Wednesday, December 24, 2008

राजस्थान पत्रिका में महिला ब्लॉगर







हिन्दी ब्लागिंग में महिला ब्लॉगर .....आज के राजस्थान पत्रिका समूह के जयपुर और १७ दूसरे केन्द्रों से प्रकाशित समाचारपत्र ''पत्रिका''की साप्ताहिक पत्रिका परिवार'' मे .आशीष खंडेलवाल ने ब्लॉग वुमन के नाम से आलेख लिखा है ..शुक्रिया आशीष

Tuesday, December 23, 2008

मौन ना रहो


मौन ना रहो ,कुछ शब्द प्यार के फिर से मुखरित होने दो
बांधों मत आज अपने अधर, प्रेम चिन्ह इनसे अंकित होने दो

दिल में बढ़ता प्रेम ज्वर अब कहीं थमने ना पाए
लोग कहे मुझे प्रेम दीवानी ,मीरा मुझ को होने दो

मेरे उर में भर के प्रीत नयी , तुम मेरा हर मौन हरो
बहे ब्यार सिर्फ़ प्रेम की ,आज ऐसी ध्वनि को बहने दो

दिल के दर्पण पर आया है प्रियतम तुम्हारा रूप उतर
मेरे नयनो को नित नये अब कोई ख़वाब सलोने दो

मैं ..मैं ना रहूँ आज बस तू ही तू नजर जाऊँ
हौले -धीमे से ऐसी प्यार की बरसात होने दो

प्रेम सुरो में डूबे हो जीवन के राग रंग सारे
आज राधा को फ़िर से श्याम मय होने दो

मौन ना रहो ,कुछ शब्द प्यार के फिर से मुखरित होने दो
बांधो मत आज अपने अधर , प्रेम चिन्ह इनसे अंकित होने दो!!

Thursday, December 18, 2008

अठारह की महिमा

भारतीय मनीषा से अठारह का संबंध बहुत आश्चर्यजनक है .. ..आईये आपको बतातें हैं कैसे ..हमारे पुराण अठारह है ,गीता के अध्याय भी अठारह......देवी भागवत और वामन पुराण आदि ग्रंथों में एक प्रसिद्ध श्लोक में बड़े ही सुंदर ढंग से सूत्रबद्ध शैली में पुराणों के नाम व संख्या का वर्णन है ..इस से भारतीय मनीषा की अध्यात्मिक व दार्शनिक मेघा की अभिव्यक्ति होती है | शतपथ ब्राह्मण में सृष्टि नमक अठारह इष्टिकाओं का प्रावधान है | ऋग्वेद में गायत्री और विराट छन्द की बहुलता है .गायत्री के आठ व विराट के दस अक्षर मिला कर अठारह की संख्या बनाते हैं ..

इसी तरह बारह मॉस ,पाँच ऋतुएँ व एक सवंत्सर मिल कर अठारह भेदों को प्रकट करतें है ..सांख्य दर्शन में दस इन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ,पाँच कामेंद्रियाँ ) ,पाँच महाभूत ,(पृथ्वी ,जल वायु ,अग्नि व् आकाश ) मन प्रकृति ,पुरूष मिल कर अठारह तत्वों को अभिव्यक्त करते हैं .श्रीमद भागवद के श्लोकों की संख्या अठारह हजार है और महाभारत के पर्वों की संख्या भी अठारह है ..

ब्रह्मांड के सब पदार्थ स्थान की दृष्टि से तीन लोकों पृथ्वी अन्तरिक्ष और पातळ से जुडें हैं और प्रत्येक पदार्थ की सत्ता ,उत्पति ,वृद्धि , पूर्णता ,हास तथा विनाश की छ अवस्थाएं हैं .....इन छ अवस्थाओं को तीन लोकों से नित्य संबंद्धता के कारण सृष्टि अठारह अवस्थाओं से आबद्ध है ...

आशीष ने और भी बढ़िया जानकारी दी अठारह अंक के बारे में ... कुरुक्षेत्र का युद्ध 18 सेनाओं के बीच ही लड़ा गया था.. रोम की प्राचीन परंपरा में 18 के अंक को खून के रिश्ते का द्योतक माना जाता है.. चीनी संस्कृति में अंक 18 को समृद्धि का प्रतीक माना जाता है और यही वजह है कि वहां किसी इमारत की 18वीं मंजिल के भाव काफी ऊंचे होते हैं.. यहूदी भाषा में जिंदगी के समानार्थी शब्द का अंक 18 है, इसीलिए वहां दान-पुण्य 18 के गुणकों में किया जाता है।

है न यह हैरानी वाली बात ...मजेदार आंकड़े ..अठारह का होने पर ही माना जाता है समझदार ...:) और तारीख भी है आज अठारह .....:)

