Tuesday, April 28, 2009

मिलन ....



कैसे बांधे...मन से मन की डोर
मैं एक दरिया की लहर ,चली मिलने सागर की ओर

दिल में बसे हैं जाने, कितने सपने सलोने
आंखो की लाली में दिखे ,प्यार की भोर
महके मेरा तन -मन जैसे केसर
जब दिल में जगे ,यादों का छोर

मैं एक दरिया की लहर ,चली मिलने सागर की ओर

खिले हुए हैं अरमानों के पंख सुहाने
मनवा बस खींचे तेरी ही ओर
कैसे पार लगाऊं अब यह रास्ता
कठिन बहुत है प्यार का हर मोड़
मैं एक दरिया की लहर , चली मिलने सागर की ओर ....

पीछे बीता सप्ताहांत ऋषिकेश ,गंगा नदी के साथ बीता ..चलती ठंडी हवा और बहती नदी की लहरें ......अदभुत लगता है बीतता हर लम्हा ...और दे जाता है दिल की बहती उथल पुथल में कई विचार ,कई सोच ओर कई नए लफ्ज़ ...उन्ही विचारों से एक विचार ,कुछ इस तरह से कागज पर बिखरे ...

रंजना
( रंजू ) भाटिया ,ऋषिकेश ..२६ अप्रैल २००९

Thursday, April 23, 2009

जीने की वजह


दुःख ...
आतंक ...
पीड़ा ...
और सब तरफ़
फैले हैं .............
न जाने कितने अवसाद ,
कितने तनाव ...
जिनसे मुक्ति पाना
सहज नही हैं
पर ,यूँ ही ऐसे में
जब कोई...
नन्हीं ज़िन्दगी
खोलती है अपने आखें
लबों पर मीठी सी मुस्कान लिए
तो लगता है कि
अभी भी एक है उम्मीद
जो कहीं टूटी नहीं है
एक आशा ...
जो बनती है ..
जीने की वजह
वह हमसे अभी रूठी नही है !!

रंजना ( रंजू) भाटिया
चित्र गूगल से

Monday, April 20, 2009

भला सिपाहिया डोगरिया

6 दिसम्बर की शाम रेडियो पर ख़बर सुनाई जा रही थी कि कट्टर पंथियों ने बाबरी मस्जिद तोड़ दी सारे देश में दंगा फैल गया है, हज़ारों लोग मारे गये हैं, राष्ट्रीय शोक की घोषणा कर दी गयी है। सब तरफ़ दुख ओर दर्द की लहर है, सारा माहौल सहमा हुआ सुनसान हो जाता है और एक चुप सी छा जाती है



दूर बार्डर पर लड़ते सैनिक सिपाहियों के शिविर में भी जहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब कंधे से कंधा मिला कर देश की रक्षा के लिए मोर्चा संभाले खड़े हैं, यहाँ कोई बाबरी, अयोध्या का झगड़ा नही, सिर्फ़ अपने देश के लिए मर मिटने को तैयार हैं। बस..सोच में डूबे हैं वो सब भी कि हम सब क्यों और किसके लिए लड़ रहे हैं? आख़िर यहाँ हमने अपने जान को दाँव पर लगा रखा है, वहाँ हमारे परिवार वाले भी एक लड़ाई लड़ रहे हैं। यहाँ सर्दी गर्मी, बरसात, धूप की प्रवाह किए बिना यह युद्ध सबको दिख तो रहा है.. पर देश के अंदर यह कौन सा अघोषित युद्ध लड़ा जा रहा है ,जिसका कोई नियम नही है।

