठती हैं इन लफ़्ज़ों में .देख कर बालों की मनमानियां लबों पर

जो अधर नजर भर न लेते तुम
मैं जिक्र करती किसी और का
और कहानी अपनी कह देती ....भरा जाम जैसे छलक उठता है ..और छलकते हुए कह बैठती हैं ..

इक सुरीला प्रणय -राग सुनाना
अधखुले अधर तुम्हारे
पूर्णता पायें मुझ में
और चांदनी सी खिल जाऊं मैं
तुम्हारे सीने की छत पर
तेरे इश्क में

तुम्हारे सामने बैठी .............यह प्यार कुछ दिनों का भी हुआ तो कह गया

टूट कर तुम्हारा चाहना
और टूटी रातें
मेरी छाती पर छोड़ जाना
जब हम ,दो न मिल सकने वाले

समुन्द्र का छोर हुआ करते थे ...तुम्हारा कहना और उन अक्षरों में सहारा पा लेना ही तेरे साथ के दिन है ..कच्चे गर्भ के दिनों हों मानों /वही अब बिछोह की प्रसव -वेदना -सी पीड़ा हैं ...वाकई ..लफ्ज़ लिखे हुए ऐसे हैं कि बोल उठते हैं ...अपने ही लफ़्ज़ों में .....

"कच्ची शराब का नशा पक्का बहुत लगेगा
दर्द का एहसास भी अच्छा बहुत लगेगा "......इसी कच्ची कतरन में दर्द का एहसास भी छिपा है जो उनकी एक रचना में कुछ ऐसे दिन भी होते हैं में छलका है ..

कुछ ऐसे ही दिनों में
मैं रात भर सजती रही
नयी जात के काँटों से
मुकुट सहित ,अन्य अलंकारों से
कि  औरत के जीस्त से टपकता हुआ खून
स्वेछाचारी दुनिया का
वाइन सा नशीला और मादक पेय है ......बहुत जबरदस्त लगी यह पंक्तियाँ ....स्वाति जी के लेखन में कहीं कहीं अमृता प्रीतम की सी सोच भी छलक उठी है ..उनकी कुछ रचनाएं बेहद करीब लगी उनके लिखे के ..जैसे कुछ में पी लूँगी में ..

तुम्हारी साँसों की गर्म चिलम सुलगा लूँ
छालों की आग का कुछ धुआँ तुम पीना
कुछ मैं पी लूँगी ...........

और बरसती सी बारिश में वह कह उठी है

तुम्हारे स्पर्श से पुलकित पोरों की

इन अधरों पर तुम्हारे प्यार की
हर अनहुई अनुभूति की
रात जली है अब तक प्रिय ....रात बरसता रहा चाँद बूंद बूंद ,आज फिर हमने ,चूल्हे में ...रचनाएँ हैं जो अमृता के लेखन से प्रभावित हैं |

तुम्हारे प्रेम में पगी दो सुबह थीं ..
जब कोख में बैठा था तुम्हारा सूरज
और किरने रहीं जनमती मुझे
जब रंग बरसाते रहे तुम मुझ पर
और लफ़्ज़ों की बूंदे चूती रहीं मुझ पर
तुम्हारी छुहन से तप्त दो सुबह थी

बेहद दिल के करीब हैं यह लफ्ज़ ..रंग और लफ्ज़ का अनोखा मेल ..जो तेज तीखी शराब सा असर कर गया ..
उनकी एक और कतरन बहुत ही तेज असर करती दिलो दिमाग पर कल रात शीर्षक से लिखी यह रचना

कल रात /तुमने फिर बेच दिया मुझे /और फिर से /रात ने /चाँद का कुरता उतार फेंका /सौदे में बस /नुचा लिहाफ हाथ आया /चरित्र हीनता का .............मूक हो जाते हैं यहाँ जज्बात ....कतरन दे जाती है गहरी सोच और सच के करीब का एहसास ...पढ़ते हुए दिल से यह कहलवाते हुए ...

कच्ची शराब में पके  हैं मेरे गम सभी
आंसू इनको घोल ले मुमकिन नहीं लगता ........इन कतरनों में नशा है अजब सा जो बहुत देर तक आपको अपने साथ बनाए रखता है ..पर धीरे धीरे आखिरी पेज तक पहुँचते पहुँचाते यह कुछ फीका सा लगने लगता ..रूमानी है हर कतरन .दर्द भी है हर कतरन और ज़िन्दगी के कई सच के करीब भी है यह कतरन ..पर कहीं कुछ कमी सी लगने लगती है ..कुछ ढकी हुई ..कुछ दबी हुई बात महसूस होने लगती है ..जो पारदर्शिता शुरू के पन्नो से दिखनी शुरू हुई थी वह कहीं खोने लगती है |आखिरी लिखी उनकी कुछ कवितायें बहुत गहरा असर नहीं छोड़ पाती हैं ........अंत तक आते आते ठीक उस तरह का एहसास मुझे हुआ कुछ इन लफ़्ज़ों में

"प्यार में यह होशो हवास अच्छा नहीं लगता
वक्तेवस्ल मुझको यह लिबास अच्छा नहीं लगता "..
वाली हालत से रूबरू होने लगता है दिल ...जरुरी नहीं कि हर वक़्त जाम हाथ में रहे ..पर उसके होने का एहसास बाकी रहे ..सरूर बाकी रहे ..   ठीक उस  एहसास की तरह जो नियम ,कानून और हर बंधन से मुक्त है और यह तो कच्ची शराब की कतरन है ...अंत तक अपने सरूर में उसी तरह रखती तो बहुत देर तक पढने वाला उसी  नशे में  डूबा रहता ...
           स्वाति भालोटिया एक अच्छी चित्रकार भी हैं। पुस्तक का आवरण चित्र खास इस पुस्तक के लिए स्वाति भालोटिया ने खुद बनाया है।गुलाबी हलके पीले एल्कोहॉलिक रंगों से सजा यह आवरण अपनी तरफ बहुत आकर्षित करता है ..और आपको खुद में डुबो लेने को मजबूर करता है | अभी तो शुरुआत है उनके संग्रह में और जाम जुड़ने की और नशीली होने की ...और बंधे हुए एहसास से मुक्त होने की .....हमें इन्तजार रहेगा ..उनकी कलम से निकली हुई कतरनों का ..जो खुद में पूरा डुबो दें ..और कहने पर मजबूर कर दे
जिस में गम पकते हैं मेरे ,कच्ची शराब है
गंगा फिर भी है दूषित यह सच्ची शराब है  .....

या फिर दाग दहलवी के लफ्ज़ बोल उठे

लुत्फ़-ऐ मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद,
हाय कमबख्त तूने पी ही नहीं ...................
रंजना (रंजू ) भाटिया
इस में जुडी कच्ची शराब की कतरन के संदर्भ में  कुछ पंक्तियाँ  अनिल जी की हैं

Saturday, August 25, 2012

जागती आँखों का सपना

    कवियत्री डॉ निशा महाराणा
 मूल्य- रु २००
 प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
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सपने जो उतरते हैं जागती आँखों में ..वह सपने अक्सर बुलंदियों को छू लेते हैं ...सपने श्याम श्वेत ..सपने रंग बिरंगे ..सपने सच्चे झूठे ,सपने अपनी बात कहते अपने अर्थ बुनते ..बस आँखों में समाये रहते हैं और एक नदी की तरह ज़िन्दगी को बहाव देते रहते हैं ..थमना इनका काम नहीं ..थम गए तो यह ज़िन्दगी भी थम जायेगी ...तसव्वुर ही तो है ..जो हमारे हर ख्याल को एक मुकाम दे जाता है ..और अपनी ही दुनिया में बसा लेता है ..निशा महाराणा जी का काव्यसंग्रह ...जागती आँखों के सपने एक ऐसे ही तसव्वुर से निकले ख्याल है जो उन्होंने बुने .समेटे और इस में कई रंगों में कई अर्थों में खिला दिए अपने लफ़्ज़ों से ..अपनी लिखी भावनाओं से और वह पढने वाले के साथ चलते गए एक नया सपना ....
निशा जी ने यह सपना तब देखना शुरू किया जब वह एक छोटी सी लड़की थी और वह सपने डायरी के पन्नो में कैद होते गए .लड़की अपनी सब जिम्मेवारियों को निभाती आगे बढती गयी और सपने फिर पूरे हुए एक ऐसी सुबह के शब्दों में
कल्पना के रथ पर सवार /
उम्मीदों के बादलों के पार /
एक मंजिल मिल जाएगी /
वो सुबह कभी तो आयेगी ..और वह सुबह जागती आँखों से उनके सामने आ गया .

