Monday, June 30, 2008

शायद आज भी ..[अल्पना ..रंजू ]

शायद आज भी तू दिल के आस पास है
हर पल बस तेरा ही ख्याल है ,अहसास है


नादान दिल है करता है क्या क्या ख्वाइशें
जानती हूँ जर्रे को आसमान की आस है
शायद आज भी ......
मृगतृष्णा सी बसी है मन में तृष्णा कोई
बुझती नही यह कैसी सहरा की प्यास है

शायद आज भी

आंखो में था मेरा कोई अनकहा सा बादल
दिल की ज़मीन का भीगा सा लिबास है

शायद आज भी ..
कैसे कैसे ख्वाब तू दे गया मुझे
न टूटने वाला यह भ्रम ख़ास है !!

शायद आज भी तू दिल के आस पास है
हर पल बस तेरा ही ख्याल है ,अहसास है


मेरी लिखी इस रचना को गाया है अल्पना वर्मा जी ..मुझे उनको आवाज़ में हमेशा ही एक कशिश सी लगी है ..उस से बढ कर लगा है उनका जनून जो गाने के लिए है ..यह सुने और बताये कैसा लिखा गया और कैसा गाया गया है ...ताकि अल्पना और मैं आगे के लिए सुधार कर सके .शुक्रिया :)

Friday, June 27, 2008

आवारा मौसम और अल्हड सी कविता


कभी कभी कैसे दिल होता है न ..कि बस कुछ न करो और पलटो पन्ने बीती जिंदगी के ....और बुनो उस से फ़िर कोई नया सपना .....कभी लगेगा कि बस आज का दिन है कर लो जितना काम करना है क्या पता अगली साँस आए या न आए ..कभी कभी यूँ हो जाता है की क्या जल्दी है अभी तो बहुत समय है जीना है बरसों ...:) दिल की यह आवारा बातें हैं जो शांत नही बैठने देती हैं ......खिड़की से बाहर देखती हूँ तो बारिश नटखट हो कर कभी लगता है बरस जायेगी .कभी यूँ शांत हो कर बैठ जाती है की जैसे किसी शैतान बच्चे को बाँध कर बिठा दिया गया है ....दिल भी आज यूँ इस मौसम सा ही हो रहा है ..खुराफाती दिमाग और इस आवारा मौसम से मासूम दिल का क्या ठिकाना किस और चल पड़े :) सोचा कि चलो आज डायरी की बजाये उन साइट्स को पढ़ा जाए जब नेट से दोस्ती हुई थी और लफ्जों की जुबान यूँ ही कुछ भी लिख देती थी .......मैं करती हूँ जब तक ख़ुद से बातें ..आप पढ़े यह एक अल्हड सी लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ ...

जब चली यूँ सावन की हवा
दिल के तारों को कोई छेड़ गया
वक्त के सर्द हुए लम्हों को
फ़िर से तू रूह में बिखेर गया

इक नशा सा छाया नस नस में
जब तू नज़रो से बोल गया
रंग बिखरे इन्द्र धनुष से
जब तू बस के साँसों में डोल गया

इक मीठी सी कसक उठी
जब हुई खबर तेरे आने की
फूलों की खुशबु सा महक कर
मेरा अंग अंग कुछ बोल गया


12 july 2006

Wednesday, June 25, 2008

सच के रंग अलग अलग

जिंदगी कई रंग से में ढली है और दिल न जाने क्या क्या ख्याल बुनता रहता है ..वही ख्याल हैं यह कुछ लफ्जों की जुबान

सच के रंग


कभी उतार कर
अपने चेहरे से नकाब
ज़िंदगी को जीना सीखो
मिल जायेगी राह
किसी मंजिल की
बस सच से जुड़ना सीखो..



चेहरे का नूर
छलक उठा
जब भी याद आया
तेरे होंठों की मोहर का
अपनी गर्दन पर लगना ..


जुस्तजू
तेरे मीठे बोलो
तेरी प्यारी सी छवि
अपन वजूद पर
फैली हुई तेरी खुशबु
बस एक ओक में भरूँ
और चुपके से पी जाऊं ..