Tuesday, December 16, 2008

लास्ट सपर'

२६ /११ को ..जो हुआ वह किसी से सहन नही हो रहा है..क्यों नही सहन हो रहा है यह ? बम ब्लास्ट तो हर दूसरे महीने में जगह जगह जहाँ तहां होते रहते हैं ..लोग भी मरते रहते हैं ,पर इस बार का होना शायद सीमा को लाँघ गया .....या जगा कर हमें एहसास करवा गया कि हम भी जिंदा है ...और यह बता गया कि हम एक हैं .अलग अलग होते हुए भी ..आज भी आँखों से मेजर संदीप .हेमंत करकरे और कई उन लोगों के चेहरे दिल पर एक घाव दे जाते हैं ..यह कुछ चेहरे हम निरंतर देख रहे हैं ..पर इतने दिनों की ख़बरों में अब धीरे धीरे बहुत कुछ सामने आया है ..वह लोग जो अपनी शाम का शायद आखिरी खाना खाने इन जगह गएँ जहाँ यह उनके लिए" लास्ट सपर "बन गया ...वह मासूम लोग जो स्टेशन से अपने घर या कहीं जाने को निकले थे पर वह उनका आखिरी सफर बन गया ..उनका नाम कहीं दर्ज नही हुआ है ....

एक लौ मोमबत्ती की
उन के नाम भी .....
जिन्होंने..
अपने किए विस्फोटों से
अनजाने में ही सही
पर हमको ...
एक होने का मतलब बतलाया

एक लौ मोमबत्ती की..
उन लाशों के नाम....
जिनका आंकडा कहीं दर्ज़ नही हुआ
और न लिया गया उनका नाम
किसी शहादत में....
और ...................
न कहीं उनको मुर्दों में गिना गया


चुपचाप जली यह लाशें
कितनी मासूम थी
क्या जानती थी वह
कि वह ....
अपनी ज़िन्दगी का
मानने आई थी आखिरी जश्न
और उन्होंने खाया था
अपनी ज़िन्दगी का "लास्ट सपर"

पर ......

आज सिर्फ़ उनके नाम क़ैद हैं
उन आंकडों में कहीं दबे हुए
जो दर्शाए गए नहीं कहीं भी
सिर्फ़ इसी डर से....
कि कहीं जो आग सुलगी है
वह जल कर उनकी कुर्सियां
उनसे छीन न सके
और वह लाशें भी कहीं
उन इंसानों की तरह
मांगने न लगे इन्साफ
जो अभी अभी हुए
बम ,गोली के धमाकों से
जाग उठी है ....!!!!

रंजना [रंजू ] भाटिया
१६ दिसम्बर २००८

Monday, December 08, 2008

बिखरे बिम्ब .[.नाटक ]


थिएटर की दुनिया हमेशा मुझे अपनी और आकर्षित करती है ..जो भाव, जो वाक्य उस में बोले गए और उसको करते किरदार जैसे अपने ही बीच में कुछ कहते सुनते प्रतीत होते हैं ..और वह आसानी से भुलाए नहीं जा सकते हैं ..और वह लिखा गया गिरीश कर्नाड का हो और उस के लिखे किरदार को सुषमा सेठ निभा रही हो तो मजा दुगना हो जाता है ..शनिवार की शाम इंडिया हेबिटेट सेंटर के निकट बिखरे बिम्ब देखने का मौका मिला ...गिरीश कर्नाड द्वारा लिखित और निर्देशित राजिंदर नाथ ने बिखरे बिम्ब इस नाटक ने शुरू से अंत तक अपने साथ बांधे रखा ..ख़ुद के साथ बात चीत करते हुए झूठ को सच की तरफ ले जाते हुए इसको "सुषमा सेठ "और" रश्मि वेदलिंगम "ने बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया है