सपना ही तो है जो बिना टिकट के कभी हंसाता ,कभी रुलाता है ..यही भाव नजर आते हैं .उनकी लिखी रचना मेरा सपना में ..
आज क्या होने वाला है
सही सही बतलाता
कल क्या होने वाला है
उसको भी नहीं छिपाता
कोई बता सकता है ?
और सपनो को जब पर लगे तो वह तितली सा उड़ने लगता है और उसकी पंख और उसकी चाल मतवाली को देख कर मन गा उठता है
तू मेरी बन जा आली
थोडा थोडा रंग बचा कर
मुझको तू दे जाना
और कभी तितली अपने अतीत में चली जाती है और कहती है
फिर क्यों ?फिर क्यों ?
बेटियाँ पराई होती है ?
पर जीवन का यही सत्य है
तितली रानी इसे जानती है
नए बागों को नए घरों को संवारना जानती है .....और वही तितली बेटी की विदाई बेला में दुआ देती है
याद न आये तुमको मेरी
प्यार मिले तुझको इतना
जितना सागर में जल है
जितना सूरज में दम है
और घर कैसा हो वह यह बताना भी नहीं भूलती .
छोटा सा इक घर हो
प्यारा सा परिवार
परम आनंद की ज्योति हो
न हो वहां आग
प्यार सिर्फ प्यार का
जलता रहे चिराग
बेटी तो पराई हो गयी ...पर माँ का इन्तजार अब शुरू हो जाता है ...उसके आने को देखने को आँखे तरसने लगती है ..अजीब है माँ भी खुद ही बेटी को दूसरे घर भेजने की जल्दी और खुद ही फिर उदास ...पर अब बेटी तो अब दूसरे घर की है जो कहती है ..
इन्तजार मत करना वरना
शोकमय हो जाऊँगी
काम ख़त्म होते ही माँ
मैं तुमसे मिलने आऊँगी..
बेटी भी कहाँ भूल पाती उसको भी गुजरा ज़माना याद आता है और दिल में कसक भर जाती है
थोड़ी सी चाहत है
जैसा सुख पाया मैंने
वो मेरे बच्चो को मिले
जिस से उनका बचपन भी
फूल बन कर खिले |
निशा जी के जागती आँखों में सपनो के रंग अनगिनित है ..इस में देश की बात भी है स्वराज बनाम रामराज्य .देशप्रेम आदि जैसी रचनाओं के द्वारा ..और रिश्तो का संसार ,बाबूजी ,हम दोस्त बने जैसे अनूठे रंग भी है ..आखिर में मैंने देखा है तो जैसे उन्होंने जीवन के सब रंग बिखेर दिए हैं ..दुःख सुख की बात गिरगिट की तरह रंग बदलने की बात..महुए के चुपचाप टपकने की बात आदि देखने की बात वाकई देख के पढ़ के दिल को असली रंग से परिचित करवा ही देती है ..
संग्रह अच्छा है ..शीर्षक बहुत ही आकर्षित करता है | जिन कविताओं से आपका परिचय करवाया वह इस में सबसे अच्छी रचनाये मानी जा सकती है ..बाकी कुछ रचनाएं बहुत गंभीर और बोझिल सी हैं ...जो अपनी बात कहती तो है पर समझा नहीं पाती है इस लिए अक्सर ताल मेल टूट सा जाता है ...और रचना वहीँ अधूरी सी रह जाती है .कहीं कहीं किसी रचना में बहुत साधारण सी बात को ही बहुत विस्तार दिया गया है जो बहुत अधिक रोचक नहीं लगा है ...फिर भी यह जागती आँखों के सपने हैं ..जो दिल को आपके कुछ क्षण तो खो देते हैं अपने ही रंग में आखिरी लिखी इस कविता के साथ ...
यह है मेरे सपने
नहीं है मकडजाल
सफलता के फल लगेंगे
इन्द्रधनुषी रंग बिखरेंगे
यथार्थ का ये सपना बोया
न है कोरी कल्पना
जरुर पूरे होंगे ,मेरी
जागती आँखों के सपना ...............

Wednesday, August 22, 2012

कुदरत के जैसे जितने रंग -वैसे ही हर रंग कस्तूरी में

कस्तूरी (कविता-संग्रह)
संपादक : अंजु (अनु॒) चौधरी एवं मुकेश कुमार सिन्हा
24 कवियों की प्रतिनिधि कविताएँ
मूल्य- रु 350
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिकार्ट पर खरीदने का लिंक