खामोशी

तेरे दिल की अन्तर गहराई से
मेरी नज़रों से दिल में उतरती ..


आदत
साँस लेने की
टुकडों में जीने की
वक्त बीतने की
टूट कर फ़िर से जुड़ने की
शायद जिंदगी कहलाती है ..

तेरा साथ
झूठे रेशमी धागों में
कसा हुआ एक रिश्ता
उपर से हँसता हुआ
अन्दर ही अन्दर दम तोड़ रहा है !!

Saturday, June 21, 2008

अभी नही आना सजना

आज संगीत दिवस है ..तो आज सुनते हैं यह प्यारा सा गाना सोना की आवाज़ में .एल्बम का नाम है बोलो न .
अभी नही आना सजना
मोहे थोड़ा मरने दे
इन्तजार करने दे
अभी नही आना सजना
भेजियो संदेसा
आप नही आना
थोड़े दूर रह कर मोहे तरसना
अभी तो मैं चाहूँ
सारी सारी रात जगना
अभी नही आना सजना २

रुक रुक आना धीरे धीरे चलना
भूलना डगरिया रास्ते बदलना
नही अभी मोहे नही है गरवा लगना

अभी न जगाओ मन ही मन सपना
अभी संग मुख न लाओ मुख अपना
अभी तो मैं चाहूँ आस लगाये रखना
अभी नही आना सजना ....नही नही आना
अभी आए तो दर नही खोलेंगे
आवाज़ दोगे तो हम नही बोलेंगे


Thursday, June 19, 2008

नाम की महिमा

नाम भी कैसे हम चीजों को दे देते हैं न ..कई बार दिमाग में आता है कि आलू , का नाम यदि आलू न होता तो क्या होता? और यदि यह नाम है तो कैसे किसने क्या सोच कर रखा ? आलू प्याज का तो पता नही कि यह नाम कैसे किसने रखे .पर टेडी एक खिलौना [बच्चो को क्या मुझे भी बहुत पसंद है :) उसका नाम कैसे टेडी कैसे पड़ा यह रोचक जानकारी मैंने एक जगह पढ़ी .. इसके खिलोने के नाम के पीछे बहुत ही रोचक कहानी है ..बात सन १९०२ की है इस से पहले आज सबको भाने वाला यह खिलौना टेडी बियर नही था जिस टेडी बियर को हम देख के इतना खुश होते हैं यह अमरीका के एक राष्टीयपति का उपनाम है जिनका नाम था थियोडोर रूसवेल्ट उन्ही का निक नेम टेडी था .एक बार इन्हे जंगली जानवरों की रक्षा के लिए देश से अपील करनी थी शिकार के शौकीन लोग शेर ,बाघ भालू आदि का शिकार किया करते थे इस से अमेरिका की सरकार तंग आ चुकी थी मगर पता नही किसी कार्टूनिस्ट को इस में सरकार की दोहरी नीति दिखायी दी उसने १९०२ में एक कार्टून बनाया जिस में राष्ट्रिय पति रूजवेल्ट हाथ में बन्दूक थामे खड़े हैं और उनके पीछे दो खूबसूरत भालू बने थे और नीचे भालू को न मारने की अपील की गई थी ..इस कार्टून की पूरे देश भर में खूब चर्चा हुई और इसके यूँ चर्चा का विषय बनने पर एक दूकानदार ने ग्राहकों का ध्यान अपनी दूकान की और आकर्षित करने के लिए इस कार्टून से भालू को ध्यान में रख कर इसकी एक खिलौना आकृति बनायी और सरकार से इसको टेडी पुकारे जाने की इजाजत मांगी राष्ट्रीय पति के इस उपनाम को इस भालू के लिए टेडी नाम मिल गया और यह तभी से टेडी बियर के नाम से मशहूर हो कर बिकने लगा ..