.नाटक की मुख्य पात्र मंजुला नायक[ सुषमा सेठ ] एक बहुत सफल कन्नड़ लघु कहानी लेखक नहीं है. पर अचानक, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी में एक उपन्यास लिख कर बहुत प्रसिद्ध अमीर लेखिका बन जाती है. और जब मिडिया उस से सवाल करती है कि उसने कन्नड़ भाषा को छोड़ कर इंग्लिश भाषा में क्यों लिखा ....यह अपनी भाषा के साथ गद्दारी है .दूसरा सवाल यह कि वह ख़ुद पूर्ण रूप से स्वस्थ है पर उसने कैसे एक बिस्तर पर पड़ी बीमार औरत के बारे में इतनी बारीकी से कैसे लिखा है ...मंजुला बताती है कि उसने यह पीड़ा अपनी बहन की जो बहुत बीमार रहीं वह अपने अन्दर तक महसूस की है इसी वजह से वह उसको लिख पायी और रहा सवाल कि अंग्रेजी में क्यों लिखा ..तो वह ख़ुद बा ख़ुद उसी भाषा में लिखता गया ..उसको भी नही पता कि किस तरह वह इतनी सहजता से इसको लिखती गई .....
अपने सवालों का जवाब दे कर वह जाने लगती है तो तभी उसके अन्दर की आवाज़ उस से कुछ सवाल पूछती है .और यही सवाल जवाब का सिलसिला जैसे ख़ुद बा ख़ुद सब सच बुलवा देता है .अपने से रूबरू का अभिनय रश्मि वेदलिंगम ने बखूबी निभाया है .. कर्नाटक में एक छोटे सा अज्ञात चेहरे ने कैसे , एक अंतरराष्ट्रीय छवि का अधिग्रहण कर लिया है और वह किस तरह से ख़ुद अपने से रूबरू होती है जब सच से वाकिफ होती है ..तब वह जान पाती है कि यह शोहरत तो उसने पा ली पर अपना घर .अपना पति वह खो चुकी है ...एक एक भाव जैसे हम अपने सामने देखते हैं ....दोनों पात्र अलग अलग दिखते हुए भी एक दूजे के बिम्ब दिखते हैं ..

अंत क्या होता है वह आप ख़ुद नाटक देख कर जाने ..सुषमा सेठ .रश्मि ने अपने चरित्र के साथ पूरा न्याय किया है ..सिर्फ़ हाथो और आंखों में आए भावों से पूरा दृश्य जैसे सामने देखने वालों के लिए साकार कर दिया है ..बहुत दिनों के बाद एक अच्छा नाटक देखने को मिला ..

Thursday, December 04, 2008

हम गुनाहगार है तुम्हारे नन्हे मोशे ...



हम गुनाहगार है तुम्हारे
नन्हे मोशे ...
तुम कितने विश्वास के साथ
मेहमान बन कर आए थे
भारत की जमीं पर ...
नन्ही किलकारी ने
अभी देश ,भाषा के भेद को
कहाँ समझा था.....
अभी तो नन्हे मोशे
तुम जानते थे सिर्फ़
माँ के आँचल में छिपना
पिता का असीमित दुलार
और इन्हीं में सिमटा था
तुम्हारा नन्हा संसार ....


नही जाना था अभी तो तुमने
ठीक से बोलना और चलना
डगमग क़दमों से सिर्फ़ ......
अभी दुनिया की झलक को
सिर्फ़ खेल और खिलोनों में देखा था ..
अभी तो तुम समझ भी न पाए होगे
बन्दूक से निकलती गोलियों का मतलब
न ही तुम्हे याद रहेगा
अपनी माँ के चेहरे का वह सहमापन
पिता की हर हालत में तुम्हे बचा लेने की कोशिश
और न ही याद रहेगा ,उनका तुम्हे बचाते हुए
चुपचाप ,कभी न उठने के लिए सो जाना

शायद तुमने रो रो कर अपनी माँ को उठाया होगा
दी होगी पिता को आवाज़ भी कुछ खाने के लिए
पर सिर्फ़ शून्य हाथ आया होगा
कैसे तुमने
उन बदूक के साए में गुजारे होंगे
वह पल अकेले...
कैसे ख़ुद को उस
नफरत की आग से बचाया होगा

तुम्हारा मासूम चेहरा..
तुम्हारे बहते आंसू..
तुम्हारी वो तोतली बोली..
माँ -बाबा को पुकारने की आवाज़
उन वहशी दरिंदो को ना ही सुनाई दी
और न ही सहमा पायी

पर .....
हम कभी नही भूलेंगे कि
"अतिथि देवो भव"
कहे जानी वाली धरती पर
तुमने अपने जीवन के सबसे
अनमोल तोहफे और
भविष्य के आने वाले
सब अनमोल पल खो दिए

हम गुनाहगार है तुम्हारे
नन्हे मोशे ...

रंजू भाटिया [रंजना ]
३.१२.०८

Wednesday, December 03, 2008

इबारत

बच्चों सा मन और बच्चों सी इबारत
लिखना सरल नहीं होता
कितनी आसानी से वह
लिखते हैं और .......
फ़िर उसको मिटा देते हैं

पर बड़े होने पर हम
सही ग़लत के गणित में उलझे
अपनी ही लिखी ....
इबारतों को नही मिटा पाते ..
खरोच सी लगती है वह इबारते
और हम उस से ....
रिस्ते लहू को पौंछ भी नही पाते हैं ....