इक झलक जो मिली उसकी आँखों की चमक बढ़ गयी
सुनहरा सा रूप था उसका और महक कस्तूरी सी ..............यह लफ्ज़ उभरे जब कस्तूरी हाथ में आई .. कस्तूरी महकती हुई ..उस महक से जो खुद से अनजान है ...जो उसके अन्दर खुद महक रही है ..और खुशबु अपनी से अपने आस पास भी एक महक से गुलजार है .ठीक वैसे ही ..जब यह कस्तूरी मेरे हाथ में आई तो इसकी खुशबु से मैं दिल के अन्दर तक महक गयी .एक ऐसा काव्य संग्रह जो महक रही महका रहा है अपनी कही गयी रचनाओं से .उनमें लिखे लफ़्ज़ों से .| जैसे जैसे पन्ने पलटते जाते हैं उसकी महक से सरोबार होते जाते हैं .लहर दर लहर परत दर परत अनेक रंग छिपे हैं इस खुशबु में इस संग्रह में दिल की बातें है जो रूमानी है और पढने वाले को रूमानी कर देती है .जज्बात है ..दर्द है और शिकायते भी ..हर रंग अनूठा ,हर रंग अपने में डुबो देने वाला .चौबीस कवि,कवियत्रियों ..द्वारा लिखा यह संग्रह वाकई में बहुत ही अनूठा है ..अलग है .इस में छन्दमुक्त रचनाये हैं गजल है ..गीत है ...क्षणिकाएं हैं हर रंग में हर तरह से यह अपनी बात कहती नजर आती है ....
कुदरत के जैसे जितने रंग
वैसे ही हर रंग कस्तूरी में .......
         आज का युग नेट का युग है ..हर भाषा ,हर भाव में कविता लिखी जा रही है और पढ़ी जा रही है .पर फिर भी उसको यूँ संग्रह के रूप में पढने की इच्छा कम नहीं हुई है ...हाथ में आई पुस्तक की महक भी किसी कस्तूरी से कम नहीं आंकी जा सकती है जो खुद में डुबो लेती है इस लिए जहाँ तक यह पहुँच जाए वहीँ थाम लेती है रोक लेती है ..कुछ ऐसा ही अनुभव मैंने इस संग्रह को पढ़ते हुए किया ...
 पहली कविताएं ही उस सूफियाना रंग में महकी हुई है ...अजय देवगिरी की रचनाये सूफी अंदाज़ से अपनी बात कुछ यूँ कहती है ..
इक मुद्दत से ज़माने से बेखबर हूँ
ख्वाबो ख्यालों में शुमार तू ही तू है
और वही ख्याल जब उनकी नजर बदल कर रूमानी हो जाते हैं तो कम कयामत नहीं करते उनके लिखे लफ्ज़ .
इस सर्द रात में हम दोनों
बंदिशे सारी तोड़ देते
अपने लम्स की गर्मी में
एक दूसरे को हम ओढ़ लेते
अगर तुम होते ..
रूमानी एहसास की खुशबु में खोये खोये से दिल रुक जाता है
अगले पडाव पर जहाँ अमित आनंद पाण्डेय जी अपना परिचय ही इस अंदाज़ से दे रहे हैं कि उनको पढ़े बिना अगला सफ़र तय नहीं किया जा सकता है .."मैं खुद चकित हूँ /कौन हूँ /मैं मुखर हूँ .मौन हूँ "
और जिस मैं से वह खुद हैरान हैं वही उनको अस्तित्व देने वाली माँ जब माँ के हाथ की बुनी हुई लोई आती है तो ठंड का एहसास भी आता है और यह ख्याल भी कि ठण्ड तो हर साल आएगी पर तुम माँ ?भावुक कर देता है यह प्रश्न |
आनंद जी की लिखी रचनाएं रंगमंच ,हमारी दुनिया, हारसिंगार की महक से हमें परिचय करवाती है ...और खुद से जैसे रूबरू करवाती है
कुछ इस तरह से नजारों की बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया
कुमार राहुल तिवारी कृष्ण के घर आने की ख़ुशी में गुनगुना उठे हैं
सपने जो बुने थे ,राहें जो चुनी थी | ..
सब सफल हैं तेरे कारण मेरे कृष्णा
बाकी उनकी लिखी रचनाओं में चाँद ने पूछा बादल से विशेष रूप से प्रभावित करती है
  गुंजन अग्रवाल जो परी की तरह पली है और अपने अस्तित्व को "मैं हूँ हाँ मैं हूँ .क्यों कि मैं गुंजन हूँ "..और गूंजी इस संग्रह में अपनी लिखी बहुत ही सुन्दर रचनाओं से .और उनकी रचना "सुन पगली कब्बी इश्क ना करना !"
ऐ लड़की !
सच बता
तुझे कहीं इश्क तो नहीं हो गया ?
इत्ते सारे रंग तो बस
इश्क होने पर ही खिला करते हैं
महबूब से मिलने पर ही उड़ा करते हैं
और एक पाती पांचाली के नाम विशेष रूप से उलेखनीय है ..
तुम्हारे मन की भाषा .तुम्हारे मन की लाज
उसके मौन को पढा है मैंने
यह तो बस तुम ही कर सकती हो
प्रेम बलिदान मांगता है ...
       गुरमीत सिंह के परिचय में एक यथार्थ है कि इस में और कल्पना की उडान के बीच निरंतर संघर्ष चलता रहता है और मन भावनाओं के माया जाल में भटकता रहता है ...और भटकता हुआ ह्रदय कुछ तूफ़ान पैदा न करे यह हो ही नहीं सकता .
"आओ कुछ तूफानी करते हैं "..रूह तक कांप जाए काफ़िरो की /आओ आज कुछ रूहानी करते हैं रचना और" मरीचिका "ने विशेष रूप से मन को हर लिया
जानता हूँ आसमान के चाँद की ख्वाइश कर बैठा हूँ
शायद ,मैं तेरे ख्वाबों के लायक भी नहीं
पर क्या करूँ/दिल है कि मानता ही नहीं !
           इक अजीब किस्म की किताब को /हम दोनों ने अपने नाम किया मैं उसकी लिख न सका ,वह मेरी पढ़ न सकी ...यह जबरदस्त अंदाज़ है जेस्बी  गुरजीत सिंह जो अपनी सरल भाषा में अपनी बात कह गए हैं इस संग्रह में ,इनकी सभी रचनाये मुझे विशेष रूप से बहुत पसंद आई ..किसी दो का चुनना बहुत मुश्किल लगा ..फिर भी यहाँ सब के बारे में नहीं लिखा जा सकता ..".मैं तेरे अनलिखे खत सा "..और "मेरी मजबूरियां "न भूलने वाली रचनाएँ है
एक दिन सुबह जब आंख खुली
तो तकिये के नीचे एक खत पाया
न लफ्ज़
न कागज़
न लिफाफा
इस में ही ज़िन्दगी के मायने तलाशते हुए वह मज़बूरी भी ब्यान कर गए
मेरी मजबूरियां
वो सब हक है
जो मैंने तुझे जताए ही नहीं कभी
ये सोच के
कि इनकी बंदिशों में
इश्क भी इक दिन रो पड़ेगा ..
     डॉ वंदना सिंह की रचनाओं में "आँखे" और "याद आये "रचनाएं बेहतरीन है
अपने घर में वो इक लड़की
डरती है क्यों सोती सोती
और याद आये कि यह पंक्तियाँ
कहते थे खुद को आईना जो
इक बार न अक्स दिखा पाए
       मेरे लफ्ज़ मुझसे बातें करते हैं /कभी मेरी मुश्किलें बढ़ा देते हैं /तो कभी मरहम लगा देते हैं /लफ़्ज़ों से बात करती नीलिमा शर्मा के लिखे का परिचय स्वयं ही दे देते हैं और "संबोधन" की ओपचारिकता में क्यों पड़े कहते हुए कि आप तुम और तू की बजाये
मैं तुम्हे और तुम मुझे
मेरे ही नाम से पुकारेंगे
अपना अपना वजूद लिए हम
एक दूसरे के रहेंगे उम्र भर
इनकी रचनाओं में दूसरी रचना "कविता का जन्म" मासूम सी रचना है ..
एक अक्स लकीरों का
कुछ आड़ी है कुछ सीधी सी
कुछ बिलकुल सपाट
एक छोटी सी नन्ही सी
एक प्यारी सी कविता मेरी अपनी
       शब्द कहाँ से लाते हो ..यह प्रश्न है नीलिमा पुरी का बातें तो मेरी सब मेरी होती है इन में /तुम उनको शक्ल कैसे दे पाते हो /कहते हो खुद को मासूम और मुझे नीलम बताते हो ये प्यार में डूबे शब्द कहाँ से लाते हो .....और उनको जवाब मिलता है
मैं कुछ भी लिखूं ,तुम उसे गुनगुनाती रहो
राह -ऐ ज़िन्दगी में कदम से कदम मिलाती रहो
