Friday, May 30, 2008

आँचर पे कजरे की यह झलक ,यह तेरी पलक या मेरी पलक

मीना जी के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग थी उनकी शायरी ..उन्हें शायरी से इतना प्यार था कि उनका बस चलता तो वह बात बात में शेर कहती ..उनका जीवन ग्रीक ट्रेजडी भाषा में लिखी गई परियों की कहानी थी ..पाकीजा उनकी आखिरी फ़िल्म थी पर उसकी सफलता उनकी मौत के तीन हफ्ते बाद देखने को मिली ..

अकेलपन का एहसास जो एक डूबते सितारे या भूले बिसरी नायिका को होता है वह एहसास और कोई नही महसूस कर सकता ,इस एहसास से पार पाने को क्या क्या कोशिश करनी पड़ती है और जब लाख कोशिश करने पर भी वह अपनी मंजिल नही पाता तो वह अपने दिल से पूछता है कि--' कहाँ खो गए हैं मेरे मन की शान्ति और चैन ."और फ़िर से एक नए सम्बन्ध कि तलाश में निकल पड़ता है मीना कुमारी के साथ भी यही हुआ वह खूबसूरत प्यार भरे शब्दों और भाषा में उलझ कर रह गई थी पर उनके अन्दर सहन करके की ताक़त बहुत थी..

उनके जाने के बाद भी बहुत से लोग उन्हें आज तक भुला नही पाये हैं ..वह सेट पर सबकी मीना दीदी थी ..कभी कोई उन्हें मैडम से नही बुलाता था ..वह भी सबको प्यार से सेट पर सब वर्कर्स को उनके नाम से बुलाती थी ..एक बार उनसे किसी ने पूछा भी था कि आपको सब नाम याद कैसे रह जाते हैं ..उन्होंने जवाब दिया कई फ़िल्म के इतने बड़े डायलाग याद हो जाते हैं तो यह तो सिर्फ़ नाम हैं और उनके बारे में कहा जाता है कि मजाक में लोग उन्हें टेप रिकाडर कहा करते थे वह इस लिए कि उनके सामने एक डायलाग चाहे वह जितना भी लंबा क्यों न हो बोल दो वह बिना रुके वैसा का वैसा दोहरा देतीं थी.

उनकी कुछ आदते बहुत अजीब थी .जिन्ह कारण वह भी नही जानती थी बस पूछो तो कहती थी की माँ ने कुछ ऐसा ही बताया था जैसे कोई पानी का गिलास ले कर आए तो इनकार मत करो पी लो ..क्यों पी लो कारण उनको भी नही पता था बस यही कहती अच्छा नही होता माँ कहती थी ..कोई उनकी नाक छुए तो फौरन उसकी नाक छू लेती थी पूछने पर कहती थी नाक छू लेने से नाक वाले के रोग लग जाते हैं इसलिए कोई आपकी नाक छुए तो फौरन अपने रोग उससे वापस ले लेने चाहिए ..अपनी कंघी किसी को फूंके बगैर इस्तेमाल नही करने देती थी और ख़ुद भी फूंके बगैर किसी की कंघी इस्तेमाल नही करती थी .

सफ़ेद रंग उनका ख़ास रंग था, मोतिया उनका ख़ास फूल ,गरारा कमीज उनका ख़ास लिबास , माथे पर बड़ी सी बिंदी और गाने का बेहद शौक था ..बँटाते रहना उनकी आदत थी .....जो अपने पास रखा वह सिर्फ़ जगह जगह से इकट्ठे किए हुए पत्थर कई तरह के रंग बिरंगे जिनके नाम भी उन्होंने ख़ुद ही रखे हुए थे किसी का मन्दिर किसी का संगमेल किसी का आसमान ..सफ़ेद सा पत्थर उन्हें बहुत पढ़ा लिखा लगता और काला पत्थर उन्हें गुंडा नज़र आता .....यह पत्थर उनके सोने वाले कमरे में सजे रहते .उनकी बहन खुर्शीद ने उनके बाद उनके पत्थरों को संभाल कर रखा .जिन्हें वह आपडी कहती थी ..अब वह पत्थरों को अजीब से नाम क्यों देती थी यह वही जाने या यह राज उनकी किसी डायरी में मिल जाए क्यूंकि उनकी डायरी में सिर्फ़ दिनों और जगह के नाम ही नही बहुत से फूल और पत्तियों और पत्थर के नाम भी लिखे हुए हैं
उनकी सहेलियों में सिर्फ़ दो नाम का जिक्र होता है एक रजिया का जिसे वह रज्जो कहती थी दूसरी उनकी हेयर ड्रेसर बर्था ....हमराज बहुत थे पर हर किसी से उन्होंने कोई न कोई राज अपना छिपाये रखा .....अपने आखरी सफर का राज का पता भी उन्होंने किसी को नही दिया था ..बस शायद जानती थी इस लिए चुपचाप चली गई और फ़िर वापस नही लौटी ....उनकी डायरी में एक जगह लिखा है उन्ही के द्वारा की ...इस जहाँ में मोहब्बत तो न थी ,मुरब्बत का क्या हुआ ...?" शायद यह उन्होंने तब लिखा जब उनकी ज़िंदगी और मौत के बीच कुछ ही महीनों का फासला रह गया था ..वह भीतर ही भीतर टूट चुकी थी ..दवा क्या असर करेगी जब जीने की इच्छा ही बाकी न रह गई हो ..