नाम की महिमा बहुत है ..नाम ही किसी की पहचान बनाते हैं या उसके होने के अस्तित्व की पहचान है ..पर यदि नाम ही किसी का गुम जाए तो ....एक बार इसी दर्द पर कुछ पंक्तियाँ लिखी गई थी ...


तन तो थक कर चैन मेरा पा गया
पर मन क़ी थकन अब कौन उतारे
खड़ी हूँ मैं भीड़ में तन्हा ऐसे
जैसे कोई किश्ती हो साहिल किनारे

एक शोर सा दिल में जाने कैसा है यह
एक आग दिल में कोई जैसे तूफ़ान उठा ले
अन्जाना अंधकार है मेरे चारो तरफ़
करता है दूर सितारो से भरा गगन कैसे इशारे

बिखरें हैं चारों तरफ़ धूल भरे यह रास्ते
मेरी मंजिल है कहाँ, कौन सा रास्ता अब पुकारे
मिलने को मिलता है यहाँ सारा जहान हमको
एक नही मिलता ज़ो प्यार से मेरा नाम पुकारे !!

Tuesday, June 17, 2008

मेरे लबों पर सहरा की प्यास रहने दे



मेरे लबों पर सहरा की प्यास रहने दे
इस दिल की लगी को यूं ही जलती बुझती रहने दे

मैं हूँ जो उदास तो क्यों तडपता है तेरा दिल
अभी कुछ देर और मेरे पास अपने अहसास रहने दे

मत देख कितने दर्द से भरा है मेरा दिल
उदास लबों पर यूं ही हँसी का लिबास रहने दे

ना नजरों से पिला तू मुझको प्यार के प्याले
मेरे नसीब में है जो खाली गिलास रहने दे

नही उम्मीद कि अब कोई थामेगा हाथ मेरा
मेरी आंखों में अब भी मंजिल की तलाश रहने दे !!



यह रचना मेरे द्वारा लिखित है और श्वेता मिश्र द्वारा गायी गई है जल्द ही मेरी लिखी कुछ रचनाओं की सी डी ऋषि जी द्वारा गयी भी आने की उम्मीद है आपको यह कैसी लगी जरुर अपने विचार यहाँ दे ..शुक्रिया
--

Wednesday, June 11, 2008

कुछ यूं ही ....क्षणिकायें


1.गूंगी
मेरी आवाज़
अब ख़ुद मुझसे
पराई हो गयी है
इस भीड़ भरी दुनिया में
बेजान सी हो कर
ख़ुद को ही गूंगी कहती हूँ !!

2.ज़िंदगी

डगमग डगमग सी
बहकी है चाल मेरी
तू ही मुझे संभाल ले
तुझसे हो तो सीखा है
मैंने चलना और
आगे बढ़ाना !!

3 )सन्नाटा
तेज़ झोंको में चलना
तेरे बस की बात नही है
धीमी हवा का बहता सन्नाटा
यही कह के आगे बढ़ गया !!

4 )बारिश

बारिश की पहली बूँदे
तपते दिल पर यूँ गिरी हैं
कि सारा दर्द उबलकर
आँखो से टपकने लगा है !!

5:)इश्तहार
ज़िंदगी न जाने क्यों कभी कभी
इक इश्तेहार सी नज़र आती है
अन्दर दर्द के आंसू में लिपटी
पर बाहर से मुस्कराती है

6)वक्त

जो बीत गया
वह याद नही
आने वाले कल की
किसी को ख़बर नहीं
सच तो बस 'आज' है
और इस वक्त
तुम मेरे साथ हो!!

