Monday, May 21, 2012

कविता समीक्षा


पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है "( बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -रंजू भाटिया
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रंजू भाटिया ,मोनालिसा की तस्वीर देख रही हैं !फिर खुद को देख रही हैं !मोनालिसा के होठों की मुस्कान और उसकी आँखों की उदासी को समझने की कोशिश कर रही हैं रंजू !मोनालिसा की आँखों में एक गुलाब है !होठों पर अंधेर...कम्पन या उसका उल्टा !होठों पर गुलाब या आँखों में अंधेरापन !होठों की रंगत कई भेद खोलना चाहती है !आँखों की उदासी अंधेरे को नए सिरे से परिभाषित करती है !सच क्या है ,झूठ क्या है !ये सिर्फ मोनालिसा के होंठ जानते हैं !कितनी रातों की नींद बाकी है !इसका हिसाब ,सिर्फ उसकी आँखों के पास है !रंजू ,मोनालिसा में खुद को देख रही हैं !मोनालिसा भी शायद रंजू को देखकर अपना दर्द ब्यान कर रही है !
बक़ौल रंजू ,मोनालिसा वो औरत है जो अपना दर्द या अपनों का दर्द पीकर के मुस्कुरा रही है !उसके होठो की एंठन बहुत कुछ कह रही है !उसके होठों की एंठन उसके दिलबर की जिद की वजह से है !उसकी आँखों में जन्मों की उदासी है ,तभी उसकी आँखें उनींदी सी हैं !होंठ और आँखें एक दूसरे के प्रतीद्वंद्वी हैं !तू ज्यादा उदास कि मैं !तेरे साथ हुई बेवफाई बड़ी या या मेरे साथ हुई ?मेरा सब्र बड़ा कि तेरा ?
रंजू कहती हैं कि मोनालिसा की मुस्कुराहट को सिर्फ मोनालिसा ही समझ सकती हैं !दर्द के साथ मुस्कुराहट कोई मोनालिसा से सीखे !बेहिसाब रातों की नींद साथ लेकर कोई आँखों को बिना झपकाए ,दिखाए !इस कविता में रंजू ,मोनालिसा हो गई हैं और मोनालिसा, रंजू !दोनों को अलग कर पाना मुश्किल है !ये कवि और कविता की सफलता है !
रंजू की दूसरी कविता बेटी को लेकर है !बेटी कमजोर नहीं है !अपने अधिकार जानती है !उसमें जंग जीतने का जज्बा है !इरादे पक्के हैं !आँसू पीकर जीवन नहीं बिताना है !आसमान को छूना है !
रंजू कहती हैं कि मुझे इस तरह अपनी बेटी के मार्फत मंजिल मिल जाएगी !मैं हमेशा से अग्नि परीक्षा देने वाली सीता हूँ !मैं दुर्गा हूँ पर गर्भ में आते ही चिंता का विषय बन जाती हूँ !कभी मुझे जला दिया जाता है ,कभी मॉडर्न आर्ट बनाकर दीवारों पर लगा दिया जाता है !ऐसे कितने ही सवाल रंजू के दिमाग में हैं !जिनको दुनिया से आजादी चाहिए ,पहचान चाहिए !रंजू रोष भरे लहजे में पूछती हैं कि आखिर मैं क्या हूँ ?डूबते सूरज की किरण ?बेबस चुप्पी ?माँ की आँख का आँसू ?बाप के माथे की चिंता की लकीर ? समंदर में डोलती हुई कश्ती ?पंख कितने भी बड़े क्यों ना हों ,फिर भी रंजू खुद को बेबस पाती हैं लेकिन अपनी बेटी की मार्फत अपनी मंजिल पा लेना चाहती हैं !
रंजू की कविताएं अगर नदी हैं तो पाठक उनमें तैरना भी चाहेगा , डूबना भी चाहेगा !कविताओं में साहित्यिक तपिश है !कविता पड़ते हुए कंटीन्यूटी बनी रहती है कविताओं में खुशबू है बशर्ते कि पाठक कविताओं के नजदीक पहुंचे !जितनी निकटता ,उतनी खुशबू !
रंजू भाटिया की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ
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आँगन से आकाश तक
सारी हदें पार कर आती है
वरना यूं कौन मुसकुराता है
भिंचे हुए होठों के साथ
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-सीमांत सोहल