यूं न ढलक


आँचर पे कजरे की यह झलक
यह तेरी पलक या मेरी पलक

यह राहे जो टेढी मेढ़ी हैं

इस मोड़ से बस उस मोड़
दोस्त है या दुश्मन मेरा
सर पर जो टंगा है नीला फलक

सब लोग ही प्यासे रह जाए

पैमाने कुछ इस तरह झलक

आँख ने कसम दी है आंसू को

गालों पर हरदम यूं न ढलक


Thursday, May 29, 2008

वक्त और रिश्ता


कौन कहता है कि..
हो जाता है एक नज़र में प्यार
दो दिल न जाने कब एक साथ
धड़कने लगते हैं...
तोड़ लायेंगे चाँद सितारे
और बिछा देंगे फलक
क़दमों के नीचे
ऐसे सिरफिरे वायदे भी
कसमों की जुबान होते हैं,

पर सब खो जाता है
कुछ ही पलों में...
वो दर्द को छूने की कोशिश..
वो इंतज़ार के बेकली के लम्हे..
आंखो में सजते सपने..
आग का दरिया तक
पार करने का जनून
न जाने कहाँ चला जाता है ?

रह जाता है तो सिर्फ़
एक भोगा हुआ वक्त
जो दो जिस्मों
मैं बंट कर
सिर्फ़ ...एक
पिघला हुआ एहसास
रह जाता है !!

Monday, May 26, 2008

शो मस्ट गो ओन......

महीने के आखिरी दिन चल रहे हैं ...रसोई घर में डब्बे खाली पड़े हमे मुंह चिढा रहे हैं .[जिन में हमे बुश का चेहरा नज़र आ रहा है ].सच में हम बहुत खाने लगे हैं ..पहले तो ऐसा नही होता था ..लगता है बुश साहब की नज़र लग गई हमे ..अब डिब्बे भी क्या करे पहले कभी हरे भरे रहते थे तो कारण था कि किलो दालें उतने में आ जाती थी जितनी में अब उनकी मात्रा आधी भी नही रह गई है .... इस बार जब सबसे सस्ते कहे जाने वाले बाज़ार से राशन लेने गए तो वहाँ जा कर जब आटे दाल का भाव देखा तो सच्चीमुची नानी बहुत याद आई
जो चीज बहुत पहले किलो के हिसाब पहले ही आधा किलो लानी शुरू कर दी थी इस बार के रेट देख कर वह उस से भी आधी कर दी और जब बिल बना तो वह कहीं पहले से ज्यादा था ..तब लगा कि सच में बुश जी सही कहते हैं ..... इतना बिल और समान आधा .... सब्जी के भाव आसमान को छू रहे हैं तब उस पर यह पढने को मिले कि प्याज कहीं कहीं १ रुपए किलो बिक रहा है है तो लगता है कि वही अपनी दुनिया बसा ले जहाँ जहाँ सब सब्जी सस्ती है यानी की एक बार फ़िर से खानाबदोश बन जाए ..पर महंगा क्या करेगा और मिडल क्लास क्या करेगी चार दिन हल्ला बोल करेगी और फ़िर से वही सब होने लगेगा यानी की शो मस्ट गो ओन..

एक ख़बर में पढ़ा की सयुंक्त राष्ट्रीय खाद्य कृषि संगठन के मुताबिक पूरी दुनिया में ४.०८ करोड़ टन का जो अनाज बचा है... उस से बमुश्किल तीन चार सप्ताह ही दुनिया का पेट भरा जा सकता है और अगर बढती महंगाई पर रोक न लगाई गई तो कुछ महीनों में विश्व बैंक में गरीबों की संख्या में दस करोड़ की बढत हो जायेगी इसको सुन कर कई देशों में हेती ,बंगलादेश अफ्रीका आदि कई देशों में दंगे हो गए .....भूख से बेहाल लोगों को यह सुन के हैरानी होगी कि अमरीका और चीन जैसे देशों ने मोटे अनाज से एथनाल नमक जीवाश्म इंधन बनाने में इस बीच दस करोड़ मोटे अनाज का इस्तेमाल किया ..पर महंगाई सिर्फ़ भारतीयों के खाने से ज्यादा बढ़ी है ..चालिए आप लोग अपना ईंधन अभियान जारी रखिये क्यूंकि शो नही रुकना चाहिए और न ही आपके देश की तरक्की ......

इस वक्त सिर्फ़ भारत ही नही पूरा संसार महंगाई की मार झेल रहा है १०० रूपए कमाने वाला मजदूर आज रोटी नही खा सकता है और हम अब सब आपस में कुछ इस तरह जुड़े हुए हैं कि एक देश में होने वाली सिथ्ती का प्रभाव दूसरे देशो पर भी पड़ने लगता है ...जैसे तेल गैस का महंगा होना पूरी अर्थव्यवस्था को हिला देता है और यह यह हमारी ही ग़लत नीति का नतीजा है हमारे योजनाकार उद्योगिक उत्पादन .शेयर बाज़ार मुद्दों आदि के बारे में तो सोच रहे हैं पर भारत एक खेती वाला देश है उसके बारे में कुछ नही सोचा जा रहा है शायद वह नही समझ पा रहे हैं कि जब भूख लगती है तब कागज नही अनाज चाहिए ...सब चीजो को आगे बढ़ा के खेती को उपेक्षित कर दिया है किसान आज आत्महत्या कर रहे हैं खेती वाली जमीन पर कंक्रीट इमारतों के जंगल बन रहे हैं ..और जो खेती लायक जमीन बची है उस पर फूलों की खेती का लालच दिया जा रहा है ताकि उसको बाहर भेजा जा सके जिस से कुछ अमीर लोग अपनी प्रेमिका को दे के खुश हो जाए भले ही यहाँ बच्चो के मुहं का निवाला छीन जाए ..गलोबल वार्मिंग से तो वैसे ही मौसम के मिजाज का पता ही नही चल रहा है ...रही सही कसर यहाँ पूरी हुए जा रही है .