Tuesday, June 10, 2008

गुलजार जिनके लिखे गीत महकते हैं प्यार के एहसास से

हमारी हिन्दी फिल्में गानों के बिना अधूरी है ..कई गाने इतने अच्छे होते हैं कि यह फ़िल्म देखने पर मजबूर कर देते हैं ..किसी भी फ़िल्म की लोकप्रियता संगीत की धुन और उस में आए गानों के बोल भी होते हैं ..हमारी हिन्दी फिल्मों में यह परम्परा पारसी थियटर से आई और इसी परम्परा ने शायरों ,गीतकारों को सबके सामने रखा ।आज के लिखे जाने वाले गीतों से सबको शिकायत है कि पहले के गीत दिल को छूते थे पर आज कल के गीत गुब्बारे की तरह है जो आए और कब चले गए पता ही नही चलता कुछ जुबान पर चढ़ते हैं पर दिल में नही उतरते हैं ..पर आज के इस दौर में कई अच्छे गीतकार हैं जैसे जावेद अख्तर ,गुलजार .निदा फाज़ली आदि ..जिनके लिए लिखना सिर्फ़ तुकबंदी करना नही है ..वह लफ्जों में जान डाल देते हैं उसके अन्दर की गहराई को शिद्दत से महसूस करवाते हैं।

इसी कड़ी में गुलजार जी का नाम बहुत अच्छे से दिलो दिमाग पर असर करता है ।आम बोलचाल के लफ्जों को वह यूं पिरो देते हैं कि कोई भी बिना गुनगुनाए नही रह सकता है ..जैसे कजरारे नयना और ओमकारा के गाने सबके सिर चढ़ के खूब बोले .आज की युवा पीढ़ी खूब थिरकी इन गानों पर ।सच में वह कमाल करते हैं जैसे उनके गाने में आँखे भी कमाल करती है .उस से सबको लगता है कि यह उनके दिल कि बात कही जा रही है ।वह गीत लिखते वक्र जिन बिम्बों को चुनते हैं वह हमारी रोज की ज़िंदगी से जुड़े हुए होते हैं इस लिए हमे अपने से लगते हैं उनके गाने ।ओ साथी रे [ओमकारा] का गाना में तेरी मेरी अट्टी बट्टी ..दांत से काटी कट्टी ..जैसे लफ्ज़ को जादुई एहसास देना गुलजार जैसे गीतकार ही कर सकते हैं



प्यार और रोमांस से जुडा जो जादुई एहसास जो वो पिरोते हैं अपने लफ्जों में वह सबको अपने दिल के करीब सीधा दिल में ही उतरता सा लगता है ,अपने इन गानों से उन्होंने लाखो करोड़ों प्रेम करने वाले दिलो को शब्द दिए हैं। आज की युवा पीढ़ी के भावो को भी गुलजार बखूबी पकड़ कर अपने गीतों में ढाल लेते हैं ।उनके कुछ गीत हमेशा ही हर पीढ़ी में लोकप्रिय रहेंगे जैसे मेरा कुछ समान--- इजाजत ,इस मोड़ से जाते हैं तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नही ..आंधी,तुम पुकार लो .खमोशी ..रोज़ रोज़ आंखो तले फ़िल्म के सभी गाने आदि आदि अनेक गाने .लिस्ट तो बहुत लम्बी है उनके लिखे गानों की ।किस को यहाँ लिखूं किसको न लिखूं .मुझे सब बेहद पसंद है ..

..वह जो शब्द अधिकतर इस्तेमाल करते हैं रात ,चाँद ,पानी आदि उन्होंने इन शब्दों को बहुत से अलग अलग अर्थ दिए हैं ..वह शब्दों से जी ध्वनि पैदा करते हैं वह अर्थ हीन नही होती है रोमांस में डूबी उनकी हर कविता उनके लिखे हुए हर लफ्ज़ को और रोमांटिक एहसास से भर देती है ..हमेशा इनके लिखे का इंतज़ार रहेगा और इनके लिखे गाने सबके दिलों में गूंजते रहेंगे ....!!