मैं रूठ जाऊं तुम मानती रहो ....वाह क्या दिलकश अंदाज़ है यह गुफ्तगू का ..जो बन के कविता नीलम पुरी की कलम से उतरा है और सरल भाषा में अपनी बात कहने वाली "पल्लवी सक्सेना "भी "सत्यम शिवम् सुन्दरम "और "सागर एक रूप अनेक में "ज़िन्दगी के नए अर्थो से पहचान कराती नजर आई
"बोधमिता" की रचनाएं माँ बेटी के प्रेम से अभिभूत है ..वहीँ "मीनाक्षी मिश्रा तिवारी "की रचनाओं में "समाकलन "और "विरह "रचनाओं को श्रेष्ठ कहा जा सकता है |
मुकेश गिरी स्वामी आत्मचिंतन में लीन हैं ..सोच में डूबे हुए कि चिंतन की शुरुआत कहाँ से करूँ /देश की चिंता करूँ या खुद की चिंता करूँ ....कहीं से तो शुरुआत करें मुकेश जी ..अच्छी लगी आपकी रचनाएं |
रजत श्रीवास्तव "मौन "से रिश्तों को निभाने का आग्रह कर रहे हैं .और देख ले गजल के माध्यम से बहुत ही बढ़िया बात कह गए हैं ..."तूने इबादत का नाम क्या दिया मेरी मोहब्बत को
सजदे में है तेरी जुस्तजू आठों पहर देख ले "
         रश्मि प्रभा जी की रचनाएं गहरा अर्थ लिए होती है ..इस संग्रह में भी वह "परेशानियां तो दरअसल समझदारी में है "और "क्या करूँ" से जीवन दर्शन के नए रंग नए अर्थ में है |वंदना गुप्ता ,रिया ,राहुल सिंह ने ज़िन्दगी के उन पहलुओं पर लिखा है जो आम ज़िन्दगी से ताल्लुक रखते हुए भी ख़ास है वंदना की रचना
इन्तजार की सिलाई खत्म नहीं होती
औत यूँ ही डिग्रियां नहीं मिलती मोहब्बत की बहुत ही बेहतरीन रचनाये हैं उनके दी हुई इन रचनाओं में
रिया ख़ामोशी को सुनते हुए कहती हैं उसकी दीवानगी को कहते हुए सुना है
उसकी दीवानगी को समझा है
उसका अपनापन महसूस किया है
        राहुल सिंह जी की रचनाएं नियम में बन्ध कर नहीं रह सकती है और वह पढने में भी हर तरह से आज़ाद ख्याल की ही लगीं
भाग्य -कर्म के खेल करो तुम
मेरा क्यों अपराध बने ?
और संताप नहीं दिखलाऊं मैं
कष्ट लिखूं या हर्ष लिखूं
लेखन पूरा न हो पाए
वाणी शर्मा की कविता "गर्भ हत्या का अपराधबोध "बहुत ही मार्मिक है
यह वह युग नहीं कि हर कन्या महामाया बन कर जन्म ले
और यहाँ कंस जैसे मामा का होना जरुरी है
जब बन रहे हो माँ बाप ही हत्यारे
यह आज के समय का सबसे बड़ा सच है ..और बहुत ही मार्मिक ढंग से वाणीं जी की कलम से उतरा है
      शिखा वैष्णव जी का लेखन किसी की तारीफ का मोहताज नहीं है उनका लेखन अक्सर नए नए बिम्बों से सजा हुआ होता है जो पढने में बहुत रोचक लगता है "तेरी मेरी ज़िन्दगी" उस रसीली जलेबी की तरह है जिसको देख कर हर कोई ललचाता है .शुरुआत जिस तरह से इस रचना की रोचक ढंग से हुई है अंत तक आते आते यह एक कडवे सच में तब्दील हो गया और यही उनके लेखन की विशेषता है |"निरीह "और "पुरानी कमीज "उनकी इस संग्रह में उल्लेखेनीय रचनाएं हैं |
     मैं शख्स बड़े काम का था /कुछ मोहब्बत ने लूटा/कुछ सपनों ने /सफ़र अपना कुछ लगा ही था /वाकई अलग ही लगा इस काव्य संग्रह में हरविंदर सिंह सलूजा का जिन्होंने अपना परिचय ही इतने दिलकश अंदाज़ में दिया है "जाने कौन परी आएगी " मेरी कलम ही मुझे पहचान दिलाएगी अब ..और
पलकों पर मोती और नींद का रूठना
ख़्वाबों के बनने से पहले ही टूटना
यह धड़कन अधूरी ये ज़िन्दगी अधूरी
कोई जवाब नहीं कोई सवाल नहीं ..आज नहीं जैसी रचनाएँ उनकी बेहतरीन रचनाएँ हैं
अंजू अनु चौधरी की कलम से निकले शब्द बोलते हैं और जब बोलते हैं तो खूब अच्छे से सुनाई देते हैं आपकी बात कहते और प्रतिध्वनि की तरह गूंजते हुए
मेरे मन के बच्चे की वही प्रतिध्वनि
कि हाँ यहाँ सब अच्छे हैं
सबके अपने विचार हैं
और इस तरह यह मेरे मन और मष्तिष्क को जीवन को नया अर्थ दे देते हैं
अपने लिए में कुछ पंक्तियाँ बहुत ही अर्थपूर्ण लगी कि वो क्या सोचती है .क्या चाहती है /रात की तनहाइयों में /ग्रीष्म में मेघ ,बसंत में बहार /और कि हे नर क्या तेरे ह्रदय में मेरे लिए कोई भाव नहीं क्या अब इस जीवन में ..........
मुकेश कुमार सिन्हा के लफ्ज़ हमेशा अपनी बात बहुत ही सरल तरीके से कह देते हैं पर उनका मर्म उनका असर बहुत गहरा होता है उनके इस संग्रह में मुझे" यूटोपिया "और "एक नदी का मरसिया "बेहद पसदं आई ....
सपने पूरे होंगे तब न
जब समझदारी की छींटें ड़ाल कर
जागते हुए उन्हें जीएगा
मिलेगा तभी ,प्यार का नजराना
खुशियों का खजाना
फिर बच के जाएगा कहाँ
यूटोपिया ...और "एक नदी का मरसिया" दिल्ली की नदी यमुना की मौत का मातम है जो हम सब लोग पल पल खुद ही उसको दे रहे हैं जहाँ मर चुकी है /वहां कर रहे हैं कोशिश /लाश नोचने की /लगे हैं हम /एक नया रेगिस्तान बनाने में ../एक प्यारी सी नदी का मरसिया पढने में ..
         कस्तूरी बहुत से फूलों का गुच्छा है ..जिस में हर फूल का अपना रंग और अपनी खुशबु है .मुझे जो फूल अच्छा लगा जिसकी सुंगंध अच्छी लगी वह मैंने अपनी कलम से आप तक पहुंचा दी ..हर किसी की पसंद अपनी है खुशबु की भी और फूल की भी ...आपको वह इस काव्य संग्रह को पढ़ कर खुद चुनना होगा ..कविताओं से सजे इस पुष्प गुच्छे को सजाया है संवारा है अंजू (अनु )चौधरी और मुकेश कुमार सिन्हा ने ...हाथ में आते ही उस मेहनत की खुशबु जो इस संग्रह को हम तक पहुँचाने में हुई है वह आपकी सुंगध से आपको अपने घेरे में ले लेती है | अनेक लोगों का एक साथ एक संग्रह में होना इस बात से भी बहुत सहज लगता है कि आप अपनी इच्छा से अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद को पढ़ सकते हैं ..जो नहीं पसंद उस पर अधिक ध्यान नहीं देते क्यों कि अगले ही पल अगली आपकी मनपसन्द रचना आपको अपने में समेट लेती है ...यही इसी काव्य संग्रह के साथ भी है ...कुछ बहुत दिल को भा लेने वाली हैं और कुछ कहीं कहीं भटकती हुई .बेमकसद सी ...सफ़र में निकले उस समूह की तरह जो अपने अपने विचार लिए सफ़र कर रहा है ..पर नाम कस्तूरी है तो महकेगी ही ..और वह महक रही है अपने सूरजमुखी आवरण के साथ पीले रंग में और हाथ में आते ही उकसाती है हर अगले पृष्ठ को पढने के लिए .पढने के बाद मैं तो यही कहूँगी ....कस्तूरी सी यह नशीली महक ...महक रही है मेरे दिल के ,जहन के हर कोने में फ्लिप्कार्ट पर यह उपलब्ध है दस % डिस्काउंट के साथ ..इस समीक्षा को पढ़ कर आप इसको मिस नहीं करना चाहेंगे ..मुझे तो आप लोगो से यही उम्मीद है ..:)और आज इस संग्रह का विमोचन है ..आप सभी का स्वागत है इस कस्तूरी की महक को लेने के लिए आप आज यहाँ ४.३० हिंदी भवन में आमंत्रित हैं ..इंतजार रहेगा आप सभी का ....मुझे भी और कस्तूरी को भी ...