मोहब्बत सा कुछ

 http://seemaant.blogspot.in/2012/05/blog-post_21.html
 

Saturday, May 12, 2012

शाहजांह वर्सिस मायावती


बहुत पहले साहिर ने लिखा ...एक बादशाह ने बना के हसीं ताजमहल..
दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी है...|| 
और यह ताजमहल वाकई  दुनिया में प्रेम का प्रतीक  बन  गया है आगरा कई बार जाना हुआ है और हर बार ताजमहल  के साथ साथ आगरा शहर को भी देखा है पर वह वही जहाँ जैसे बना था वैसे ही  थमा  हुआ है न कोई  तरक्की ,न कोई नया  हाँ बस ताजमहल के आसपास  कुछ साफ़ नए माल कोफी डे या मेक्डोनाल्ड .पिज्जा  हट दिखाए दिए है ....यानी जो शाहजांह ने किया वही पूर्व मुख्यमंत्री जी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी ...
अब  एक  तुलना मायावती वार्सिज शाहजहाँ  के बनाए महलों की करते है ....

शाहजांह ने अपनी तीसरी बेगम मुमताज़ की आखिरी ख्वाहिश, कि उसकी मौत के बाद कोई ऐसी यादगार निशानी बनवाई जाये जिससे उसे पूरी दुनिया याद रखे..इस को पूरा करने के लिए मुमताज़ की मौत के बाद, एक ऐसा मकबरा बनवाना शुरू किया १६३१ में ... जिसे बनाने में २०००० मजदूरों को 22 साल लगे.. और इसमें उस समय के हिसाब से ३२ करोड़ रूपये का खर्च हुआ..जो कि आज के दौर में लगभग ५० बिलियन रुपये होते है.. (http://wiki.answers.com/Q/How_much_did_the_Taj_Mahal_cost_to_build).  ताजमहल को बनाने में उस समय शाहजहाँ ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया..जिसके नतीजे में उसके बाद औरंगजेब को ज्यादा टेक्स लगाने पड़े...इतना पैसा, समय और मजदूरी खर्च करने के बाद शाहजहाँ ने हमें एक बेश-कीमती तोहफा दिया.. जो मुग़ल कला का उत्कृष्ट उदहारण है... और दुनिया के सात अजूबो में शुमार होता है.. इसकी वजह से हमारे देश में हर साल लाखो विदेशी लोग आते है... जिससे हमारी इकोनोमी को भी मदद मिल रही है...और सारी दुनिया में ताजमहल की वजह से नाम भी है देश का...

         अब जो मायावती  ने महल बनवाया उस पर एक नजर .......
पूर्व मुख्यमंत्री ने यू पी में बना कर हर जगह बुत और हाथी 
सारी दुनिया को खुद पर हंसने की वजह दी है ....और यू पी में रहने वालों को रोने की ..

पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने अपने कार्यकाल में अपने सरकारी बंगलों पर पानी के तरह पैसे बहाये. दो सौ करोड़ से ऊपर महज मरम्मत और देखरेख में खर्च कर दिये.  उन्होंने  अपने बंगले के नवीनीकरण पर लगभग 86 करोड़ रुपये खर्च किए।मायावती ने खिडकियों में बुलेटप्रूफ शीशे लगवाये हैं। एक शीशे की कीमत 15 लाख रपये तक है। बंगले में पिंक मार्बल, मायावती और काशीराम की मूर्तियां, हाथी की पांच मूर्तियां, दो मंजिला गेस्ट हाउस और वातानुकूलित 14 बेडरूम हैं। इस गलियारे के बाहर एक बरामदा बना है, जिसमें बुलेटप्रूफ शीशे से युक्त दो खिड़कियां लगायी गयी हैं। इनमें से हर खिड़की की कीमत करीब 15 लाख रुपए है। इन खिड़कियों को खासतौर पर चंडीगढ़ में डिजाइन  किया गया था।
बंगले में ही 14 शयनकक्षों से युक्त दो मंजिला आलीशान अतिथि गृह भी बनवाया गया है, जिसमें गुलाबी इतालवी संगमरमर का फर्श है। परिसर में मायावती और बसपा संस्थापक कांशीराम की 20-20 फुट की दो प्रतिमाएं भी लगी हैं।अपनी सुरक्षा के प्रति खासी चिंतित रहने वाली मायावती के इस बंगले में हिफाजत के भी पुख्ता बंदोबस्त हैं। बंगले की चहारदीवारी के चारों तरफ कंटीले तार बांधे गये हैं और हर आने-जाने वाले पर पैनी नजर रखने के लिये क्लोज सर्किट टेलीविजन का पूरा संजाल लगाया गया है।राजकोष से 86 करोड़ रुपए से ज्यादा की धनराशि खर्च की है।
  