अभी उन्ही का लिखा एक गाना सुनिए .मुझे यह बेहद पसंद है ..:)

Sunday, June 08, 2008

धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ

धूप है क्या और साया क्या है अब मालूम हुआ
यह सब खेल तमाशा क्या है अब मालूम हुआ

हंसते फूल का चेहरा देखूं और भर आई आँख
अपने साथ यह किस्सा क्या है अब मालूम हुआ

हम बरसों के बाद भी उसको अब तक भूल न पाये
दिल से उसका रिश्ता क्या है अब मालूम हुआ

सेहरा सेहरा प्यासे भटके सारी उम्र जले
बादल का एक टुकडा क्या है अब मालूम हुआ





जगजीत सिंह

Friday, June 06, 2008

अचानक आ गई हो वक्त को मौत जैसे.मीना कुमारी के डायरी के पन्नों से

मीनाकुमारी ने जीते जी अपनी डायरी के बिखरे पन्ने प्रसिद्ध लेखक गीतकार गुलजार जी को सौंप दिए थे । सिर्फ़ इसी आशा से कि सारी फिल्मी दुनिया में वही एक ऐसा शख्स है ,जिसने मन में प्यार और लेखन के प्रति आदर भाव थे ।मीना जी को यह पूरा विश्वास था कि गुलजार ही सिर्फ़ ऐसे इन्सान है जो उनके लिखे से बेहद प्यार करते हैं ...उनके लिखे को समझते हैं सो वही उनकी डायरी के सही हकदार हैं जो उनके जाने के बाद भी उनके लिखे को जिंदा रखेंगे और उनका विश्वास झूठा नही निकला उन्ही की डायरी से लिखे कुछ पन्ने यहाँ समेटने की कोशिश कर रही हूँ ...कुछ यह बिखरे हुए से हैं .पर पढ़ कर लगा कि वह ख़ुद से कितनी बातें करती थी ..न जाने क्या क्या उनके दिलो दिमाग में चलता रहता था ।
४ -११ -६४

सच मैं भी कितनी पागल हूँ ,सुबह -सुबह मोटर में बैठ गई और फ़िर कहीं चल भी दी लेकिन तब इस पहाड़ के बस नीचे तक गई थी ऊपर, तीन मील तक तब तो पैदल चलना पड़ता था ।अब सड़क बनी है कच्ची तो है पर मोटर जा सकती है प्रतापगढ़--भवानी का मन्दिरअफजल और बन्दे शाह का मकबरा फ़िर ५०० सीढियाँ ... यह बर्था कहती थी सुबह चलना चाहिए...चलना चाहिए पर इसके लिए दुबले भी तो होना चाहिए इसलिए इतना बहुत सा चला आज ।
फ़िर वही नहाई नहाई सी सुबह ...वही बादल दूर दूर तक घूमती फिरती वादी भी उसी शक्ल में घूमते फिरते थे
ठहरे हुए से कितनी चिडियां देखी कितने कितने सारे फूल, पत्ते चुने पत्थर भी
******

रात को नींद ठीक से नही आई वही जो होता है जहाँ जगता रहा इन्तजार करता रहा
लेकिन सच यूं जगाना अच्छा है जबरदस्ती ख़ुद को बेहवास कर देना
यहाँ तो जरुरी नही यहाँ तो खामोशी है चैन है ,सुबह है दोपहर है शाम है
आह .....!!!!
कल सुबह उठ नही सकी थी तो बड़ी शर्म आरही थी सच दरवाज़े के बाहर वह सारी कुदरत वह सारी खूबसूरती खामोशी अकेलापन ..सबको मैं दरवाज़े से बहार कर के ख़ुद जबरदस्ती सोयी रही । क्यों ? क्यों किया ऐसा मैंने
तो रात को जगाना बहुत अच्छा लगता है सर्दी बहुत थी नही तो वह दिन को उठा कर बहार ले जाती कई बार दरवाज़े तक जा कर लौट आई सुबह के करीब आँख लगी इसलिए सुबह जल्दी नही उठ पायी ।

५ -११- ६४

रात भी हवाओं की आंधी दरवाज़े खिड़कियाँ सब पार कर जान चाहती थी शायद इस लिए कल भी मैं जाग गई और सुबह वही शोर हैं फ़िर से । सच में बिल्कुल दिल नही कर रहा है कि यहाँ से जाऊं । यही दिन अगर बम्बई में गुजरते तो बहुत भारी होते और यहाँ हलांकि ज्यादा वक्त होटल में रहे हैं फ़िर भी सच इतनी जल्दी वक्त गुजर गया है कई आज आ गया ।इतनी जल्दी प्यारे से दिन सच जैसे याद ही नही रहा की कल क्या होगा ?

