Tuesday, July 31, 2012

गुजरती ट्रेन


घर के
सामने से
गुजरती ट्रेन
कर देती है
नींद का क़त्ल
और क्षत-विक्षित
मन की उलझनों को,.....
जिन्हें सुलाया था
मुश्किलों से......
दर्द से कहराता
और फिर भटकता
रहता है
उनींदा से ख्वाब लिए
मेरा बंजारा मन
सुबह होने तक
फिर से एक नयी जंग के लिए...

मेरे घर के सामने से हर वक़्त ट्रेन जाती रहती है ..दिन में तो अधिक नोटिस नहीं लिया जाता आदत है ..पर रात को गुजरती ट्रेन अक्सर कई कवितायें लिखवा देती है :)

Friday, July 27, 2012

अर्पिता .....पुस्तक समीक्षा

अर्पिता (कविता-संग्रह)
कवयित्री- सीमा सदा
मूल्य- रु 200
प्रकाशक- हिंद युग्म,
1, जिया सराय,
हौज़ खास, नई दिल्ली-110016
(मोबाइल: 9873734046)
फ्लिकार्ट पर खरीदने का लिंक
अर्पिता .....

सीमा सिंघल जी का यह काव्य संग्रह मुझे पुस्तक मेले में शैलेश भारतवासी द्वारा मिला ...तब से अब तक मैंने इस काव्य पर समीक्षा करने लिए खुद को कई बार तैयार किया ..पर यह काव्य संग्रह ऐसा काव्य संग्रह नहीं है कि एक बार में पूरा पढ़ कर इस पर कुछ लिख दिया जाए ...इस में लिखी हर रचना अपने में आत्मस्त कर लेती है और धीरे धीरे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है ...सीमा जी का लिखा हुआ सबसे पहले मैंने उनके ब्लॉग लाडली में पढा उस ब्लॉग पर उनकी लिखी पंक्तियाँ "मन को छू लेते हैं अक्‍सर वो पल, जब कोई नन्‍हीं कली आपके जीवन, में लाती है खुशियां अनगिनत .. आंगन में बहारें होती हैं हर तरफ बस एक रागिनी होती है जो मन को भावविभोर कर देती है बिटिया जीवन को .."उनका बेटियों के प्रति संवेदनाओं को दर्शा दिया ...और फिर तब से उनके लिखे को लगातार पढने का सिलसिला चल पढ़ा .और जब उनका यह प्रथम काव्य संग्रह हाथ में आया तो दिल को बहुत ही ख़ुशी हुई ..शायद उतनी ही जितनी खुद सीमा जी को यह अपने हाथ में पहली बार लेते हुए हुई होगी ..क्यों कि  मेरा मानना है की   ज़िन्दगी की हर पहली बात बहुत ही ख़ास और बहुत ही प्रिय होती है ..और खुद के  लेखन का पहला संग्रह तो प्रथम शिशु की ही तरह मासूम होता है ..जो आगे लिखने के साथ साथ निरंतर और भी परिपक्व होता जाता है ।
          
        सीमा जी अपने ब्लॉग  को सदा के नाम से लिखती है ...और लिखी रचनाये मुझे इनके नाम की तरह सहज और सदाबहार सी लगी ..अब आते हैं अर्पिता इनके काव्य संग्रह पर ..सीमा जी की लिखी हुई रचनाये अधिकतर छंद मुक्त हैं जिस में ज़िन्दगी से जुडी सच्चाई से जुडी बातें हैं जो आम ज़िन्दगी में सहज घटती है और उतनी ही सादगी से यह इस में ब्यान है ....पहली ही रचना .फिर से जी लूँगी ..में सीमा जी ने सहजता से बेटी के रूप में खुद के बचपन को फिर से जी लेने की बात बहुत ही सहजता से लिख दी है जिस में अपने बचपन को ढंग से न जी पाने की शिकायत भी आ गयी है
मैं अपना बचपन
फिर से जी लूँगी
तू आ जायेगी तो
मिल जायेंगे सारे झगड़े

...पढ़ते पढ़ते पाठक खुद भी इसी बात से खुद को जुडा हुआ पाता है ...