राजेश भी उन्ही सिपाहियों में देश की रक्षा के लिए वहाँ बार्डर पर तैनात देश का सिपाही था। वो जिस बार्डर पर था ,वहाँ बर्फ़ और ठंड से साँस लेना तक मुश्किल था। उसने जब से यह बाबरी अयोध्या की खबर सुन थी उसका दिल कांप रहा था ....उसका घर संसार भी उसी जगह था .....जहाँ से यह सब ख़बरे आ रही थी। वो बहुत देर से अपनी पत्नी और बच्चे से बात करना चाहता था पर फोन लग नही रहा था और कई दिन से कोई ख़त भी नही आया था। दूर बर्फ़ीली पहाड़ी पर बनी यह पोस्ट बहुत सुनसान थी, सिर्फ़ कभी -कभी अचानक होने वाली गोलो की आवाज़ बता देती थी कि यहाँ भी कोई जीवन है ,चाहे वो सिर्फ़ नाम का है। शुरू शुरू में यहाँ की प्राकतिक सुन्दरता दिल को लुभाती है पर फिर वो सुनसान जगह इंसान को पागल करने लगती है ॥
राजेश अपने बेस कैंप के बाहर अपनी ड्यूटी पर था पर आज उसका ध्यान बार बार अपने घर की तरफ़ जा रहा था ... कानो में डोगरी गाने के बोल गूँज रहे थे.... "भला सिपाहिया डोगरिया दुइ दिन छुट्टी आ जा की तेरे बिना बडा मंदा लगदा ..."।इसका अर्थ उस को उसकी पत्नी का संदेश देता लग रहा था कि दो दिन की छुट्टी ले कर मुझसे मिलने आ जाओ ,तुम बिन बहुत उदास सा लगता है सब, पर दिल में उसकी तस्वीर और कोई संदेश आने के इंतज़ार के सिवा वो कर भी क्या सकता था। भावी मिलन की आस लिए वो अपने परिचय पत्र के साथ रखी अपनी पत्नी, बच्चे की फोटो को देख लेता और सोच में डूब जाता।
तभी उसके साथी ने आ कर कहा कि उसके लिए फोन है, लाइन बहुत जल्दी कट हो रही है, इसलिए जल्दी से आ कर सुन ले। वो भागा उसका दिल किसी अनहोनी आशंका से डरा हुआ था और फोन पर जो उसने सुना वो उसके होश उड़ा देने के लिए काफी था ।वो यहाँ देश की अपनी मातरभूमि के लिए सब कुछ भूला कर अपनी ड्यूटी कर रहा था और उधर देश के अंदर उसका सब कुछ एक जनून की भेंट चढ़ चुका था ....उसकी बीबी की इज़्ज़त, जान और उसके बेटे की साँसे यह अंधे धर्म का जनून ले गया था.. आँखो में आँसू के साथ धुंधली होती बीबी की तस्वीर.. मन को मोहती बच्चे की मुस्कान और कानो में गूँजता गीत.. भला सिपाहिया डोगरीया दो दिन छुट्टी आ जा की तेरे बिना मंदा लगदा ...उसको जैसे दूर कही गहरी वादी से आता लग रही था। दिल में एक सन्नाटा सा छा गया था.. गोलियों की रह रह कर आती आवाज़ अभी भी यह बता रही थी कि जीवन अभी बाकी है और यह यूँ ही चलता रहेगा....


यह मेरी कहानी विधा की कोशिश में पहली लघु कहानी थी जो बहुत पहले पब्लिश हो चुकी है .. । जो कुछ भी हमारे आस-पास घटता है वो कहीं दिमाग़ के किसी कोने में संचित होता रहता है। नया ना लगे शायद आपको मेरी इस कहानी में। इस में कई परिवेश आपको शायद जाने पहचाने लगे क्यूँकि मेरी अधिकतर कहानियाँ आस-पास के माहौल से हैं जो रोज़ाना हम देखते हैं, सुनते हैं, वही चरित्र - कहानी के रूप में आपके सामने है ..इस कहानी का शीर्षक "भला सिपाहिया डोगरिया "एक बहुत मशहूर डोगरी गाने की पंक्तियाँ हैं ... काफ़ी वक्त जम्मू आर्मी माहोल में गुजारा है ,यह पंक्तियाँ आज भी दिल दिमाग में गूंजती रहती है ..
रंजना [रंजू ]भाटिया
२० अगस्त २००७