जनवरी -१ -१९६९

रात बारह बजे और गिरजे के मजवर ने आईना घुमा दिया ।कितनी अजीब रस्म है यह फूल और सुखी हुई पत्तियों को चुन चुन कर एक टीकों खाका बनाया
सदियों में हर नुक्ते को
रंगीन बनाना होगा ,
हर खवाब को संगीत बनाना होगा
यह अजम है या कसम मालूम नही

जनवरी -२ -१९६९

आज कुछ नही लिखा सोचा था अब डायरी नही लिखूंगी लेकिन सहेली से इतनी देर नाराज़ भी नही रहा जा सकता न ।आह ....!!!आहिस्ता आहिस्ता सब कह डालो ..आज धीरे धीरे कभी तो इस से जी भरेगा आज नही तो कल....

अप्रैल - २१ -१९६९

अल्लाह मेरा बदन मुझसे ले ले और मेरी रूह उस तक पहुँचा दे चौबीस घंटे हो गए हैं जगाते जागते ....अब कल की तारिख में क्या लिखूं शोर है भीड़ है सब तरफ़ और दर्द --उफ़ यह दर्द

मई- २ -१९६९

तारीखों ने बदलना छोड़ दिया है अब क्या कहूँ अब ?

मई -३ -१९६९

कब सुबह हुई कब शाम कब रात सबका रंग एक जैसा हो गया है तारीखे क्यों बनायी हैं लोगो ने ?
मई -४ -१९६९
यादों के नुकीले पत्थर
लहू लुहान यह मेरे पांव
हवा है जैसे उसकी साँसे
सुलग रही धूप और छावं

उनकी डायरी के यह बिखरे पन्ने जैसे उनकी दास्तान ख़ुद ही बयान कर रहे हैं और कह रहे हैं

अचानक आ गई हो वक्त को मौत जैसे
मुझे ज़िंदगी से हमेशा झूठ ही क्यों मिला ?
क्या मैं किसी सच के काबिल नही थी !""

वह जब तक जिंदा रही धड़कते दिल की तरह जिंदा रही और जब गुजरी तो ऐसा लगा की मानो वक्त को भी मौत आ गई हो उनकी मौत के बाद जैसे दर्द भी अनाथ हो गया क्यूंकि उस को अपनाने वाली मीना जी कहीं नही थी ..

आप सब ने इन कडियों को पढ़ा और पसंद किया .मुझे होंसला मिलता रहा और उनके बारे में लिखने का ..पर उनकी डायरी के यह बिखरे पन्नों ने जैसे मुझसे कहा की कितना लिखूंगी इस बेहतरीन अदाकारा के बारे में यह तो वह शख्ससियत हैं जिसके बारे में जितना लिखो ,पढो उतना ही कम है ..अभी के लिए बस इतना ही .

Monday, June 02, 2008

देखा जो आईना तो मुझे सोचना पड़ा

देखा जो आईना तो ,मुझे सोचना पड़ा
ख़ुद से न मिल सका तो मुझे सोचना पड़ा

उसका जो ख़त मिला तो मुझे सोचना पड़ा
अपना सा वो लगा तो मुझे सोचना पड़ा

मुझको था यह गुमान कि मुझी में है एक अदा
देखी तेरी अदा तो मुझे सोचना पड़ा

दुनिया समझ रही थी कि नाराज़ मुझसे हैं
लेकिन वो जब मिला तो मुझे सोचना पड़ा

एक दिन वो मेरे ऐब गिनाने लगा करार
जब ख़ुद ही थक गया तो मुझे सोचना पड़ा





जगजीत सिंह चित्रा [सुनी जब यह खूबसूरत गजल तो मुझे सोचना पड़ा :) कि आप के साथ इसको शेयर करूँ ..आप किस सोच में डूब गए इसको सुन कर ..कैसी लगी आपको बताये :)]