            सीमा जी के इस काव्य संग्रह को मैंने पढ़ते हुए चार हिस्सों में बँटा हुआ पाया ..पहला हिस्से इस पुस्तक संग्रह में माँ के प्रति समर्पित लगा ..बहुत ही भावपूर्ण तरीके से इन्होने माँ से जुड़े रिश्ते को हर तरीके से व्यक्त किया है
माँ लगता है ईश्वर ने
दुआओं की पोटली
तुम्हारे साथ भेजी है
जिसको तुम
सिर्फ अपने
बच्चो के लिए ही

खोल सकती हो ..

माँ से जुडी हर कविता बहुत ही भावुक कर देती है और हर शब्द यही कहता प्रतीत होता है माँ कैसे तुम्हे एक शब्द मान लूँ/दुनिया हो मेरी पूरी तुम ....माँ से जुडी हर अभिव्यक्ति हर पढने वाले पाठक को अपनी ही बात कहती हुई लगती है ।
             सीमा जी के इस काव्य संग्रह में दूसरा हिस्सा यादों से जुडा हुआ है ....याद पर लिखी इनकी लिखी इस काव्य संग्रह में श्रृंखला वाकई यादों की बस्ती में ले जाती है ...यादों के रंग में डूब जाता है ...यादे मन से जुडी रहती हैं /मन इनसे जुडा रहता है /हर ख्याल से जुडी होती है एक याद ..कभी बचपन /कभी जवानी .अपनों और बेगानों की ..सच ही तो है .यह यादें ही हमें ज़िन्दगी में खट्टे मीठे अनुभव कराती रहती है ...याद इक न रुकने वाला सिलसिला जिस पर किसी का जोर नहीं चलता है ....यादें जो गुमसुम भी कर देती है .आँखों में आंसू भी भर देती है और कभी खिलखिलाने मुस्कराने पर विवश कर देती है ....पर कहीं कहीं यह यादें बोझिल सी भी प्रतीत होने लगती है और विचारों में एक रुकावट सी बनाने लगती है ।
                 इस काव्य संग्रह के तीसरे हिस्से के रूप में मैं इसको सामाजिक चेतना ,देशभक्ति से जुडा हुआ पाती हूँ ..एक कवियत्री होने के नाते वह इस विषय से अछूती रह भी कैसे सकती है ...इस विषय पर उनकी कलम बहुत सशक्त हो कर चली है "दो बूंद "कविता इसका बहुत सुन्दर उदाहरण है .....  रिश्तों के रंग न बढ़ते हैं / न घटते हैं /वो तो उतना ही उभरते हैं .जितना हम अपनी मोहब्बत का रंग उन में भरते हैं ......आज के समय की यह बहुत बड़ी सच्चाई है ...जो उनकी लिखी इस तरह की रचनाओं में उभर कर आई है ....और देशभक्ति से जुडी उनकी गजल पढ़ते ही दिल में एक उमंग का संचार हो जाता है ..न ये तेरे न मेरा है भारत हर हिन्दुस्तानी का/रंग रंग के खिलते फूल जहाँ ये है वो चमन