अभी से कुछ न सोचा गया तो बहुत ही मुश्किल हो जायेगा फ़िर से नई नीति और खेती के बारे में सोचना होगा .ताकि आगे आने वाली समस्या से निपटा जा सके ...सुना है चीन ने स्पेस में कुछ बीजों को भेजा था उस को जब धरती पर वापस उगाया गया तो बड़े बड़े अच्छे नतीजे सामने आए हैं ..कई किलो का कद्दू तरबूज जिस में गुण कई गुना ज्यादा हैं ..बड़े बड़े तरबूज ..और भी कई अच्छे नतीजे सामने आए हैं .पर बाकी देशों का उसको इस में सहयोग नही मिल रहा है .बुश साहब यही तरीके अजमा ले शायद संसार का भला हो जाए ...और फ़िर आप हमारी रसोई को नज़र न लगा सके ..और हमारी रसोई फ़िर से हरी भरी हो जाए ..और शो चलता रहे पर हँसता खेलता ..!!

Sunday, May 25, 2008

तेरे आने की जब खबर महके

तेरे आने की जब खबर महके
तेरी खुशबू से सारा घर महके

शाम महके तेरे तस्वुर से
शाम के बाद फ़िर सहर महके

रात भर सोचता रहा तुझको
जहनों दिल मेरे रात भर महके

याद आए तो दिल मुरबर हो
दीद हो जाए तो नज़र महके

वो घड़ी दो घड़ी जहाँ बैठे
वह जमीन महके वह शजर महके [जगजीत सिंह की गायी एक और खूबसूरत गजल ]



Saturday, May 24, 2008

जरा यूं भी सोचिये ...

अमित जी आपकी पोस्ट के जवाब में मैं यही कह सकती हूँ ..

बच्चे घर मे दोनों के प्यार के लिए तरसते रह जातें हैं नई पीढ़ी माँ बाप के प्रेम से वंचित है आरुषी का केस इसलिए (खास तौर से समूची नारी जाति के लिए एक आई ओपनर है यही घड़ी है नारी समाज अब समाज राष्ट्र भावी पीढ़ी के हित में घरो की ओर अपना रुख कर ले


http://ultateer.blogspot.com/


सवाल कई है और जवाब भी कई ...? पर क्या यह सचमुच इतना आसान है ...परिवार टूटने लगे हैं बिखरने लगे हैं ..? और एक महिला घर पर रहे .क्या आपको लगता है की इस से समस्या सुलझ जायेगी ..."?महिला कभी कोई भी काम करे अपने परिवार को भूल नही पाती है ...पर जो हालत आज कल पैदा हो रहे हैं उस में उसका नौकरी करना भी उतना ही जरुरी है जितना परिवार को वक्त देना .और ना सिर्फ़ वक्त बेवक्त की मुसीबत के लिए उसके अपने लिए भी अपने पेरों पर खड़ा होना सवालंबी होना जरुरी है यही वक्त की मांग है ....पर इस में सबका सहयोग चाहिए ...बढ़ती महंगाई , बदलता समाज हमारे रहने सहने का ढंग सब इतने ऊँचे होते जा रहे हैं कि एक की कमाई से घर नहीं चलता है .. और यह सब सुख सुविधाये अपने साथ साथ बच्चो के लिए भी है ..बात महिला के घर पर रहने की या न रहने की नही है असल में बात है माता पिता दोनों को वक्त देने की अपने बच्चो को अपने बच्चो से निरन्तर बात करने की ..और उन को यह बताने की हम हर पल आपके साथ है ..आप क्या समझते हैं जिन घरों में महिलाए रहती है वहाँ बच्चे नही बिगड़ते हैं ..??आज का माहोल जिम्मेवार है इस के लिए ..अपने आस पास नज़र डालें जरा ..दिन भर चलता टीवी उस पर चलते बेसिरपैर के सीरियल अधनंगे कपड़ो के नाच ,माल संस्कृति ,और लगातार बढ़ती हिंसा .. जिन्हें आज कल बच्चे दिन रात देखते हैं इंटरनेट का बढता दुरूपयोग ...मोबाइल का बच्चे बच्चे के हाथ में होना ..क्या आप रोक पायेंगे या एक माँ घर पर रहेगी तो क्या यह सब रुक जायेगा ..नही ..यह आज के वक्त की मांग है और माता पिता यह सुविधा ख़ुद ही बच्चो को जुटा के देते हैं .ताकि उनका बच्चा किसी से ख़ुद को कम महसूस न करे और यही सब उनके दिमाग में बचपन से बैठता जाता है और तो और उनके कार्टून चेनल तक इस से इस से बच नही पाये हैं ..अब घर पर माँ है तब भी बच्चे टीवी देखेंगे और नही है तब भी देखेंगे ..इन में बढती हिंसा और हमारा इस पर लगातार पड़ता असर इन सब बातो को बढावा दे रहा है ..नेतिकता का पतन उतनी ही तेजी से हो रहा है जितनी तेजी से हम तरक्की की सीढियाँ चढ़ रहे हैं ..हर कोई अब सिर्फ़ अपने बारे में सोचता है...और जब उस राह पर मिलने वाली खुशी में कोई भी रोड अटकाता है तो बस उसको मिटाना है हटाना है अपने रास्ते से यही दिमाग में रहता है ....संस्कार माँ बाप दोनों मिल कर बच्चे को देते हैं ..शिक्षा का मध्याम ज्ञान को बढाता है और यही नए रास्ते भी सुझाता है .. पर जीवन के इस अंधाधुंध बढ़ते कदमों में जरुरत है सही दिशा की सही संस्कारों की ...और सही नेतिक मूल्यों को बताने की ...सिर्फ़ माँ की जिम्मेवारी कह कर पुरूष अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नही हो सकता वह भी घर की हर बात के लिए हर माहोल के उतना ही जिम्मेवार है जितना घर की स्त्री ..यदि वह अपना आचरण सही नही रख पाता है तो एक औरत माँ कितना संभाल लेगी बच्चे को आखिर वह सब देखता है अपने जीवन का पहला पाठ वह घर से ही सिखाता है हर अच्छे बुरे की पहचान पहले उसको अपने माँ बाप दोनों के आचरण से होती है वही उसके जीवन के पहले मॉडल रोल होते हैं ...मैं तो यही कहूँगी कि आज के बदलते हालात का मुकाबला माता पिता दोनों को करना है और अपने बच्चो को देने हैं उचित सही संस्कार ..बबूल का पेड़ बो कर आम की आशा करना व्यर्थ है ..और नारी को सिर्फ़ घर पर बिठा कर आप इन बिगड़ते हालात को नही सुधार सकते ..यह हालात हम लोगो के ख़ुद के ही बनाए हुए हैं तो अब इनका मुकाबला भी मिल के ही करना होगा ..नही तो यूं ही अरुशी केस होते रहेंगे और इंसानियत शर्मसार होती रहेगी ...आप इसको जरा यूं भी सोचिये ..