Thursday, August 16, 2012

शब्द की तलाश में

शब्दों की तलाश में (कविता-संग्रह)
कवि- मुकेश कुमार तिवारी
मूल्य- रु 250
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिकार्ट पर खरीदने का लिंक


जब इंसान ने बोलना सीखा होगा तो कैसे क्या हुआ होगा ..? उस वक़्त उसको उस भाषा को बोलने के लिए शब्दों की जरुरत हुई होगी .और उन शब्दों को फिर अपनी भावनाओं के अनुसार बोलना सीखा होगा ...शब्दों की तलाश में इंसान ने कितनी मशकत की होगी न ? शब्दों का आदान प्रदान हुआ होगा ..या एक भाषा से वह दूसरी भाषा में पहुँच कर अपना रूप आकार बदलते गए होंगे .और अब हम दिल से महसूस करें तो शब्दों की तलाश अपने दिल में गहराई तक जाने की तलाश है ..अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अनूठा जरिया ...और जब यही "शब्दों की तलाश में "काव्य संग्रह'" मुकेश तिवारी " द्वारा लिखित मेरे हाथ में आया तो ..यह प्रश्न उत्तर जैसे इस शीर्षक के साथ मेरे अन्दर सवाल जवाब करने लगे |

मुकेश जी को मैं उनके ब्लॉग कवितायन द्वारा जानती हूँ ..जहाँ उनकी लिखी कविताओं ने विशेषकर स्त्री मन पर जो उन्होंने लिखा ,मुझे बहुत प्रभावित किया और उस के बाद से मेरी कोशिश रही उनकी सब कवितायें पढ़ती रहूँ ...और अब उनके यह शब्दों की तलाश में काव्य संग्रह के रूप में मेरे सामने हैं ..अपनी तलाश की कहानी खुद ब्यान करता हुआ ...इस तलाश में शामिल कवितायें हमारे रोजमर्रा के लम्हों की तलाश है जो बहुत ही अधिक हमारे अंतर्मन से जुड़े हुए विषय हैं जहाँ रोज़ ही बदलने वाले वक़्त को ब्यान किया है हालंकि इनको लिखते हुए खुद मुकेश जी भी हैरान हैं कि जो शब्द उनके शब्दकोश से अपरिचित हैं वह उनकी इस कविता में ढल कर कैसे ब्यान हो जाते हैं और यह हैरानी ही उन्हें और आगे बढ़ने की प्रेरणा बनने लगती है |
उनका यह काव्य संग्रह उनके माता पिता को समप्रित है जिसका पूर्ण समपर्ण होने का सबूत हम उनकी लिखी रचनाओं में इस संग्रह में पाते हैं |
मुकेश जी के पिता "श्री रामप्रकाश तिवारी निर्मोही "साठ के दशक के हिंदी कहानी के सशक्त कहानीकार थे और वो खुद इस बात को मानते हैं कि आज वो जो भी हैं अपने पिता की वजह से हैं |जबकि वह अपनी एक रचना में लिखा है कि "पापा नहीं चाहते थे कि मैं कविता लिख कर अपना समय नष्ट करूँ "इस लिए उस वक़्त उन्होंने अपना पूरा ध्यान इंजीनयर बनने में लगा दिया और फिर वक़्त मौका मिलते ही अपने इस शौक को भी पूरा करने की ठान ली ..मुकेश जी हर रचना के बारे में यहाँ लिखना बहुत ही कठिन कार्य होगा ..पर फिर भी पूरे काव्य संग्रह में बहुत सी ऐसी रचनाएँ हैं जिनका जिक्र किये बिना यह समीक्षा अधूरी लगेगी ..उनकी लिखी "माँ "पर रचनाये बहुत ही अधिक सुन्दर अभिव्यक्त हुई है ...माँ किसी भी तरह से अपने बच्चे से अलग नहीं है ...."अम्माँ..माँ केवल माँ भर नहीं होती "और टुकड़ों में बँटी हुई माँ .आदि जैसी रचनाएँ पढ़ते हुए आँखे नम कर देती है ....बूढी... होती अम्माँ जिसकी अब कोई नहीं लेता उस से बूढ़ा हो जाने की दुआएं कोई और दिन हो या कोई तीज त्योहार अब उनके लिए भेदभाव कर पाना मुश्किल है ...आज के वक़्त के बुढापे की और संकेत है ..जो ह्रदय में एक विवशता सी भर देता है ..माँ किसी भी उम्र में केवल माँ भर नहीं होती जबकि वो खुद को भी नहीं संभाल रही होती है तो तब भी विश्वास होती है आसरा होती है ....सच ही तो है ...माँ एक विश्वास है .एक सहारा ..पर जब टुकड़ों में बाँट जाती है अपने बच्चो की सुविधा के अनुसार और वह अंतिम समय में भी इन्तजार में है कंधो के ..यह कविता पढ़ते ही दिल आज की सच्चाई से रूबरू होता हुआ कराह उठता है | लाजवाब अभिव्यक्ति है इन रचनाओं में मुकेश जी की भावनाओं की ...|
            भोपाल त्रासदी का सच अधिकतर हर कविता लिखने वाले के दिल से खूब बेजार हो कर निकला और मुकेश जी की कलम भी इस दर्द से अछूती नहीं रही रात को जो मौत कोहरा बन कर आई थी /पौ फटते ही छंटने लगी फिर वे आये नारे लगे /रपट मांगी ..फिर चल पड़ा काफिला मौत के शहर में ज़िन्दगी ढूढने ...माया नजरिया ज्ञान ...मुकेश जी की इस संग्रह में एक और बेहतरीन रचना है पैकिंग परिवर्तन का नाम और इसी का नाम माया ....जितना देख पाते हैं समेट लेते हैं इसी का नाम नजरिया और जितना जानते हैं उसी से दूसरों को सीख ज्ञान की परिभाषा है ..कितने सरल शब्दों में यह बात हम तक पहुँच गयी इस रचना के द्वारा ..और इस अगली रचना में समाज में जीने के ढंग को वह कहते नजर आते हैं सत्य बोले गत्य के ढंग से ..भूखे पेट को रोटी के सपने नजर आते हैं ख्यालों में ही सही जिन्दा रहने को यही ख्याल जरुरी हैं ...|मुझे हैरत होती है अपने आप पर/कि हमने कैसे काट ली जिन्दगी/एक ज़मीन के टुकड़े पर/एक ही टॉवेल में ....एक तौलिये वाले लोग ...में हर किसी को अपनी बात नजर आएगी जो इस तरह के हालात से गुजरे हुए हैं ।
             इस संग्रह में दो रचनाएं अपनी तरह की अलग रचनाएं हैं ..जो औरत के उस दर्द को महसूस करवाती है कि मज़बूरी उसको कहाँ कहाँ ले जा कर पैसा कमाने के लिए मजबूर कर देती है और वह कह उठती है आदत धीरे धीरे पड़ ही जाती है अब कोई तकलीफ नहीं होती ..क्यों कि जिन साँसों की आंच को वह अब अपनी सिसकियों में महसूस करती है जिस में उसको घर में चूल्हा जलने की सरसराहट सुनाई देती है घर का बकाया किराया दिखाई देता है और वह तो वो काली सी लड़की है जो उतरती है बस से किसी को खोजती /किसी का इन्तजार करती या किसी के साथ गाडी में बैठ कर चली जाती है ...कोई सोचता कहाँ है उस के बारे में .बस कयास लगाए जाते हैं ..वो काली लड़की ..और साँसों में गरमाती आँच दो बेहतरीन रचनाएँ हैं इस संग्रह की ..अपनी बात अनोखे ढंग से कहती हुई ..
             मैंने जैसे इस समीक्षा की शुरुआत में कहा था कि मुकेश जी कि सभी रचनाओं के बारे में यहाँ बात करना बहुत मुश्किल होगा ..बहुत सी इस में बात कर ली गयी है ..पर अभी भी बहुत सी बाकी हैं ...मैं मुकेश जी के ब्लॉग पर जिन रचनाओं से बहुत प्रभावित हुई थी वह स्त्री मन के सहज भाव पर लिखी हुई कविताएं थी ...और यदि उनकी यहाँ बात न की जाए तो लेखक के बारे में यह अधूरा कहना होगा मेरा ..हालंकि इस संग्रह में इस तरह की रचनाये हैं पर बहुत कम ...संग्रह में जो कविता पहली पढ़ी तो लगा ......वाह इस में तो बहुत कुछ पढने को मिलेगा ..रीते हुए मन में स्त्री मन की सहज बात मेटाफिजिक्स की तरह और तुम खोज लेती हो आँखों के माइक्रोस्कोप से उन में कोई न कोई वजह नाराज होने की ...या तुम कैसे बदल लेती हो आग को पानी में और जमा कर लेती हो आँखों में .....यह स्त्री मन के सहज भाव हैं .जो पुरुष ह्रदय की कलम से निकले हैं ..यही उनकी लिखने की कला ने मुझे उनके ब्लॉग पर पढ़ी एक रचनाओं ने बहुत प्रभावित किया था जिस में कुछ कि पंक्तियाँ .मैं,महसूस करता हूँ कि/वो सारे सवाल /जो नही कर पाये, जो जी में आया रात को बिखरने लगते हैं/तुम्हारे तकिये पर और तलाशते हैं वजूद अपना ...वो महसूस करने वाला जादू उनके इस काव्य संग्रह में नहीं दिखा ...जो पाठक उनको नियमित रूप से पढ़ते हैं .और यदि उन्होंने मुकेश जी कि लिखी "देह होने का भ्रम "..."सपनों का सैलाब "आदि जैसी रचनाओं को पढ़ कर उस जादू को महसूस किया है तो वह मायूस होंगे .इस तरह की रचनाये बहुत ही कम है उनके इस संग्रह में | आने वाला संग्रह वह इसी विषय पर निकालें यह मेरा उन से विशेष अनुरोध होगा |
             कवि मन है जहाँ नयी जगह गया वहां नया रच भी डालेगा .यही उनकी मुंबई पर लिखी रचनाओं में ."यह है मुंबई मेरी जान "और "मुंबई की एक शाम "में नजर आएगा | कई रचनाये बिलकुल सपाट सी हैं ..असर अधिक नहीं नहीं छोड़ पाती है जैसे "सतही तौर पर .."और "नाक पर सवाल हुए प्रश्न ."आदि ..कविताएं बहुत उधेड़ बुन सी बुनावट में लिखी गयी है जो अपनी बात स्पष्ट नहीं कह पाती हैं ..पर इस तरह की रचनाओं की संख्या कम है | अधिकतर रचनाये अपनी छाप छोड़ने में सफल हुई है |"शब्दों की तलाश में "भटकता मन आगे और जाएगा अभी तो यह यात्रा की शुरुआत है ..आगाज इतना सुन्दर है तो अंजाम निश्चय रूप से बहुत ही हरियाला होगा ..अपने कवर पृष्ठ की तरह जिस पर बने पग चिन्ह और चेहरों के भाव वाकई यह आभास करवाते हैं कि तलाश..... तलाश और तलाश .शब्दों की ..........भावों की.... अभिव्यक्तियों की और खुद की इन शब्दों में ..इन में लिखी पंक्तियों में ...नहीं पढा है आपने यह काव्य संग्रह तो जरुर पढ़े .यह आपको अपने साथ "शब्दों की तलाश में :के अनूठे सफर में चलने के लिए बेबस कर देगा |



Monday, August 13, 2012

वक़्त

भागता दौड़ता वक़्त
बहुत ही मिन्नतों से
एक पल के लिए आया था
मेरी मुट्ठी में
ठीक किसी गीले बादल सा
और छोड़ गया
अपनी नमी मेरी हथेलियों से
आँखों की उपरी पलकों में
न जाने कहाँ गया
वह छोटे से
हसीन वक़्त का
  छोटा सा टुकड़ा !!!!