और उसके इस महल को कौन देखने आने वाला है जिस से देश में आने वाले पर्यटक  को दिखा कर पैसा वसूल कर सके .इतने हाथी इतनी मूर्तियाँ उसने जो बनायी है उसकी बजाय यदि उसने एक  हिस्सा भी इस  पर्यटक नगरी पर खर्च किया होता तो आज आगरा की तस्वीर  ताजमहल सी सुन्दर होती  दुनिया के सात बड़े आश्चर्यों .मैं से एक इस ताजमहल और इस शहर में घूमते  विदेशी पर्यटकों को ताजमहल ,फतेहपुर सीकरी के साथ साथ आगरा की सड़कों पर उसके किनारों पर फैली हुई गंदगी को भी निहारते हुए देखा ...दुनिया के सात अजूबों में शामिल इस शहर की हालत इस कदर गंदगी से भरी हुई है ..कि देख कर ऐसा लगता है कि   ताजमहल की सुन्दरता को कहीं नजर न लगे इस लिए यहाँ पर इस तरह बदहाली और गन्दगी को फैला रखा है 
पढ़ा है कि  जिस समय शाहजहाँ ताजमहल बनवा रहा था.. उस समय यूरोप में ऑक्सफोर्ड, केम्ब्रिज और इम्पेरिअल कॉलेज की नीवं रखी जा रखी जा रही थी.. या वो काफी हद तक आगे पहुँच चुके थे...क्यूँ शाहजहाँ के दिमाग में ये नहीं आया.. या उसके सलाहकारों ने उसे ये मशवरा नहीं दिया कि मुमताज़ का नाम, उसके लिए एक अच्छा पढाई का केंद्र बना के भी किया जा सकता है...चलो उसने फिर देश में एक नाम करने का मौका तो दिया और जो बना दिया गया वह भी यादगार है दुनिया के लिए ..पर मायवती जो गरीबों की मसीहा कही जाती है उनको उसी बदहाली में छोड़ कर अपना महल सजाने में लगी थी .उसने भी नहीं सोचा कि  गरीब जनता के पास  पीने का पानी और खाने को रोटी नहीं रहने को मकान नहीं है वह पूरी करे खुद को नोटों के हार और खुद के महल सजाने की बजाय ..और बाकी बुनयादी जरूरते तो बाद में आती है ..विज्ञापनों में अपनी तरक्की खूब दिखाई है आपने कार्यकाल में मायावती ने जो असलियत में कहीं नजर नहीं आई ..सुनने में आया है कि  लखनऊ शहर पहले से अधिक खूबसूरत  हुआ है ..देखेंगे वह भी एक दिन जा कर पर इस आगरा शहर को उसके नाम के मुताबिक सजाने की संवारने की जरूरत है पहले ताकि आने वाला पर्यटक जो अपने देश में रह कर इसके बारे में पढता है वह असलियत में भी देखे . 

गरीब जनता के पैसों से महल बनवाने के इन महलों को देख कर यह पंक्तियाँ भी याद आई की ...

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहनशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे!
यह मशहूर पंक्तियाँ है साहिर जी की जो उन्होंने ताजमहल को देख कर कही थी ..
और मुझे आगरा शहर और ताजमहल देख कर यह  पंक्तियाँ सूझी ..
यह गंदगी के ढेर 
यह बिखरे हुए बेतरतीब से कूड़े के निशाँ 
तलाश करती उस  ढेर में 
ज़िन्दगी को गाय और इंसान की आँखे 
उफ्फ्फ यह मंजर बहुत करता है परेशान 
ऐ मेरे देश में आने वाले पर्यटक 
बस मेरी खूबसूरती को देख 
अपने दिल की नजर से .... 