                इस के चौथे हिस्से को गजल और कुछ दिल से जुडी भावनाओं से जुडा पाते हैं ....जवाब देने तक ...तेरी शिकायत ..कैसा है यह प्यार ..और मेरा नाम मत लिखना ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया ...हथेली पर तुम मेरा नाम मत लिखना /कोई पढ़ न ले /बंद कर लोगी मुट्ठी को सबसे छिपाओगी ..बहुत ही मासूम और सादगी से भरी पंक्तियाँ है जो अनायास ही पढ़ते ही एक मुस्कान भी चेहरे पर ला देती है ..
गजल वाला भाग इस काव्य संग्रह का सबसे अहम् हिस्सा है ..जहाँ एक से बढ़ कर एक शेर अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कहते हैं ..टूटना शुभ होता है कांच का ...बेहतरीन गजल कही जा सकती है इस संग्रह में सीमा जी की .बाकी गजले में अपने आप में मुकम्मल है ...जो अपनी सरलता से पाठक के दिल में घर कर लेती है ...चंद रोज़ का मुसाफिर है हर आदमी यहाँ /जिसने जो दिया उसको वही तो मिला है ....हर पढने वाला इस तरह के लिखे से खुद को जोड़ लेता है ..अमृता प्रीतम जी पर लिखी अमृत की बूंदों सी ..इमरोज़ की यादों में समाई अमृता की सही तस्वीर को ब्यान करती है ..और तेरे ख्यालों में सदा देते रहे दस्तक वारिस शाह /किसी के ख़्वाबों में अमृता तू भी तो आई होगी ..ने तो मुझे इस में अपने होने का एहसास करवा दिया ..
           बस इस संग्रह में जो एक बात खली वह यह कि कविताओं को यदि गजल और यादों के हिस्से की तरह माँ और बाकी कविताओं को भी कुछ अलग से स्थान दिय होता तो पढ़ते पढ़ते जो एक गति थम जाती है वह न थमती ..जैसे हम उनकी एक रचना "ख्यालो में घर कर गए" पढ़ के उस में डूब ही रहे होते हैं तो अगली रचना फिर से माँ पर आ जाती है फिर उस से अगली "कैसा है यह प्यार ."..यह पढने में कहीं अटका सी देती है ...यह मेरा ख्याल हो सकता है .बाकी हो सकता है कि किसी अन्य पाठक को पढ़ते हुए न लगे ....सीमा जी का यह प्रथम काव्य संग्रह अभी उनके लिखे की प्रथम सीढ़ी है ..जो निरंतर आगे बढ़ने की और अग्रसर है | जैसे जैसे उनका लेखन आगे बढेगा वैसे वैसे इस में और भी निखार देखने को मिलेगा ...वैसे भी हर किसी का लेखन उसकी अपनी भावनाओं का आईना होता है जिस में हम खुद को लिखने वाले के साथ देख सकते हैं ,वैसे ही यह काव्य संग्रह सरल सहज और बहुत मनमोहक है जो आपके बुक शेल्फ की शोभा को और भी बढ़ा देगा और अपने अन्दर समेटी बहुत सी रचनाओं के साथ साथ खुद को भी परखने का मौका देगा ..इस के सुन्दर नीले उपरी आवरण के रंग में आप खुद को भी असीमित भावनाओं के समुन्द्र में डूबता पायेंगे और अर्पित हो जायेंगे इस अर्पिता के प्रति!
रंजना (रंजू ) भाटिया 

Wednesday, July 25, 2012

इजहार

सीखा जब से दिल ने धडकना
इस ने बस तेरी चाह में
जीना सीखा
सजाती रही ख्वाब
नजरे नजरों से मिल कर
और बीतेगा जीवन यूँ ही
इन्ही ख्यालों
में बस रहना सीखा

फिर चली
वक़्त की कुछ ऐसी आंधी
दिलो में दबा कर हर इजहार
आंसुओ को दबा कर
लबों ने  मुस्कराना सीखा
और ...
वक़्त गुजरता रहा
दिनों ,वर्षों और मौसमों को
पार करते हुए
पर जहाँ रुके थे कदम
उसी मोड़ पर दिल
ठहरा रहा
ज़िन्दगी नाम है
परिवर्तन का
यही बस दिल खुद को समझाता रहा

पर आज  दिल में आता है
कि वापसी की  एक लम्बी उडान भरूँ
छू लूँ  बीते वक़्त को
तोड़ दूँ हर रिश्ते रस्मों रिवाजों को
  और टूट कर प्यार करूँ
इजहार करूँ

पलट दूँ अपने जीवन के पन्ने सब
और लिख दूँ पत्थर की कलम से
समय के सीने पर नाम तेरा
और बाकी बची ज़िन्दगी
बस अब तेरे नाम करूँ ..!!!!