रंजना (रंजू ) भाटिया .
१३ अगस्त १२

Thursday, August 09, 2012

दर्द की महक ..पुस्तक समीक्षा

दर्द की महक (कविता-संग्रह)
कवयित्री- हरकीरत हीर
कवयित्री हरकीरत हीर की नज़्मों का संग्रह
मूल्य- रु 225
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिकार्ट पर खरीदने का लिंक


"न जाने कितनी खामोशियाँ आपसे आवाज़ मांगती है
न जाने कितने गुमनाम चेहरे आपसे पहचान माँगते हैं
और एक आग आपकी रगों में सुलगती है ,अक्षरों में ढलती है"

           दर्द की महक हरकीरत हीर द्वारा लिखित यह काव्य संग्रह अमृता की लिखी इन्ही पंक्तियों को को दर्शाता है ..दर्द की महक जब अक्षरों में ढलती है तो वह दूर तक फ़ैल जाती है .चाहे वह किसी रूप में भी क्यों न लिखी गयी हो चाहे वह कितनी भी दबाई गयी क्यों न हो ..वह तो बस महक जाती है |वैसे भी जब जब मैंने हीर जी का लिखा पढा है तो दर्द और हीर एक दूजे के साथ साथ ही चलते लगे मुझे ...और दर्द को इन्होने बहुत अच्छे से लफ़्ज़ों में ढाल कर औरों के दर्द को भी एक सकूं इस तरह से दिया है कि सबको उस में अपनी बात नजर आती है ..
                   अमृता इमरोज़ को समर्पित यह संग्रह पूरी तरह से यह दर्शाता है कि लेखिका का दिल का हर कोना अमृता के रंग में रचा बसा है ...कहीं कहीं पढ़ते हुए ऐसा लगा कि अमृता खुद हरकीरत जी की कलम से बोल उठी हैं ...इस संग्रह का पहला पन्ना ही बहुत विशेष ढंग से अपनी बात की शुरुआत करता हुआ लगता है ..इमरोज़ जी को फ़ोन लगाती हूँ ..और वह जवाब में जो नज्म भेज देते हैं ..वही हरकीरत जी की पहचान करवा देते हैं ..न कभी हीर ने /न कभी रांझे ने /अपने वक़्त के कागज पर अपना नाम लिखा /फिर भी लोग न हीर का नाम भूले /न रांझे का ...हीर तुम्हारी नज्मे खुद बोलती हैं उन्हें किसी तम्हीद (प्रस्तवना )की जरूरत नहीं .......और बस वहीँ से हीर जी के व्यक्तित्व का ,उनके लेखन से जैसे पढने वाला खुद बा खूब रूबरू होने लगता है |
              इस काव्य संग्रह में जैसे जैसे आप पन्ने पलटते जाते हैं एक बात अपनी तरफ जो खींचती है वह है ऊपर लिखी पंक्तियाँ ,जो लिखी हर रचना से जुडी हुई हैं और नीचे लिखी वह टिप्पणियाँ --जो हीर जी के ब्लॉग पर पढ़ते हुए उनके पढने वाले चाहने वाले देते रहे हैं ,उन्हें साथ पढ़ते पढ़ते हुए जैसे आप एक सफ़र में खोये हुए मुसाफिर सा खुद को महसूस करते हैं जो हर भाव में हीर जी के साथ चल रहा है | यही हीर जी के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह आपको उन शब्दों से और पढने के बाद उन शब्दों के जादू से रिहा नहीं होने देती ..और आप पढने के बाद खुद भी गुनगुना उठते हैं ठहर ऐ सुबह /रात की सांसे रुकी हैं अभी /टांक लेने दे उसे मोहब्बत के पैरहन पर /इश्क का बटन .....पर हीर जी वही अगली नज्म में खुदा से सवाल कर बैठती है कि रब्ब तेरी बनायी मोहब्बतों की मूरत क्यों इंसानी मोहब्ब्बत से महरूम है ...यही तो सच है सबसे बड़ा आज के समय का ..मोहब्बत बिखरी है दुनिया में यह दिल फिर भी तरसता है .....मोहब्बत जो दवा भी है ,दर्द भी ,सकून भी और बेकरारी भी ,करार भी है ,बेताबी भी ...और मासूम भी ...वो मुस्करा के पूछता डेयरी मिल्क या किट-कैट?वो खिलखिला के कहती किट कैट .और वो उदास हो जाता ..हीर जी की लिखी यह नज्म मोहब्बत सीधे दिल में उतर जाती है ...और करवाचौथ नज्म------------ नज्म में आखिरी पंक्तियाँ वह धीमे से /रख देती अपने तप्त होंठ उसके लबों पे /और कहती है ..आज करवाचौथ है जान ..खिड़की से झांकता चौथ का चाँद होले होले मुस्कारने लगता है और इस नज्म के यूँ पूरे होते होते पढने वाले की आँखों में नमी आ कर रुक जाती है ...और कोई दर्द आगोश में जैसे दरकने लगता है ...धीमे से यह कहते हुए ..मैं हूँ न तेरे पास ........हीर जी कि लिखी नज्मे अपने में मुक्कमल है पर कहीं कहीं ऐसा लगता है मन में अभी भी कुछ भरा हुआ है .सहमा हुआ है .रुका हुआ है ..ख़ामोशी के लफ्ज़ हैं यह जो चुपके चुपके बहाते हैं आंसू ख्वाइशों कफन ओढ़े ...
                      दर्द हीर जी की कलम से हर अंदाज़ में ब्यान हुआ है चाहे वह पति पत्नी के नाजुक रिश्ते पर हो .चाहे फिर रात की उदासियों का ज़िक्र हो ..या फिर वह तवाइफ़ का दर्द हो ...लालटेन की धीमी रोशनी में /उसने वक़्त से कहा -मैं जीवन भर ले तेरी सेवा करुँगी मुझे यहाँ से ले चल /वक़्त हँस पड़ा /कहने लगा मैं तो पहले से ही लूला हूँ /आधा घर का आधा घाट का ...और यह पढ़ते ही वक़्त वहीँ थम जाता है ..अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट ..हिंदी पंजाबी साहित्य में एक अदभुत कहानी है और वह हीर की कलम से भी ब्यान हुई है ..क्यों वह सिर्फ अमृता की कहानी नहीं और भी कई औरतों की कहानी है ...जिसे देख कर मिटटी भी रोई आज नसीब अपना /के इसी कोख से ये सदाकत जनी है ........और इस बात को कुछ इस नजर से देखना है तो देखना रिश्तों की इन गहराई को अदालत में जा कर जहाँ हर रोज़ न जाने कितने रिश्ते /जले कपड़ों में देते हैं गवाही
            असम में जन्मी हीर के लेखन में अमृता का प्रभाव बहुत ही अधिक है .वह अपना जन्मदिन भी ३१ अगस्त को अमृता के जन्मदिन वाले दिन ही मनाती है और .दर्द की महक तो समर्पित ही इमरोज़ -अमृता को है ..इसी संग्रह के लिए उन्हें मेघालय के उप-मुख्य मंत्री श्री बी. ऍम . लानोंग के हाथों सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | ब्लॉग जगत में तो सबकी प्रिय वह हैं ही ..उनकी किताब दर्द की महक में नीचे आये टिप्पणियों में कई नाम यह बताते हैं कि उनके लिखे दर्द में हर किसी को अपना दर्द महसूस होता है और वह उसी नज्म में खो कर रह जाता है | संजो के रखने लायक संग्रह है यह ..मैं अमृता को बहुत गहरे से पढ़ती हूँ ...पर यहाँ हीर का लिखा पढ़ कर मुझे भी दोनों में अंतर करना मुश्किल लगा ..कि यह हीर ने लिखा या अमृता ने खुद .अब इस को उपलब्धि भी मान सकते हैं और कमी भी ..क्यों कि मैं हीर को अमृता से अलग कर ही नहीं पायी मैं कई नज्मों में |इस संग्रह का विमोचन प्रगति मैदान बुक फेयर में हुआ था जहाँ उस दिन मुझे खुद के न जा पाने के अफ़सोस है पर अब जब यह महक मैं पढ़ चुकी हूँ तो लगता है वही तो थी मैं भी ....इमरोज़ के ख़त के साथ इस संग्रह के आखिरी पन्ना हीर के इस संग्रह की समाप्ति जरुर कहा जा सकता है पर यही आगाज भी है उस अगले सफ़र का जहाँ हीर फिर से अपने लिखे दर्द की महक से हमें रूबरू करवाती हुई कहेंगी ..अभी तो मेरी इन आँखों ने वक़्त के कई पन्ने पढने हैं /जहाँ रिश्तों के धागे /दर्द की दरगाह पर बैठे अपनी उम्रे गिनते हैं ....आप यदि इसी महक से मिलना चाहते हैं तो इसी संग्रह से रूबरू हो .जो दर्द के काले रंग में लिपटा अपनी गुलाबी गुलाब की कली से मोहित करता हुआ आपको अपने ही अन्दर कहीं गहरे में उतार लेगा और आप खुद को पढने के बाद भी उसी के सम्मोहन में जकड़ा हुआ महसूस करेंगे |