{आकंड़ों की जानकारी गूगल के सोजन्य से } 

Wednesday, May 09, 2012

कल्पना का संसार

कल्पना का संसार सपनो से अधिक बड़ा होता है ,सपने जो हमे आते हैं वो असल में कही ना कही हमारी कल्पना से ही जुड़े होते हैं !जब हम बच्चे होते हैं तो तब हमारा मस्तिष्क एक कोरे काग़ज़ की तरह होता है धीरे धीरे जैसे जैसे हमारा मस्तिष्क परिपक्व होता जाता है वैसे वैसे उस में हमारे आस पास जीये अनुभव और ज़िंदगी की यादे उस में रेकॉर्ड होने लगती हैं फ़िर जैसा फिर हमे अपने आस पास का माहोल मिलता है वैसे ही हमारे विचार बनते जाते हैं उसी के आधार पर हम कल्पना करते हैं और उस के आधार पर हम में सपने जागने लगते हैं!
 हमारा शरीर दो तरह से क्रिया करता है एक अपने दिल से यानी अपनी इच्छा से दूसरी बिना इच्छा के जैसे किसी गर्म चीज़े के हाथ पर पड़ते ही हम हाथ हटा लेते हैं हमे सोचना नही पड़ता दूसरी कुछ बाते हम सोच के करते हैं किसी को किसी भी कार्य को करें के लिए पहले उसकी एक कल्पना बनाते हैं ! दिल में उसी कल्पना का हमारे जीवन में बहुत ही महत्व है, कल्पना ना हो जीवन भी नही जीया जा सकता ,कल्पना जो हम सोचते हैं वो भी एक मज़ेदार दुनिया है ,वहाँ समय ठहर जाता है और हम पल भर में जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं एक दुनिया अपने सपनो की बसा लेते हैं इसी के आधार पर कई महान काव्य लिखे गये ,कई अविष्कार हुए !
हर व्यक्ति की कल्पना करने की क्षमता भी अलग-अलग होती है ,कुछ लोग बचपन से ही कल्पना की दुनिया में खोए रहते हैं जैसे कवि :) बचपन से ही कोई कल्पना करके कविता में डूबे रहते हैं ... पर अधिक कल्पना करना भी जीवन में कभी कभी मुसीबत पैदा कर देता है कल्पना शीलता का काफ़ी इच्छा हमारे अवचेतन मन में रेकॉर्ड होता रहता है इसी के आधार पर हम किसी की भावनाओं का पता लगातें हैं... पर यह कल्पनाए क्यों ,कहाँ से आती है ?इसके लिए कौन सी रासयनिक क्रिया काम आती है, यह अभी तक पता नही चल पाया है पर जब भी इंसान फुरसत में होता है , तो वह कल्पना के जादुई दुनिया में डूब जाता है तब वो जो असलियत में अपनी ज़िंदगी में नही कर पाता उसको अपनी कल्पना कि दुनिया में सकार करता है और फ़िर से वहीं से प्रेरणा पा के करने की कोशिश करता है !
 कल्पना तो सभी करते हैं लेकिन उसको शब्दों का रूप कोई कोई ही दे पाता है कभी कभी लिखते वक़्त किसी लेखक के साथ ऐसी हालत आ जाती है की वो अपनी कल्पना को कोई शब्द रूप नही दे पाते तब इसको writer's block कहते हैं ....तब उसको शब्द रूप में ढालने के लिए किस प्रेरणा की ज़रूरत होती है ,मतलब कोई घटना या कोई घटना जिस से उसकी कल्पना शब्दों में ढल सके! कल्पना ना होती तो हमारा जीवन भी नीरस सा हो जाता क्यूंकि इस के सहारे हम वो काम कर लेते हैं जो हम वास्तविक ज़िंदगी में कभी कभी नही कर पाते और यदि यह नही कर पाते तो हमें बहुत अधिक तनाव को झेलना पड़ता! इस प्रकार यह कल्पना शक्ति ही हमारे कुछ कर पाने वाले,कुछ न कर पाने वाले तनाव को संतुलित रखती है.... नही तो कई तरह की समस्या पैदा हो जाती जीवन में ,!प्रकति ने शरीर से बेकार की चीज़ो को बहार निकालने का कोई ना कोई रास्ता बना रखा है हमारे शरीर में ही!

कल्पना कई तरह की होती है ....कल्पना रचनात्मक भी हो सकती है और दूसरों को नुकसान देने वाली भी ,तीसरी कल्पना सच में केवल कल्पना होती है केवल मन की तस्सली के लिए की जाती है कोई कल्पना सिर्फ़ उतनी ही ठीक है जो मानसिक तनाव कम करे ना कि और बढ़ा दे! ज्यादा कल्पना भी मानसिक तनाव का कारण बन सकती है जब हम उस काम को पूरा होते नही देख पाते और वो मनोविकार का रूप धारण कर लेती है इस से मनुष्य के अंदर हीन भावना आ जाती है और उसकी जिन्दगी उस से प्रभावित होने लगती है फिर इस उपचार की जरुरत पड़ती है इस लिए सिर्फ़ उतनी ही कल्पना करें जितनी जीने के लिए जरुरी है और जो जीवन में सम्भव हो सकती है !!

