Monday, November 24, 2008

कैसे अपनी पलको के आँसू....



तेरे होने के एहसास ही देता
दो पल की ख़ुशियाँ मुझको
तेरे होने से मुझे अपने
दर्द
की छावं का एहसास नही होता
अपने यह ग़म तुझे दे कर
क्यों
तुझे भी मैं ग़मगीन बना दूं
कैसे अपनी पलको के आँसू
मैं तेरी पलको में सज़ा दूं ........


देखा जिस पल तुमने मुझको
प्यार
की एक नज़र से
मेरी रूह का हर कोना
तेरे
होने से ही तो महका है
जो भी अब ख़ुशी है मेरे दामन में
वो तेरे होने से है
कैसे अपने दर्द से

मैं
तेरा भी दामन सज़ा दूं
कैसे अपनी पलको के आँसू
मैं
तेरी पलको में सज़ा दूं .........


तेरे प्यार के नूर से मिलता है
सकुन मेरी रूह को
तेरे एक पल के छुने से
मेरे
लबो पर तबसुम्म खिल जाता है
कैसे तेरी गुज़ारिश पर
तुझे
भी मैं अपने दर्द का कोई सिला दूं
अपने मिले इन प्यार के पलो को
क्यों दर्द के साए से मिला दूं
कैसे तेरी पलको में
अपने
दर्द के आँसू में सज़ा दूं ...




रंजू.........
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यह गाना आतिफ़ असलम ने गाया है ...बहुत ही सुंदर लफ्ज़ है इसके ....मैने इसका जवाब उपर लिखे लफ़्ज़ो में
देने की कोशिश की है ....
कुछ इस तरह - अतिफ़ असलम

[कुछ इस तरह तेरी पलकें
मेरी पलकों से मिला दे
आसूँ तेरे सारे
मेरी पलकों पे सज़ा दे]3

तू हर घड़ी हर वक़्त मेरे
साथ रहा है
हाँ है एह जिस्म कभी दूर कभी पार रहा है

जो भी गुम है यह तेरे
उन्हे तू मेरा बता दे

कुछ इस तरह तेरी पलकें
मेरी पलकों से मिला दे
आसूँ तेरे सारे
मेरी पलकों पे सज़ा दे

मुझको तो तेरे चेहरे पे
यह ग़म नही जज्जता
ज़ायज़ नही लगता
मुझे ग़म से तेरा रिश्ता
सुन मेरी गुज़ारिश इसे चेहरे से हाथा दे -2

कुछ इस तरह तेरी पलकें
मेरी पलकों से मिला दे
आसूँ तेरे सारे
मेरी पलकों पे सज़ा दे
--

Wednesday, November 19, 2008

इस सवाल का उत्तर कहाँ से पा लूँ ??

लम्हा दर लम्हा
बीत रही है जिंदगानी
सांसो के आवागमन से
मिले इसको रवानी
यूं ही साँसों की हलचल में
न जाने ...
कैसे तुम ज़िंदगी में आए
हवा के झोंको में बसे
मेरी हर धड़कन में
और नस -नस में समाये ..

बने वजह यूँ मेरे जीने की

जैसे भटके मुसाफिर को...
मिले कोई मंजिल का निशाँ
वक्त से कटे लम्हे को ...
फ़िर से मिले पनाह
और किसी भटकती रूह को
ख्यालो का तस्वुर दिख जाए ..

पर ....
जीने के लिए जरुरी है
साँसों का बाहर जाना

अब ...
सोच में है मेरा दिल
कैसे रूह में बसी साँसों से
तुम्हे मैं निकालूं
कैसे जीना है तुम बिन
इस सवाल का उत्तर कहाँ से पा लूँ ??


रंजू [रंजना] भाटिया

चित्र गूगल से

Thursday, November 13, 2008

लगता है पतझड़ बीत गया...


रुत निखरी ,हवा बहकी हुई
लगता है पतझड़ बीत गया
आओ ......
बुने फ़िर एक ख्वाब नया
और चल कर उनके होंठो पर
खिलते हुए टेसू देखे .....