Sunday, August 05, 2012

दोस्ती का रिश्ता

तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छू गया
दोस्ती मोहब्बत की हद तक गई
मोहब्बत इश्क की हद तक
और इश्क जनून को हद तक ॥

अमृता इमरोज़ की दोस्ती पर कही यह पंक्तियाँ दोस्ती की परिभाषा को और भी अधिक गहरा रिश्ता बना देती है ...दोस्ती लफ्ज़ ही ऐसा है जो दिल के अन्दर तक अपना वजूद कायम कर लेता है यदि दोस्ती सच्ची और गहरी है तो .... वैसे तो सभी रिश्ते अपना अपना स्थान ज़िन्दगी में बनाए रखते हैं ...पर दोस्ती का रिश्ता सबसे अलग होता है क्यों कि यह बना बनाया नहीं मिलता हमें इसको बनाना पड़ता है और फिर यदि दोनों और से दिल मिल जाए तो यह ता -उम्र निभाया जा सकता है ....कोई खून का रिश्ता नहीं होता यह फिर भी बहुत प्यारा और हर दिल अजीज होता है ..

दोस्ती का रिश्ता बहुत नाजुक होता है ,एक जरा सी ग़लतफ़हमी इस रिश्ते को तोड़ के रख देती है और जहाँ विश्वास नहीं रहता वहां यह यह रिश्ता भी आगे नहीं पनप सकता है ...बड़े बड़े वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि जिनके दोस्त होते हैं वह एक लम्बी स्वस्थ उम्र जीते हैं ...आखिर कहीं तो तो कोई हो जिस से आप अपने दिल की बात बेहिचक कह सके सुन सकें ..जिनके पास दोस्त नहीं वह बहुत अकेले और तन्हा होते हैं ..अब यह आपके ऊपर है कि अपने स्वभाव से आप कैसे दोस्त बनाते हैं और उस दोस्ती को कैसे निभा पाते हैं ...
दोस्ती जब भी करें दिल से करे और उस में विश्वास बनाये रखे ...अगर आप चाहते हैं कि आपका दोस्ती का रिश्ता कायम रहे तो एक दूजे की निजी बातें अपने तक ही रखे उसको सार्वजनिक न करें ..."इगो "का दोस्ती में कोई स्थान नहीं है ..यह दोस्ती को तोड़ देता है जहाँ अहम् है वहां दोस्ती आगे नहीं बढ़ सकती है ...दोस्ती की परिभाषा में एक दूजे के सुख दुःख बाँटना भी आता है जहाँ तक संभव हो सके एक दूजे का सुख दुःख बांटने की कोशिश करनी चाहिए ...पर यह ध्यान रहे कि हर व्यक्ति की अपनी एक निजी ज़िन्दगी होती है उस में अधिक दखल अंदाजी न हो जितना स्पेस आप एक दूजे को देंगे उतनी दोस्ती अधिक निभेगी ..यह हर रिश्ते के लिए जरुरी है ..कि हर कोई अपनी मर्जी से जीए ...हाँ इस बात का ध्यान हमेशा रहे कि सच्ची दोस्ती वही है जब लगे कि दोस्त गलत रास्ते पर जा रहा है तो उसको एक बार कम से कम सुधारने की बताने की  कोशिश जरुर करें ...यह बात आपके साथ भी लागू होती है यदि आपका दोस्त आपकी कोई गलती को समझ रहा है और उसको समझाने कि कोशिश करता है तो उसकी बात समझे ....

दोस्ती को मजबूत बनाए रखने के लिए कोई गलती खुद से महसूस करे तो उसी वक़्त उसको समझ कर एक दूजे से माफ़ी मांग ले और बात चीत बंद न करें ,क्यों कि जहाँ आपसी बात चीत कम हो जाती है वहां रिश्ता टूटने में अधिक देर नहीं लगती है ...एक दूजे के समय की  कद्र करें ...यह थी कुछ दोस्ती की बातें जिनको आप दिल से निभाएंगे तो दोस्ती गहरी रहेगी और लम्बी चलेगी ..किसी भी छोटी सी ग़लतफ़हमी की वजह से इस खूबसूरत दोस्ती को न खोने दे .|

रंजू भाटिया

Friday, August 03, 2012

शब्दों के अरण्य में


शब्दों के अरण्य में (कविता-संग्रह)
संपादन- रश्मि प्रभा
60 कवियों की श्रेष्ठ रचनाएँ
मूल्य- रु 200
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिकार्ट पर खरीदने का लिंक