Friday, May 23, 2008

शहतूत की डाल पर बैठी मीना ...

मीना कुमारी में एक सबसे अच्छी बात यह थी कि वह बहुत अच्छी इंसान थी तो सबसे बुरी बात यह थी कि वह बहुत जल्दी सब पर यकीन कर लेतीं थी और वही इंसान उन्हें धोखा दे के चला जाता था ..गुलजार जी ने मीना जी की भावनाओं की पूरी इज्जत की उन्होंने उनकी नज्म ,गजल ,कविता और शेर को एक किताब का रूप दिया जिस में उन्होंने लिखा है

शहतूत की डाल पर बैठी मीना
बुनती रेशम के धागे

लम्हा लम्हा खोल रही है

पत्ता पत्ता बीन रही है

एक एक साँस बजा कर सुनती है सोदायन

अपने तन पर लिपटाती जाती है

अपने ही धागों की कैदी

रेशम की यह कैदी शायद
एक दिन अपने ही धागों में घुट कर मर जायेगी !

इसको सुन कर मीना जी का दर्द आंखो से छलक उठा उनकी गहरी हँसी ने उनकी हकीकत बयान कर दी और कहा जानते हो न वह धागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं मुझे तो प्यार से प्यार है ..प्यार के एहसास से प्यार है ..प्यार के नाम से प्यार है इतना प्यार कोई अपने तन पर लिपटा सके तो और क्या चाहिए...

मीना जी की आदत थी रोज़ हर वक्त जब भी खाली होती डायरी लिखने की ..वह छोटी छोटी सी पाकेट डायरी अपने पर्स में रखती थी ,,गुलजार जी ने एक बार पूछा उनसे कि यह हर वक्त क्या लिखती रहती हो ..तो उन्होंने जवाब दिया कि मैं कोई अपनी आत्मकथा तो लिख नही रही हूँ बस कोई लम्हा दिल को छु जाता है तो उसको इस में लिख लेती हूँ कोई बात जहन में आ जाती है तो उसको इस में कह देती हूँ बाद में सोच के लिखा तो उस में बनावट आ जायेगी जो जैसा महसूस किया है उसको उसी वक्त लिखना ज्यादा अच्छा लगता है मुझे ...और वही डायरियाँ नज़मे ,गजले वह विरासत में अपनी वसीयत में गुलजार को दे गई जिस में से उनकी गजले किताब के रूप में आ चुकी हैऔर अभी डायरी आना बाकी है गुलजार जी कहते हैं पता नही उसने मुझे ही क्यों चुना इस के लिए वह कहती थी कि जो सेल्फ एक्सप्रेशन अभिवय्कती हर लिखने वाला राइटर शायर या कोई कलाकार तलाश करता है वह तलाश उन्हें भी थी शायद वह कहती थी कि जो में यह सब एक्टिंग करती हूँ वह ख्याल किसी और का है स्क्रिप्ट किसी और कि और डायरेक्शन किसी और कहा कि इस में मेरा अपना जन्म हुआ कुछ भी नही मेरा जन्म वही है जो इन डायरी में लिखा हुआ है ...
किंतु उन में अपनी जिंदगी जीने का एक अनूठा साहस था ,अभिनय के समय वह अपने दर्द पर काबू पा लिया करती थी और हर मिलने वाले से बहुत मुस्करा के मिला करती थी ..इसी दर्द को सहने की शक्ति ने उनसे कहलवाया था ..