यादों के झरोखों से
छंट रहा है
कुहासा कोई ...
माथे से हटा दे
सलवटों की लकीरें
पलकों पर गिरते हुए
गेसुओं के बादल देखे


बहके नहीं है
कब से इस
दिल के पैमाने
खुशबु के घेरे में ...
लिपटी हो रुत बसंती
अधरों पर मचलते हुए
लफ्जों के जाम देखे

गीली सीली
लकड़ी सा ...
सुलगने दे अब मन
क्यों देखे आँख में आंसू
जुगनू सी चमक ले कर
अब नई ज़िन्दगी हम देखे


मचल रहे हैं आँखों में
अनकहे से अरमान
मन की झील में
क्यों उठ रही है हिलोरें
इसके कांपते स्वर में
नए खिलते गुलाब हम देखे

मुबारक कहने आई है
आज यह भीगी हुई शब भी
उतर जाए
रूह की गहराइयों में
जिस्म के पार से
आज मोहब्बत का नगर देखे....

[रंजू भाटिया ]
१२-११-०८


[चित्र गूगल से ]

Tuesday, November 11, 2008

देवरानी जेठानी की कहानी


आज हम कितने ही हिन्दी उपन्यास पढ़ते हैं ..पर क्या आप जानते हैं कि पहला हिन्दी का उपन्यास कौन सा है .. हिन्दी का प्रथम उपन्यास है देवरानी जेठानी की कहानी" यह लिखा हुआ पंडित गौरी दत्त जी के द्बारा | इस उपन्यास को न केवल अपने अपने प्रकाशक वर्ष १८७० वरन अपनी लिखे जाने के लिहाज से भी पंडित गौरीदत्त की कृति देवरानी जेठानी की कहानी को हिन्दी का पहला उपन्यास होने का श्रेय जाता है | इस में लिखा इतना बढ़िया है कि उस समय का पूरा समाज ही ध्वनित होता है .जैसे बालविवाह ,विवाह में फिजूल खर्ची .स्त्रियों का गहनों से लगाव .बंटवारा .वृद्धों और बहुओं को समस्या .शिक्षा ,स्त्री शिक्षा ..अपनी अनगढ़ ईमानदारी में यह उपन्यास कहीं चूकता नहीं |

डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति

इसको भाषा इतनी जीवंत है कि आज के साहित्याकारों को भी दिशा दिखा देती है ..और अपने लेखन से नए समय के आने की आहट देती है | यदि डेढ़ सौ साल पहले की संस्कृति को जानना हो तो इस उपन्यास से बेहतर कोई साधन नही हैं ..| पंडित गौरी दत्त के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिन्दी के प्रचार प्रसार में अपनी सारी जायदाद तक लगा दी थी |इस के लिए उनकी समानता मालवीय जी .महावीर प्रसाद दिवेद्धी.बाल कुमुन्द गुप्त तक से की जाती है |

५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने

प्रथम हिन्दी उपन्यास देवरानी जेठानी की कहानी १८७० में मेरठ के एक लीथो प्रेस छापाखाना ऐ जियाई में प्रकाशित हुआ था |तब इसकी ५०० प्रतियाँ प्रकाशित हुई और मूल्य केवल १२ आने था | कुछ समय तक इस उपन्यास को नारी शिक्षा विषयक कह कर उसके समुचित गौरव से इसको वंचित रखा गया किंतु अपनी गहरी सामाजिक दृष्टि और मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यह एक ऐसा उपन्यास बन गया जिसकी तुलना किसी से नही की जा सकती है | छोटे आकार की सिर्फ़ पैंतीस पृष्ठों की यह कृति उस वक्त के सामाजिक समस्याओं को इतने अच्छे तरीके से बताती है कि प्रथम उपन्यास में ही यह कमाल देख कर हैरानी होती है | उस वक्त के इन समस्याओं के साथ साथ जीवन के चटख रंगों में पूरे प्रमाण के साथ लिखा गया है | इसकी भाषा उस वक्त की जन भाषा से जुड़ी हुई है | किस्सागोई का अनूठा प्रयोग है और लोक भाषा के अर्थ गर्भित शब्दों के सचेत प्रयोग किए गए हैं .जैसे ..