Tuesday, May 01, 2012

मेरा वो समान लौटा दो ....

 चलते चलते मेरा साया
कभी कभी यूँ करता है
जमीन से उठ के ,सामने आ कर
हाथ पकड़ कर कहता है
अब की बार मैं आगे चलता हूँ
और तू मेरा पीछा करके देख जरा क्या होता है ?"
और ...........
एक दफा वो याद है तुमको ,
बिन बत्ती जब साईकल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासों बेचारों सी एक्टिंग की थी
हवलदार ने उल्टा .एक अट्ठनी दे कर भेज दिया था
एक चवन्नी मेरी थी ,
वो भिजवा दो ....

सब भिजवा दो
मेरा वो समान लौटा दो ....
एक इजाजत दे दो बस ,
जब इसको दफना उंगी
मैं भी वही सो जाउंगी ..

भूल सकते हैं क्या आप इस गाने के बोल को ...नहीं न ?

कुछ कुछ फ़िल्में दिल पर गहरे अपना असर छोडती है और अक्सर देखी जाती है पर वही आपके हाथ में यदि किताब के रूप में आ जाए तो इस से बढ़िया तो कुछ हो ही नहीं सकता है ..कुछ ऐसा ही हुआ जब मुझे गुलजार की  लिखी किताब "इजाजत " मुझे मिली ..यह एक मंजर नामे के रूप में है |जो नजर आये उसको मंजर कहते हैं और मनाज़िर में कही गयी कहानी को "मंजरनामा "कहा जाता है गुलजार के लफ़्ज़ों में
साहित्य में मंज़रनामा एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रुकावट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सकें। लेकिन मंज़रनामे का अन्दाज़े-बयान अमूमन मूल रचना से अलग हो जाता है या यूँ कहें कि वह मूल रचना का इन्टरप्रेटेशन हो जाता है।
मंज़रनामा पेश करने का एक उद्देश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रू-ब-रू हो सकें और दूसरा यह कि टी.वी. और सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लोग यह देख-जान सके कि किसी कृति को किस तरह मंज़रनामे की शक्ल दी जाती है।
   फिल्म "इजाज़त का मंज़रनामा"  फिल्म की तरह ही  रोचक है इस फिल्म को अगर हम औरत और मर्द के जटिल रिश्तों की कहानी कहते हैं, तो भी बात तो साफ हो जाती है लेकिन सिर्फ़ इन्हीं शब्दों में उस विडम्बना को नहीं पकड़ा जा सकता, जो इस फिल्म की थीम है। वक्त और इत्तेफ़ाक, ये दो चीजें आदमी की सारी समझ और दानिशमंदी को पीछे छोड़ती हुई कभी उसकी नियति का कारण हो जाती हैं और कभी बहाना।
        
" इजाजत" कहानी का इतिहास कुछ इस तरह से है ...गुलजार के लफ़्ज़ों में सुबोध दा  की कहानी "जोतो ग्रह "बंगला में पढ़ी उन्होंने कोलकत्ता जा कर उनसे राइट्स खरीद लिए कई साल गुजर गए उन्हें कोई प्रोड्यूसर नहीं मिला और फिल्मों में कहानियां बहुत जल्दी आउट डेटेड हो जाती है बहुत साल बाद जब उन्हें सचदेव जैसे प्रोड्यूसर मिले तो गुलजार ने एक और स्क्रिप्ट लिखी जिस में कहानी का अक्स रह गया कहानी बदल गयी किरदार बदल गए लेकिन पहली और आखिरी मुलाकात वही रही जो उस कहानी में थी फिर वह डरते डरते सुबोध  दा के पास गए और सब बात सही कह दी ..सुबोध दा बोले सुनाओ कहानी ..गुलजार जी ने  सुना दी सुनने के बाद वह कुछ देर चुप रहे फिर धीरे से चाय की चुस्की ली और बोले --गलपों शे नोयें  --किन्तु भालो लागछे !"गुलजार साहब ने पूछा कि आपका नाम दे दूँ ?"वह मुस्कराए और बोले दिए दो ...आमर नामेर टाका ओ तो दिए छो "उनसे इजाजत ले कर उन्होंने यह फिल्म शुरू कर दी ... 
          पानी की तरह बहती हुई इस कहानी में जो चीज़ सबसे अहम है वह है इंसानी अहसास की बेहद महीन अक़्क़ाशी, जिसे गुलजार ही साध सकते थे। पढ़ते पढ़ते आप कहानी के पात्रों के साथ साथ चलते जाते हैं .लिखा हुआ हर वाक्य पात्र द्वारा बोला हुआ लगने लगता है ..जैसे यह ..