रंजना [रंजू ] भाटिया

Monday, December 01, 2008

किसी के लिए महज खेल - तमाशा है यह शायद

पल भर में कैसे ज़िन्दगी बदल जाती है
किसी के एक इशारे से यह खेल खेल जाती है

सुबह निकलते हुए अब एक पल सोचता है मन
देखे हम आते हैं या कोई खबर घर भर को दहला जाती है

मुस्कराते चेहरे डूब जाते हैं आंसुओं में
इन्सान की जान कितनी सस्ती हो जाती है

किसी के लिए महज खेल - तमाशा है यह शायद
पर यहाँ पल भर में किसी की दुनिया बदल जाती है

रंजू

२६ नवम्बर को जो कुछ बीता वह कभी भुलाया नही जा सकता ..लगातार सब देखते देखते जैसे सब शून्य सा नजर आने लगा है अब तक क्या लिखे न कुछ दिमाग में आ रहा है न लिखा जा रहा है ..सब एक ही जैसी हालत से गुजर रहे हैं ..आक्रोश गुस्सा , बेबसी जैसे लफ्ज़ सबके लिखने में ,बोलने में झलक रहा है ...आतंकवादी हमला शायद दिलों में दर्द देने को कम था जो राजनेताओं के बयानों ने और बढ़ा दिया ..उनकी नजरों में यह सब छोटी छोटी बातें हैं जो अक्सर बड़े बड़े शहरों में होती रहती है ...इसी बीच दिल्ली में वोट भी शुरू हुए ..किसी को वोट देने का दिल नही हुआ पर फ़िर लगा कि इस अधिकार का प्रयोग कर के जिन्हें लाना चाहिए उन्हें तो लाये ..पर सच कहूँ तो एक भी ऐसा वोट देने वक्त नजर नही आया .वोट दे दिया पर उसके नतीजे से अधिक अब लगता है कि कुछ ऐसा होना चाहिए जो हालात बदल दे और हर इंसान को सिर्फ़ प्यार की भाषा सिखा दे ...पर इस के लिए सबको एक साथ होना होगा और उसके लिए किसी इस प्रकार की दुखद घटना की जरुरत न पड़े ..कभी गुलजार ने इसी तरह के हालत पर कहा था ...

एक ख्याल था ....इन्कलाब का
इक जज्बा था
सन अठारह सौ सत्तावन !
एक घुटन थी ,दर्द था ,वो अंगारा था जो फूटा था
डेड सौ साल हुए हैं उसकी
चुन चुन कर चिंगारियां हमने रोशन की हैं
कितनी बार और कितनी बीजी है चिंगारियां हमने
और उगाए हैं पौधे उस रोशनी के !
हिंसा और अहिंसा से
कितने सारे जले जलाव
कानपुर, झांसी ,लखनऊ, मेरठ ,रुड़की ,पटना
आजादी की पहली पहल ज़ंग तेवर दिखलाये थे
पहली बार लगा साँझा दर्द है बहता है
हाथ नही मिलते पर कोई उंगली पकड़े रहता है
पहली बार लगा था खून खोले तो रूह भी खौल उठती है
भूरे जिस्म की मिटटी में इस देश की मिटटी बोलती है

पहली बार हुआ था ऐसा ..
गांव गांव
रुखी रोटियाँ बटती थी
ठंडे तंदूर भड़क उठते थे !
चंद उड़ती हुई चिंगारियों से
सूरज का थाल बज उठा था जब ,
वो इन्कलाब का पहला गरज था !
गर्म हवा चलती थी तब
और बिया के घोंसलें जैसी
पेडों पर लाशें झूलती थी
बहुत दिनों तक महरौली में
आग धुएँ में लिपटी रूहें
दिल्ली का रास्ता पूछती थी

उस बार मगर कुछ ऐसा हुआ
क्रांति का अश्व तो निकला था
पर थामने वाला कोई न था
जाबांजों के लश्कर पहुंचें थे
मगर सलाराने वाला कोई न था

कुछ यूँ भी हुआ ............
अब तो सब कुछ अपना है
इस देश की सारी नदियों का अब सारा पानी मेरा है
लेकिन प्यास नही बुझती

न जाने मुझे क्यों लगता है
आकाश मेरा भर जाता है जब
कोई मेघ चुरा के ले जाता है
हर बार उगाता हूँ सूरज
और खेतों को ग्रहण लग जाता है

अब तो वतन आजाद है मेरा
चिंगारियां दो ....चिंगारियां दो ...
मैं फ़िर से बीजूं और उगाऊं धूप के पौधे
रोशनी छि ड़ कूं जा कर अपने लोगों पर
मिल कर आवाज़ लगाएं
इन्कलाब
इन्कलाब
इन्कलाब !