""जब वह सायंकाल को सारे दिन का थका हारा घर आता ,नून तेल का झींकना ले बैठती | कभी कहती मुझे गहना बना दे ,रोती झींकती ,लड़ती भिड़ती |उसे रोती न करने देती |कहती कि फलाने की बहू को देख ,गहने से लद रही है |उसका मालिक नित नई चीज लावे है |मेरे तो इस घर में आ के भाग फूट गए | वह कहता ,अरी भगवान् ,जाने भगवान रोटियों की क्यों कर गुजारा कर रहे हैं ,तुझे गहने -पाते की सूझ रही है?"

नारी शिक्षा ,बाल विवाह ,विधवा विवाह
नारी शिक्षा किस प्रकार सामजिक परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निबाह कर सकती है इस पर उस वक्त भी उपन्यास कार सोचता है ..उस वक्त बाल विवाह खूब हो रहे थे .किंतु छोटी बहू और उसका पति छोटेलाल अपने पुत्र मोहन को खूब पद्वाना चाहते हैं ."नन्हे की सगाई कई जगह से आई पर छोटेलाल और उसको बहू ने फेर दी | और यह कहा की पन्द्रह -सोलह वर्ष का होगा तब विवाह सगाई करेंगे |" उस समय के समाज में यह बहुत बड़ी बात थी बहुत बड़ा निर्णय | छोटे छोटे बच्चो ५ या ६ साल के इस से भी पहेल विवाह हो जाया करते थे |विधवा विवाह की तो हिन्दी उपन्यास में बहुत बाद में चर्चा की गई शायद सेवा सदन में प्रेमचंद के उपन्यास में किंतु प्रथम उपन्यास में इस और भी ध्यान दिया गया | छोटे लाल की बहू की मामा की बेटी का नौ वर्ष की आयु में विवाह हुआ था ,और उसका पति पतंग उडाते हुए छत से नीचे गिर गया और प्राण त्याग दिए | इस तरह वह मात्र दस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई | वह सात फेरों की गुनाहगार अपने जीवन के सब रास रंग खो देती है | जिसके अभी खेलने खाने के दिन थे वह दिन उसको कठिन वैधव्य में बीतने पड़े | पुनर्विवाह उस वक्त सबसे बड़ा पाप समझा जाता था ,पर १८७० में लिखे इस उपन्यास में यह क्रांतिकारी कदम भी दिखाया गया है |

लुप्त होते शब्द

बहुत से इस उपन्यास में इस तरह के शब्द भी आये हैं जो शायद कुछ समय बाद बिल्कुल विलुप्त हो जायेंगे या हो चुके हैं | जैसे मंझोली ..यह शब्द बैलगाडी और बैल टाँगे के मध्य की चीज के लिए उस वक्त इस्तेमाल किया जाता था | मांदी शब्द का इस्तेमाल लम्बी बीमारी के लिए हुआ है किंतु अब मेरठ क्षेत्र से यह शब्द पुरानी पीढी के साथ गायब होता जा रहा है | नौमी को आज भी कौरवी जन भाषा में नौमी ही कहा जाता है नवमी नहीं | उस वक्त के जन्म मरण .विवाह गौना ,आदि के समस्त लोकाचार का बहुत ही रसपूर्ण वर्णन है इस उपन्यास में |

इस तरह यह उपन्यास हमारी हिन्दी भाषा के लिए एक अनमोल धरोहर है | जिसको पढ़ कर उस वक्त के समय को समझा जा सकता है | अपने कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से देवरानी जेठानी की कहानी हिन्दी का प्रथम गौरव पूर्ण कृति ही नहीं है वरन यह हिन्दी उपन्यास के इतिहास में अपना दुबारा मूल्यांकन भी मांगती है |


यह लेख इस बार ९.११.०८ राजस्थान पत्रिका के रविवारीय अंक में भी प्रकाशित हुआ है ..आप इसको वहां भी पढ़ सकते हैं ...


Thursday, November 06, 2008

कहानी पॉपकोर्न की ..


कल लिखी थी बाल उद्यान में कहानी पॉपकोर्न की .आपने कल न पढ़ी हो तो आज के अमर उजाला के ब्लॉग कोना में पढ़े ...:)