"थोड़ी देर सो गयी होती |'

नींद नहीं आई |"

पता ही नहीं चला ..कब शाल मुझे ओढा कर चली गयी ,पानी का गिलास रख दिया .जैसे पूरा घर साथ ले कर चलती हो .."

आपने भी सब सारा समान ऐसे यहाँ वेटिंग रूम में बिखरा रखा है जैसे घर में बैठे हो ..तोलिया कहीं ,साबुन कहीं .गीले कपडे अभी तक बाथरूम में हैं ...मैं थी इस लिए या अब तक वही हालात  है ..
कुछ घर जैसा ही लग रहा है सुधा .."
जी ..
तुम्हे कुछ पूछना नहीं है मुझसे ?
जरुरत है ?"
नहीं हो हुआ उसको बदला नहीं जा सकता है आदमी पछता सकता है .माफ़ी मांग सकता है मैंने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की है "

 सुधा बात बदलते हुए" माया कैसी है ?"
थोड़ी देर ख़ामोशी के बाद महेंदर ने जवाब दिया
तुम्हे याद है जब हम "कुदरे मुख" से वापस आये थे
हाँ उसी दिन आपका जन्मदिन था
उसी दिन एक फ़ोन आया था
और आपको जरुरी काम से बाहर जाना पड़ा था
तुम्हे याद है सब
हूँ ...........
वही मैं अस्पताल गया था उस रात माया ने खुदकशी की कोशिश की थी उस वक़्त तुम्हे बताना मुनासिब नहीं समझा उस वक़्त चला गया और उसके बाद उसको लगातार मिलता रहा उसको बचाना अपना फर्ज़ महसूस हुआ ..पागल थी वो ..कभी रोती थी ,कभी लडती थी ..और कभी लिपटती थी ..उसी में शायद एक दिन उसका झुमका मेरे कोट में अटका रह गया ,जैसे शाल में अटका आज तुम्हारा यह झुमका मिला है ..

सुधा अपने कानों को देखने लगी .एक झुमका महेंदर की हथेली पर था

शायद मुझे तुम्हे सब कुछ बता देना चाहिए था लेकिन मेरी अपनी समझ में नहीं आ रहा था कुछ भी ...माया की इस हरकत से मैं डर गया था संभलने की कोशिश कर रहा था कि वो घर से भाग गयी ..वापस आया तो तुम भी जा चुकी थी ...उस दिन  मुझे दिल का पहला दौरा पड़ा "
सुधा ने चौंक कर महेंदर की तरफ देखा एक गुनहगार की तरह ......
तुम्हारा जाना बुरा लगा गुस्सा  भी था नाराजगी भी थी ...एक महीना अस्पताल में रहा ..

इस तरह आप कहानी के साथ देखें गए पात्रों के साथ खुद को देखते हुए बहते चले जाते हैं और यह काम सिर्फ गुलज़ार कर सकते हैं ...इस में लिखी कई पंक्तियाँ ज़िन्दगी का हिस्सा खुद बा खुद बन जाती है ..जैसे " बिना बताये चले जाते हो  जा के बताऊँ कैसा लगता है ? कितनी मासूमियत और अधिकार के साथ यह बात दिल को छु जाती है ...आदत भी चली जाती है पर अधिकार नहीं जाते ..?" कहाँ भूल पाते है हम अधिकारों को जो किसी ने हमें दिल से दिए हो ..और ज़िन्दगी को आगे बढाने वाली पंक्तियाँ तो जैसे दिल में बस गयी है की सुधा माजी को माजी न बनाया ..."माजी ?? माजी भाई पास्ट ..बीता हुआ जो बीत गया ..उसको बीत जाने दो ..उसको रोक कर मत रखो ..... निश्चय ही यह एक श्रेष्ठ साहित्यक रचना है जिसको आप बार बार पढना चाहेंगे