Friday, April 17, 2009

शुक्रिया अनुराग जी

१४ अप्रैल को अपने जन्मदिन पर हिन्दी ब्लाग जगत से बहुत सारी शुभकामनाएं और बधाई संदेश मिले ..हर संदेश प्यार से भरा था ..एक पूरे परिवार के साथ होने का आभास हुआ ...आज अभी सबसे अधिक सुखद आश्चर्य अनुराग अन्वेषी जी से मुझे एक खूबसूरत तोहफे के रूप में मिला ..जब उन्होंने जन्मदिन के अवसर पर मेरे ब्लॉग पर लिखी कविता बहुत दिन हुए ..को अपनी खूबसूरत और प्रभावशाली आवाज़ दी .और उसका शीर्षक लिखा कि मैंने रंजू की कविता चुराई ...:)
मेरी अनुराग जी से विनती है कि वह मेरी सभी कविताएं चुरा के उन्हें अपनी आवाज़ दें दें ..:) .उनका यह तोहफा मुझे बेहद पसंद आया ..आप भी सुनिए ...बहुत बहुत शुक्रिया अनुराग जी और आप सबका ..आप सब का स्नेह और साथ यूँ ही बना रहे ...

Monday, April 13, 2009

बहुत दिन हुए ...........



एक लम्हा दिल फिर से
उन गलियों में चाहता है घूमना
जहाँ धूल से अटे ....
बिन बात के खिलखिलाते हुए
कई बरस बिताये थे हमने ..
बहुत दिन हुए ...........
फिर से हंसी की बरसात का
बेमौसम वो सावन नहीं देखा ...

बनानी है एक कश्ती
कॉपी के पिछले पन्ने से,
और पुराने अखबार के टुकडों से..
जिन्हें बरसात के पानी में,
किसी का नाम लिख कर..
बहा दिया करते थे ...
बहुत दिन हुए .....
गलियों में छपाक करते हुए
दिल ने वो भीगना नहीं देखा .....

एक बार फिर से बनानी है..
टूटी हुई चूड़ियों की वो लड़ियाँ,
धूमती हुई वह गोल फिरकियाँ,
और रंगने हैं होंठ फिर..
रंगीन बर्फ के गोलों...
और गाल अपने..
गुलाबी बुढ़िया के बालों से,
जिनको देखते ही...
मन मचल मचल जाता था
बहुत दिन हुए ..
यूँ बचपने को .....
फिर से जी के नहीं देखा....

और एक बार मिलना है
उन कपड़ों की गुड़िया से..
जिनको ब्याह दिया था..
सामने वाली खिड़की के गुड्डे से
बहुत दिन हुए ..
किसी से यूँ मिल कर
दिल ने बतियाना नहीं देखा ..

बस ,एक ख़त लिखना है मुझे
उन बीते हुए लम्हों के नाम
उन्हें वापस लाने के लिए
बहुत दिन हुए ..
यूँ दिल ने
पुराने लम्हों को जी के नहीं देखा ....

रंजना (रंजू ) भाटिया
चित्र
गूगल से

Tuesday, April 07, 2009

गूंजता सन्नाटा


फैली है खामोशी
सब तरफ़ छाया है
एक गहरा सन्नाटा ....
हवा भी जैसे ...
भूल गयी है लहराना
कुदरत पर ठहरा हुआ
है वक्त का कोई साया ..

मेरे सब लफ्ज़
तेरे हर चित्र भी ,
आज जैसे ...
खामोश हो कर
गुम हो गये हैं
दिल के पुराने पन्नो में ..

टूट गयी है कलम
सूख गये हैं रंग
पर ...
दिल में
थरथराता
यह सन्नाटा
कह रहा है कि
कल यह ....
ज़रूर आग बन कर
काग़ज़ पर बहेगा .............