हँस हँस के जवां दिल के हम क्यों न चुने टुकडे
हर शख्स की किस्मत में इनाम नही होता ...

सही में कई की किस्मत में दर्द के सिवा कुछ नही होता ..उनकी कुछ यादो को यहाँ इस तरह याद किया गया

मीना कुमारी के बारे में कमाल अमरोही बताते हैं कि बासी रोटी बहुत पसंद थी जब एक दिन नौकर रात को रखना भूल गया तो उन्होंने बच्चो की तरह रोना शुरू कर दिया वह कहते हैं कि वह कान की बहुत कच्ची थी वह लोगों के बहकावे में बहुत आसानी से आ जाती थी ..जब वह बच्ची थी तो बताती है कि उन्हें भी और बच्चों कि तरह कहानी सुनने में बहुत मज़ा आता था वह सब बहने मिल कर अम्मा या दादी को कहानी सुनाने के लिए मनाया करती थी ...और कई तरह की कहानी सुना करती थी .परियों की राजा की दूर देश की ..हर किस्म के किस्से और कहानियाँ बहुत मज़ा आता था तब ..अब तो हँसे हुए भी ज़माना हो गया वह यह बात कह के चुप हो गई थी ..

एक बार उनसे किसी ने पूछा कि उन्हें क्या पसंद है तो उन्होंने हँस के कहा कि मुझे मौत पसंद है ...क्यों?पूछने वाले ने हैरानी से पूछा तो उन्होंने कहा इसका जवाब तो शायद किसी किताब में न मिले यह अपनी निंजी पसंद है..मैं इस शब्द में एक शान्ति अमन और आराम महसूस करती हूँ जिसकी चुप्पी हर बीतते लम्हे में एक दिलचस्प कहानी सुनाया करती है ..मुझे भीड़ अच्छी नही लगती ..मुझे लड़ाई झगडा अच्छा नही लगता बस अपने में रहना अच्छा लगता है ..तब अपने ही दिल की कहानी होती है और उस कहानी को सिर्फ़ आप ही सुन सकते हैं ..शोर शराबे और झगडों में में बेहद खालीपन है एक शायर ने बिल्कुल ठीक कहा है ..

मौत ..तूफ़ान की एक उभरती लहर
ज़िंदगी ...एक हवा का झन्नाटा
अश्क...
वीरान ..कहकशां का शहर

कहकहा ...एक उदास सन्नाटा


शेष अगले अंक में

Thursday, May 22, 2008

क्या आज का सिनेमा टीवी हमे सिर्फ़ यांत्रिक मानव बना रहा है ?

आज का युग केबल युग है ..दिन की शुरुआत होती है टीवी को आन करने से और फ़िर दिमाग पर छाने लगता है जादू रुपहले परदे का ..कभी यह चैनल कभी वह चैनल कहीं नाचते सितारे कहीं हत्या और कहीं एक्सीडेंट .इन सब के बीच में हर ख़बर चैनल पर भविष्य बताता हुआ कोई बाबानुमा व्यक्ति ...अखबार के विज्ञापन से शुरू हुई अभिनेता और अभिनेत्री को देखने की यात्रा रात को किसी घटिया पिक्चर या बेहूदे से किसी सीरियल की कहानी पर खत्म होती है ..पहले फ़िल्म देखते थे तो लगता था जैसे कुछ अपने अन्दर समेट के ले आए हैं ..अब सिनेमा हाल में जाते ही बत्ती गुल होते ही दिमाग की बत्ती भी गुल हो जाती है ..जैसे दिमाग तीन घंटे तक किसी समाधि में चला जाता है और पिक्चर खत्म होते ही शुरू हो जाता है दिमाग में बिम्बों और छवि का छाना..पहले हम सिनेमा देखते थे अब सिनेमा हमे देखता है क्यूंकि इस आने वाली अब तस्वीरे इतनी आक्रामक और उतेजित होती हैं जो हमारी कल्पना की दुनिया से हमे कहीं दूर ले जाती हैं ......आज कल बनने वाली फिल्मों में कुछ एक आध फिल्म ही दिल को छू पाती है पर अधिकतर तो पता नही कब आई कब गई की तर्ज़ पर ही बन रही हैं .पहले सिनेमा में सिर्फ़ दो ही सिथ्ती होती थी एक गांव और एक शहर की संस्कृति अब यह जो सिनेमा की छवि है वह सिर्फ़ सिनेमाई संस्कृति है जो हमे सच की दुनिया से दूर लेती जा रही है .हमारे दिलोदिमाग को टीवी और सिनेमा के इन दृश्यों ने इतना कब्जा कर लिया है कि अब हमारे दिमाग दिल में कल्पना के लिए जैसे कोई जगह ही नही बची है दिमाग में हमारे ..यदि कोई कुदरत का नज़ारा कुछ देर के दिल को किसी कल्पना तक ले भी जाना चाहता है तो उसी वक्त कोई अजब सी पोशाके पहने इस तरह का गाना शुरू हो जाता है कि हमारा ध्यान उस कुदरत के नजारे से निकल कर उन्ही की अदाओं और पोशाकों में उलझ के रह जाता है, जिस में रह जाता है सिर्फ़ शब्दों का नकली दिखावा बड़े भव्य सेट्स झिलमिलाती अधनंगी सी पौशाके जिनको हम तो देख ही रहे हैं पर उस पर त्रासदी यह है की आने वाली भावी पीढ़ी को भी हम कुछ दे नही पा रहे हैं इन के द्वारा अब चाहे वह सिनेमा हो या केबल से जुडा घर का टीवी बक्सा ....क्यों आखिर हो रहा है ऐसा ? क्यूंकि यह सब हमारे जीवन की किसी भावात्मक और कलात्मक सोच को नही बताते बलिक यह सिर्फ़ कुछ पल के लिए एक उतेजना देते हैं जो हमारी किसी सोच को कल्पना नही दे पाते हैं ..यदि यही हाल रहा तो भविष्य में सिर्फ़ फेंत्सी ही ज़िंदगी बन के रह जायेगी और हम टीवी या सिनेमा नही देखेंगे यह हम पर इतना इस कदर हावी हो जायेंगे की हम कल्पना अपनी सोच सब भूल के सिर्फ़ एक यांत्रिक मानव बन के रह जायेंगे ..

