Thursday, August 18, 2011

मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले ,क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं ,नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ ...

 आज गुलजार जी के जन्मदिन पर ..

आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।

दो अनपढ़ों की  कितनी मोहब्बत है अदब से


गुलजार जी काम बहुत अच्छे से दिलो दिमाग पर असर करता है आम बोलचाल के लफ्जों को वह यूं पिरो देते हैं कि कोई भी बिना गुनगुनाए नही रह सकता है ..जैसे कजरारे नयना और ओमकारा के गाने सबके सिर चढ़ के खूब बोले .आज की युवा पीढ़ी खूब थिरकी इन गानों पर ..सच में वह कमाल करतेहैं जैसे उनके गाने में आँखे भी कमाल करती है .उस से सबको लगता है कि यह उनके दिल कि बात कही जा रही है वह गीत लिखते वक्र जिन बिम्बों को चुनते हैं वह हमारी रोज की ज़िंदगी से जुड़े हुए होते हैं इस लिए हमे अपने से लगते हैं उनके गाने ....प्यार और रोमांस  से जुदा जी जादुई एहसास जो वो पिरोते हैं अपने लफ्जों में वह सबको अपने दिल के करीब सीधा दिल में ही उतरता सा लगता है अपने इन गानों से उन्होंने लाखो करोड़ों  प्रेम करने वाले दिलो को शब्द दिए हैं ...आज की युवा पीढ़ी  के भावो को भी गुलजार बखूबी पकड़ कर अपने गीतों  में ढाल लेते हैं ..

तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे'र मिलते थे

ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?

जब हम गुलजार साहब के गाने सुनते हैं तो .एहसास होता है की यह तो हमारे आस पास के लफ्ज़ हैं पर अक्सर कई गीतों में गुलज़ार साब ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो श्रोता को चकित कर देते हैं.जैसे की उन्होने कोई जाल बुना हो और हम उसमें बहुत आसानी से फँस जाते हैं. दो अलग अलग शब्द जिनका साउंड बिल्कुल एक तरह होता है और वो प्रयोग भी इस तरह किए जा सकते हैं की कुछ अच्छा ही अर्थ निकले गीत का..

क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा
अगरचे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
गुलज़ार का तिलिस्म सब जगह आसानी से जकड़ लेता है ...........

चिपचिपे दूध से नहलाते हैं
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे डालते  हैं गिलसियां भर के

औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पांव पर पांव लगाये खड़े रहते हो
इक पथरायी सी मुस्कान लिये
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।

जब धुआं देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।

Tuesday, August 09, 2011

सुबह के शगुन

सुबह के शगुन है
जो आते हैं अखबार के साथ
कुछ हत्या .कुछ आत्महत्या
बलात्कार .चोरी और कुछ झगडे

टप से अखबार के साथ टपकते हैं
चाय के साथ गटक लिए जाते हैं

और फ़िर बाकी रह जाता है
बचा हुआ दिन पूरा
जिस में घटती घटनाएँ
फ़िर से गवाह बनती है
आगे आने वाले दिन  की शगुन!!!!