शब्दों के अरण्य में ...शब्दों के जंगल में ...हर रंग  में बंधे हुए शब्द ,रश्मि प्रभा जी का संपादन हिंद युग्म का प्रकाशन जब मैंने पढा तो अनायास यह सवाल दिल में आया कि कौन कहता है कि ....हिंदी कविता का वजूद अब कहीं गुम हो रहा है ..?जब तक इतने लिखने वाले हैं तो हिंदी कविता का पढना कहाँ खो सकता है ? हिंदी कविता ने एक  लंबी यात्रा तय की है.. आदिकवि से आज तक |बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक आते आते दुनिया ने अपना चोला तेज़ी से बदला है और नेट की दुनिया में "ब्लॉग क्रांति" ने इस विधा को और भी मुखर कर दिया है ..वह भावनाएं ,वह कलम वह जज्बात जो कहीं  डायरी के पन्नो में या रसोई घर के चूल्हे की  आंच में खो रहे थे उन्हें एक नया रास्ता दिया ..अपने दबे हुए शब्दों को मुखर होने का..और रश्मि प्रभा ,हिंद युग्म के प्रकाशक शैलेश भारतवासी (जिन्होंने हिंदी को घर घर पहुंचाने का एक सपना देखा है )जैसे लोगों ने एक उत्साह भर दिया है कविता में अपनी भावनाओं को कहने का और सब तक पहुँचाने का और यह सिलसिला अब थम नहीं सकता .जैसा कि रश्मि प्रभा जी ने शब्दों के अरण्य की  भूमिका में कहा है कि यह अरण्य हम सब का है ..आगे बढ़ने का प्रयास जारी है |
            अरण्य ,जंगल लफ्ज़ ध्यान में आते ही
कई तरह के वृक्षो ,पौधो ,और अलग अलग फूलों की खुशबु का एहसास होने लगता है ..दिल खोने सा  लगता है उस के उस वातावरण में और जानने  की जिजीविषा और भी बढ़ जाती है ..अब आगे क्या ....?ठीक उसी तरह से जब आपके हाथ में यह शब्दों का अरण्य आयेगा तो पढने वाला भी इसी एहसास से रूबरू होगा ...|
               कविता साहित्य की आत्मा कही जा सकती है ..अपने मन के भावों को सही तरह से कहने का एक सशक्त  माध्यम ..हर किसी का दृष्टिकोण इस में अलग अलग हो सकता है जो पढने वाले को अलग अलग मायने दे जीवन की तरह .जैसा अंजू अनन्या ने अपनी कविता दृष्टिकोण में कहा और कविता विधा भी साहित्य में उस सच की आत्मा की तरह है ..जो कभी मर नहीं सकती खत्म नहीं हो सकती ..इसी सच और झूठ के अंतर को अपनी कविता में अनुलता ने बखूबी  ब्यान किया है ..जब भावनाएं मुखरित हुई तो कहाँ वह थम पाती है और वह कह उठती है अवन्ती सिंह के लफ़्ज़ों में कि अब मैं कविताओं के प्रकार बदलने लगी हूँ इनका संसार बदलने लगी हूँ ... ..........बदलिए बदलिए बस उन्हें दिल में दबा कर नहीं रखना है .पर कविता हमेशा गंभीर हो यह कैसे हो सकता है ..अश्वनी कुमार से कविता मिल कर कहते  है कि आ ही गए अब तो बातें कर लो दो चार ....पर  मुस्कराना मत छोड़ना ...और यही मुस्कान फिर उडान भरने लगती है डॉ विजय कुमार के लफ़्ज़ों में ...उनकी कविता में मेरी उडान के माध्यम से ..इन्ही लफ़्ज़ों की उडान में हम मुखातिब होते हैं डॉ जयप्रकाश तिवारी की कविता से जहाँ उनका सवाल है कि इंसान ने बादलों को बनाया या बादल ने इंसान को ?सवाल अहम् है यह |         और अभी इसी में मन उलझा है कि निखिल आनंद गिरी को जो सजा मिली है माँ से बहुत दिनों बाद लौटने की वह बरबस दिल को छू लेती है उनके लफ्ज़ काश ! कागज के इस पुल पर /हम तुम मिलते रोज़ शाम को .बिना हिचक .बिना बंदिश के साथी ..और वह नज्म अधूरी ही थी जो अन्य समान के साथ  माँ के हाथो अनजाने में बिक गयी  ..दिल अभी  उसी सजा से उदास ही है   कि प्रत्यक्षा के लिखे शब्द अपने अन्दर के जंगल में वहां खड़ा कर देते हैं जो हमारे अन्दर ही अन्दर पनप रहा है कंटीली झाड़ियों की बाड़ में जहाँ बाहर की  धूप भी अन्दर आने से बहिष्कृत हो चुकी है ..पर मन की उडान ,भावनाओं की उडान को कहाँ कोई रोक पाया है ..वह तो बाबुषा कोहली की रचना के जूते   फाह्यान की आत्मा के पैरों  में कहीं अटके  है जिसका चलना ही धर्म था  ..इसी गहरे दर्शन में बंधा मन अजीब तरह से छटपटा उठता है और तलाश करता है खुद को मुकेश कुमार सिन्हा की कविता हाथो की  लकीरों के दर्शन में  जहाँ वह कह रहे हैं कि जहाँ चाह है वहीँ राह है और कोशिश करने से मेहनत करने से इंसान तकदीर से ऊपर उठ सकता है |ईश्वर को हर बात का दोषी बनाना ठीक नहीं है क्यों कि रब भी उलझता है करवटें बदलता है आपकी हर पीड़ा में हर मानसिक द्वन्द में ...........रश्मि प्रभा की यह रचना तथास्तु और सब ख़त्म में यह बात बखूबी समझाती है |
       हिंदी कविता के ब्लॉग युग में महिलायें अपनी पुरजोर भावनाओं के साथ अपनी कलम चलाती नजर आई है |यही बात इस शब्दों के अरण्य में भी देखने को मिली ....महिलाओं के लेखन में उनसे जुडी बातें उनकी ज़िन्दगी का रूबरू होना इस  जगंल में बखूबी  दिखाई दिया है |   गार्गी चौरसिया उस रिश्तों को अनमोल बता रही है जो सच्ची मुस्कराहट से आत्मा से जुड़े हो .और डॉ जेन्नी शबनम अपने लफ़्ज़ों से ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत श्राप दे रही है यह कहते हुए कि जा तुझे इश्क हो ...ताकि उस दर्द को महसूस करो तुम ...वहीँ निधि टंडन व्यस्त हैं प्यार में क्यों कि प्यार हमेशा व्यस्त रहने का नाम है |पल्लवी त्रिवेदी के लफ़्ज़ों में बचपन हमेशा हर इंसान में जीवित रहता है और यह रहना भी चाहिए क्यों कि यही बचपन यदि खो गया तो इंसान अपनी मासूमियत खो देगा .|
       महिलाओं की कलम बखूबी समाजिक विषयों पर भी बखूबी चली है ..ऋतू शेखर मधु वृक्षों के संहार पर चिता व्यक्त करते हए कहती है कि अगली पीढ़ी जब जीवन के मूल आधार छीन लेने का जवाब मांगेगी तो क्या जवाब होगा तब ...?वहीँ वंदना गुप्ता औरत को सिर्फ नुमाइश का विषय बनाए जाने पर श्राप दे रही है |वाणी शर्मा औरत को मिले हुए वरदान से खुद को सम्पूर्ण   पा रही है जब उनकी गोद में नन्ही कली आ कर मुस्करायी तब जैसे ब्रहमांड उनकी गोद में समा गया | इन्हीं रचनाओं के बीच में शिखा वाष्णेय मीनाक्षी धन्वन्तरी ,रश्मि रविजा ,रमा द्विवेदी  और हरकीरत हीर की  रचनाये अपने विशिष्ट अंदाज़ से अपने होने का एहसास करवाती है |जहाँ हम उनके साथ उन्हें पढ़ते हुए "काली काफी में उतरती सांझ "और "रात के साए में कुछ पल "तलाशते हुए ,व्यक्तित्व को समझते समझाते हुए "शून्य की यात्रा" पर निकल पड़ते हैं और इस यात्रा को समाप्त करते हुए कहते हैं "मुक्त करते हैं तुम्हे हर रिश्ते से" ...यह अंदाज़ है ऊपर लिखी रचनाओं की  लेखिकाओं की उन विशेष भावनाओं का जिन से आप खद भी खुद जुड़ना चाहेंगे|
              माला के मोती की तरह इस शब्दों की माला में भी हर रचना अपने आप में मुक्कमल है |हर मोती को यहाँ इस समीक्षा में समेटना बहुत ही कठिन कार्य है पर यह तय है कि रश्मि प्रभा जी ने जो यह शब्दों के अरण्य में शब्दों को पिरोया है वह बहुत ही हरा भरा है जिस में हर रंग के फूल पत्ते समेटे हुए हैं |कहीं कहीं कोई कविता अधिक बोझिल हुई भी है तो अगले ही पल दूसरी कविता ने उसको संभाल लिया है |  शब्दों के जंगल में शब्दों का यह पहला पडाव हैं .और कहीं कहीं उलझा हुआ  भी दिखाई देता है  पर अपनी मंजिल की और आगे बढ़ने को प्रयत्नशील  है |इन्ही अरण्यों में रची गयी हैं कई गाथाएँ .पंचतंत्र .रामायण ,वेद आदि की और इस  शब्दों के जंगल में रची गयी हैं यह रचनाएँ जो हर भाव से आपको परिचित करवाएंगी |
            इस संग्रह में  आज की कवितायें हैं जो आज के समाज को दर्शाती है ..इन रचनाओं में  भोलापन और प्रकृति से निकटता देखने को मिलती है वहीं  बदले हुए इस समाज की आवाज़ भी सुनाई पड़ती है |जहाँ नयी पीढ़ी जैसे नित्यानंद ,अमित आनन्द पाण्डेय ,डॉ कौशलेन्द्र मिश्र ,आदि भी सजग है अपने समाज के प्रति पर्यावरण के प्रति|वहां ब्लॉग जगत के चर्चित नाम समीर लाल जी ,दिगम्बर नासवा ,लावण्या शाह ,संगीता स्वरूप ,साधना वेद आदि के साथ साथ बहुत से नाम और भी शामिल है ,जो अपनी कलम से उतरे जज्बातों और भावनाओं से अपनी बात कहते नजर आते हैं जिन्हें आप अवश्य -अवश्य पढना चाहेंगे| इस किताब में सबसे ख़ास बात जो लगी वह यह कि हर लेखक /लेखिका का परिचय बहुत सुन्दर ढंग से उनकी लिखी हर रचना के साथ दिया गया है जो उनके परिचय के साथ साथ रचना के अक्स को भी ब्यान कर देता है |साथ में ही नीचे सुन्दर ढंग से लिखे शब्द "शब्दों के अरण्य" में आपको वहीँ ठहरने का जैसा निमंत्रण देते नजर आते हैं |
       आवरण चित्र अपराजिता कल्याणी का है|अपने सुन्दर रंग रूप सज्जा से सुज्जित यह शब्दों का अरण्य --
साठ लेखक /लेखिकाओं का साथ आपको शब्दों के जंगल में खो देने पर मजबूर कर देगा, और अपने अगले सफ़र में आपसे खुद से इसका हमसफर बनने का वायदा भी ले लेगा ..और यदि मेरी की गयी इस समीक्षा से आप उत्सुक हो गए हैं शब्दों के इस अरणय में खोने के लिए तो इसको आप फ्लिप्कार्ट से ले सकते हैं |

इसको  समीक्षा को आप यहाँ भास्कर भूमि में  भी पढ़ सकते हैं .................