Wednesday, May 21, 2008

मौसम को इशारों से बुला क्यों नही लेते...

मौसम को इशारों से बुला क्यों नहीं लेते
रूठा है अगर वो तो मना क्यों नहीं लेते

दीवाना तुम्हारा कोई गैर नहीं
मचला भी तो सीने से लगा क्यों नही लेते

ख़त लिखकर कभी और कभी ख़त को जलाकर
तन्हाई को रंगीन बना क्यों नही लेते

तुम जाग रहे हो मुझको अच्छा नही लगता
चुपके से मेरी नींद चुरा क्यों नही लेते

मौसम को इशारों से बुला क्यों नही लेते [जगजीत सिंह .]..दिल्ली का मौसम तो वैसे ही सावन आया भूल के हो गया है ..इस मौसम में यह दो गाने अच्छे लगे आप भी सुने :)




मैनू तेरा शाबाब ले बैठा .. [जगजीत सिंह .].


Tuesday, May 20, 2008

कैलाश मानसरोवर



कैलाश मानसरोवर की यात्रा इस साल एक जून से शुरू हो रही थी पर अभी अभी सुना की यह रोक दी गई है चीन के द्वारा बिना कारण बताये कोई वजह नही बताई है इस फैसले की ..पहला जत्था १ जून को दूसरा ४ जून को और तीसरा इसके १ हफ्ते के बाद जाना था हर जत्थे में सहायकों और कर्मचारी समेत करीब १०० लोग होते हैं ..पहले दो जत्थों को रोक दिया गया है और यह कहा गया है कि तीसरा जत्था अपने समय से जायेगा अब यह तिब्बत समस्या की वजह से हुआ है यह तो चीन वाले अधिकारी ही बता सकते हैं ...
भम भोले के इस स्वर्गलोक को देखने की इच्छा किस के दिल में जागृत नही होती है पर यह इतना आसान नही है बहुत ही मुश्किल यात्रा है यह हिमालय पार जाना कोई आसान बात भी तो नही है मैं तो वहाँ जाने वाले यात्रियों के अनुभव पढ़ती जाती हूँ और जो निश्चय दिल में जागता है कि एक बार तो यहाँ जरुर जाना है उस रास्ते की मुश्किलें देख कर जैसे सब एक पल में दिल डगमगा जाता है यह यात्रा तिब्बत में कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील की परिक्रमा करने से पूरी होती है ..यह यात्रा बहुत ही मुश्किल मानी जाती है इस में १९ हज़ार ५०० फुट की ऊंचाई तक की यात्रा करनी पड़ती है पहले लिखी किताबों और लेखो में जो पढने में आया है कि यहाँ तिब्बती डाकू का बहुत डर हुआ करता था पर इसके साथ ही जब इसके भौतिक गुणों को पढ़ा तो इसके बारे में पढ़ें तो उत्सुकता और बढती गई .... तिब्बत में चीनी घुसपेठियों के बाद १९४८ में यह स्थान भारतीय यात्रियों के लिए और व्यापारियों के लिये बंद कर दिया गया था बाद में १९ ८१ में इसको फ़िर से चीन की सरकार ने यह खोल दिया ..यह वह स्थान है जो हर हिंदू व एशिया में रहने वाले के दिल में धड़कता है कुदरत में अपना विश्वास मनुष्य ने बहुत पहले ही तलाश करना शुरू कर दिया था और इस परिकर्मा में तो छिपी है जीवन से मुक्ति की भावना और आज का मनुष्य भी इस से मुक्त नही हो पाया है