Friday, July 20, 2012

परिवर्तन का बोझ

परिवर्तन का बोझ ..यह विषय था इस बार शब्दों की चाक पर ...इस विषय पर लिखी है हास्य व्यंग कविता .पढ़ कर बताये की कैसा लगा यह प्रयास :)

तोडा नहीं है
बुढापे ने कमर को
यह तो अपनी बीते दिनों को
तलाश करने के लिए
हमने इसे  झुकाया है
दोस्तों समझना न
इसको  बोझ बदलती उम्र का
बस गुजरा ज़माना याद आया है

झाँका अब के जब
उन्होंने हमारी आँखों में
तो कहा मोतिया उतर आया है
कहा हमने
 करवाओ इलाज अपनी नजरो का
यह तो बीते दिनों को याद कर के
आंसुओं का झिलमिल साया है
समझना न
इसको  बदलाव  उम्र का
बस गुजरा ज़माना याद आया है

नहीं ला सकता है कोई
बीते दिनों को वापस
यह सोच कर दिल जो कभी मुरझाया है
तभी किसी ने  पलट के दी आवाज़
तो फिर से सारा माहौल गुनगुनाया है
बीते हर लम्हा  ख़ुशी का
दोस्तों की महफ़िल में
 दर्द को यूँ ही थपका थपका के सुलाया है
समझना न
इसको बदलाव  उम्र का
बस गुजरा ज़माना याद आया है !!

रंजना (रंजू) भाटिया 

Monday, July 16, 2012

आक्रोश

होंठो की चुप्पी में
दफ़न है
बर्फ हुए जज्बात
पथरी हुई आँखों में
ठिठके हुए सूखे हुए
बीते हुए मौसम के साए
वो गीत जो कभी
गुनगुनाये नहीं गए
पर न जाने क्यों
अब वह लावे से
धधकते सब हदें
पार कर देना चाहते हैं
और झर झर बहते
आक्रोश के रूप में बरसना चाहते हैं....


रंजू भाटिया 

Tuesday, July 10, 2012

कहो सच है न ?

तुम्हे मैंने
जितना जाना
बूंद बूंद ही जाना
तुम वह नहीं ,
जो दिखते   थे ..,

तुम्हे जान कर भी
अनजान रही मैं ....
दो रूपों में ढले हुए तुम
एक वह जिसे मैंने ..
रचा अपनी कल्पनाओं में ...
अपनी कामनाओं में ..
अपनी इच्छाओं के साथ
बुना और चाहा शिद्दत से
और ....
एक तुम वह थे
जो थे अपनी ही राह के
चलते मुसफ़िर
ज़िन्दगी में जो
एक पल मिलते हैं
और
दूसरे पल
कहीं ख़ामोशी से
खो जाने का
एहसास करवाते हैं
पर ..............
कहीं यादो से दूर नहीं जा पाते हैं ..( कहो सच है न ?)



चित्र गूगल के सोजन्य से  

Wednesday, July 04, 2012

बहाना जीने का

बीते कितने पल,
 लम्हे ज़िंदगी के
दिल के किसी तहखाने में क़ैद हैं
अभी भी वह अधलिखे पन्ने
कुछ अनमिटे से निशाँ
 पुरानी लाल डायरी के पन्नों पर 
यूं ही कुछ बिखरे लफ्ज़
जो आज भी जीवन के अक्स
को अपने आईने में दिखा जाते हैं

दबे हुए कुछ पुराने से किस्से
पक्की बनी इमारत में
आज भी किसी कच्ची मिटटी से
दरक कर अपनी आहट दे जाते हैं

बोझिल होती हुई हर पल साँसे
पर कहीं अभी भी दिल के कोने में
यौवन के मधुर निशाँ
और संजोये मीठे पलों की सौगाते
धड़क के दिल को जीने का संदेश दे जाते हैं

दबी हुई है बुझी राख में
अधलिखी  सी चिट्ठियां
और वह सूखे हुए गुलाब
आज भी
अपनी महक से प्रेम के हर पल को
जीवंत बना कर
एक और बहाना जीने का  दे जाते हैं .........