कई तरह कीजांच पड़ताल आवेदन शरीर की स्वस्थता और फ़िर उसके बाद चयन करने कि मुश्किल पार करने के बाद कई हजारों में से कुछ को जाने कि अनुमति मिलती है वहाँ या यह कहो जिस पर भोले बाबा की कृपा रहे वही इस यात्रा को सम्पूर्ण कर पाता है ...इस यात्रा को महज एक धार्मिक यात्रा समझाना कहना कम होगा क्यूंकि यह तो यात्रा है समाज संस्कृति वहाँ की प्राकतिक परिस्थति और आज के तिब्बत को जानने की और हिमालय के उस पर जहाँ भोले बाबा का निवास है उसको देखने की .....मानसरोवर झील में बिखरे वहाँ के कुदरती नज़ारों को निहारने की ...यहाँ पर खड़े शुभ्र शिखरों से मिलना तिब्बत के बौद्धिक मठो को देखना याक और कई तरह घुमंतू पशुचारकों से मिलना और कई जगह से आए तीर्थ यात्रीओं के साथ समय बिताना सच में एक नया अनुभव होगा जो शायद कभी नही भूल सकता है ..यह यात्रा अल्मोड़ा से धारचूला.तवा घाट ,मांगती ,गाला ,बुदधी ,गुंजी ,कालापानी और नवीधांग से लिपू दर्रा होते हुए चीन की सीमा में प्रवेश करती है चीन के इलाके में चीनी सुरक्षा के घेरे में यात्री आगे बढ़ते हैं ...कैलाश पर्वत की परिकर्मा करने के लिए यात्रियों को ५५ किलोमीटर चलना पड़ता है
पढ़ के लिख के जाने की इच्छा बलवती हो उठती है .पर जायेगा तो वही न जिसका बुलावा आएगा .और यह राजनितिक समस्याए खत्म होंगी .मानसरोवर झील को देखने का सपना हर भारतीय के दिल में रहता है भम भम भोले का दर्शन पाना इतना सरल भी तो नही .भम भम भोले की जय ..:)

Sunday, May 18, 2008

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे ,मैं एक शाम चुरा लू अगर बुरा न लगे

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे ,मैं एक शाम चुरा लू अगर बुरा न लगे
मुन्नी बेगम का गाया यह गाना बेहद खूबसूरत लगता है मुझे ..आपको कैसा लगा ..बताये सुन के ..क्या आपका दिल चुराया इस गाने ने :)


Friday, May 16, 2008

मचलते हुए दिल की धड़कन न सुलझे....


साहित्यक मीना कुमारी की माँ इकबाल एक उर्दू साहित्यिक परिवार की बेटी थीं उर्दू साहित्य में उन्हें रूचि थी उनेक पिता जनाब शाकिर मेरठी अपने वक्त के ख्याति प्रपात कहानी कार शायर और साहित्यकार थे बच्चो के लिए वह अपने अंदाज़ में विशेष रूप से कहानी लिखा करते थे ..मीना जी के पिता जी मास्टर अलीबक्श स्टेज पर हारमोनियम बजाय करते थे ...काम कम मिलता था मीना की पहली फ़िल्म की आय से घर चलाना शुरू हुआ उनका बचपन खेल खिलोने में नही स्टूडियो के आर्क लेम्पों और बड़े बड़े पंखों के शोर में गुजरा ... कई साल तक बाल कलाकार के रूप में काम किया रुपया भी कमाया और एक बंगला भी खरीदा वह उनकी माँ इकबाल के नाम ही रखा गया

इस तरह मीना कुमारी की फिल्मी यात्रा आगे बदती गई कई लोग सामने आए कुछ पल साथ चले तमाम नामी निर्देशकों के साथ काम करने का अवसर मिला इन्हे निर्माता निर्देशक केदार शर्मा के साथ फ़िल्म चित्रलेखा में काम किया उनका काम लेने का ढंग अपना ही था वह बहुत प्यार से सभी कल्कारों को संवाद और दृश्य समझाया करते थे और जब वह किसी के काम से खुश हो जाते थे तो इनाम के फलस्वरूप उसको एक दुअन्नी देते थे बाद में उन्होंने इसको चवन्नी कर दिया एक बार इसी फ़िल्म की शुटिंग के दौरान मीना ने कहा कि अब तो आपके पास बहुत सी चवन्नी दुअन्नी हो गई है अब तो रेट बड़ा दीजिये और उन्होंने मीना जी के दृश्य के अभिनय से खुश हो कर उन्हें १०० रूपए दिए थे एक बार एक फ़िल्म काजल में एक डायालग लिखा था ॥औरत और धरती एक समान होते हैं मानों कितना कुछ अपने सीने में दबा के रखते हैं यही डायालग जब केदार शर्मा जी ने मीना जी के सामने दोहराया तो मीना ने चिढ कर कहा आप बार बार यह कहते हैं कि औरत और धरती एक समान हैं लेकिन मैं कहती हूँ कि यह बात बिल्कुल ग़लत है औरत सहनशील होती है हर अत्याचार अन्याय को सहन कर लेती है जबकि धरती कभी सहनशील नही रहती है उस में भूकम्प आते हैं तूफ़ान आते हैं वह हर अत्याचार का बदला लेती है लेकिन औरत कहाँ लेती है उसको लेना चाहिए उसको अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ बोलना चाहिए ,,सुन के सब वही चुप हो गए

अपनी फ़िल्म फ़र्ज़न्द ऐ वतन से लेकर मीनाकुमारी की आखरी फ़िल्म गोमती के किनारे तक मीना कुमारी का अपना वय्क्तितव अपना चरित्र साथ चलते रहे मानो मीना हर चरित्र में ख़ुद को जीती रहीं और उन्हें इसके लिए कई इनाम पुरस्कार भी मिले
मीना कुमारी यदि एक मशहुर अभिनेत्री होती तो शायद उनके बारे में कुछ यादो को समेटा जा सकता है .पर इसके साथ ही वह एक बेहद भावुक शायरा भी थी उन्होंने न ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई को जीया बलिक एक सच्चाई बन गई जिन पर कई किताबे लिखी गई और हर साल उनकी पुण्य तिथि पर उन्हें याद किया जाता है उनके लिखे से भी ...उनकी एक रचना ..

मेरी तरह कोई न हो ..

अल्लाह करे कि कोई भी मेरी तरह न हो
अल्लाह करे कि रूह की कोई सतह न हो

टूटे हुए हाथों से कोई भीख न मांगे

जो फ़र्ज़ था वह क़र्ज़ है पर इस तरह वह भी न हो
.....
उलझे

मचलते हुए दिल की धड़कन न सुलझे
जो काजल से छूटे तो आँचल से उलझे

ग़मगीन आंखों से पोंछों शिकायत

कहो बूंद से यूं न बादल से उलझे

तंग आ गए हैं दिल की एक एक जिद से

खुदा की पनाह कैसे पागल से उलझे


****मीना कुमारी की कलम से ..
शेष बहुत बाकी है दास्तान उस महजबीं की जिसको पढ़ते लिखते न जाने कितने लफ़ज़ दिल में मचल उठते हैं

Thursday, May 15, 2008

जो तू आन्खियो के सामने नही रहना ते बीबा मेरा दिल मोड़ दे

जो तू आन्खियो के सामने नही रहना ते बीबा मेरा दिल मोड़ दे ..एक सूफी गीत जो सीधा दिल में उतर जाता है
बताये क्या मैंने झूठ कहा :)

Wednesday, May 14, 2008

यह मेरा दीवानापन है ...

यह गाना मुझे बहुत पसंद आया ..... है तो पुराना पर नए में भी यह उतना ही खूबसूरत लगा है जितना अपने पुराने रूप में .....आपको कैसा लगा बताये जरुर


Tuesday, May 13, 2008

न जाने कौन सी उम्मीद पर दिल ठहरा है [मीना कुमारी]

मीना कुमारी की एक आदत थी पत्थर के टुकडे जमा करने की .जब भी वह आउटडोर शुटिंग पर जाती या पहाड़ पर जाती तो टेढे मेढे , गोल -मटोल पत्थर उठा के ले आती उन पत्थरों को वह अपने पलंग के पास रखती थी और उनसे घंटो बात करती या घर वालों को दिखा के कहती कि देखो यह पत्थर कितना उदास है ,चमचमाता पत्थर देखती तो कहती कि यह प्रेम में डूबा हुआ है इसलिए चमक रहा है ....एक बार उन्होंने एक व्यक्ति के हाथ में एक पत्थर का छोटा सा टुकडा दिया और कहा कि "'इसको ले जाओ और अपने पास रखना तुम्हारा दिल भी पत्थर की तरह है और यह पत्थर का टुकडा मोम की तरह जो मेरे प्रेम में पिघल कर छोटा सा हो गया है अब इसको यहाँ वापस नही रखना ..."" पता नही उस व्यक्ति ने उस पत्थर के टुकड़े का फ़िर क्या किया पर उसका पत्थर दिल मोम हो गया और वह मीना जी से बेहद प्रेम करने लगा ..फूल और पत्थर नाम भी उन्ही का दिया था धर्मेन्द्र इस फ़िल्म के नायक थे
यह फ़िल्म बहुत कामयाब रही और धर्मेन्द्र का केरियर इस से संवर गया उनका कहना था कि "हर नए आने वाले को सहारे की जरुरत होती है ,इस फ़िल्म इंडस्ट्री में आने वाला हर नया फनकार उस बच्चे की तरह होता है जो किसी का सहारा चाहता है और जब कोई उसकी तरफ़ हाथ बढ़ा देता है तो वह यहाँ टिक जाता है उसके पांव यहाँ जम जाते हैं ...आज हमारे मजबूत क़दमों के नीचे सहारा देने वालों की बुनियाद रखी ह्युई है ...एक मीना कुमारी बनने से यह इंडस्ट्री किसी और को मीना कुमारी बन जाने से नही रोक सकती न ही इन्कार कर सकती है मदद करने से हम किसी का मुकद्दर तो नही बदल सकते हैं पर उसकी मदद कर सकते हैं मुकद्दर बनाने में तो उसकी मेहनत और लगन ही काम आएगी ''..कितना सही कहा था मीना जी ने

कहते हैं की पाकीजा के बनने के दिनों में मीना जी के चेहरे पर एक अजब सी चमक थी और एक अनोखा संतोष कमाल अमरोही ने पाकीजा शुरू तो बहुत पहले की थी लेकिन बाद में मत भेदों के कारण इसका काम रुक गया इसकी प्लानिंग पहले १९५८ में की गई थी जब दोनों साथ थे महल स्टूडियो तब किराए पर लिया गया था और कई भव्य सेट लगाए गए थे ...तब इस में मीना कुमारी के साथ अशोक कुमार और धर्मेन्द्र थे फ़िर मीना कुमारी सफलता अकेलेपन और शराब के दौर से गुजरती हुई अस्पताल तक पहुँच गई ...कभी ठीक तो कभी बीमार होने का सिलसिला चल पड़ा और तब उन्होंने फ़िर से इस फ़िल्म को शुरू करने की जिद की फ़िर मीना जी के ही पहल करने पर दुबारा इस फ़िल्म को शुरू किया गया और बहुत जोश के साथ उन्होंने इस में सहयोग दिया पर धर्मेन्द्र की जगह राजकुमार को लाया गया कई बार वह बीमारी के कारण सेट पर काम नही कर पाती थी मगर कमाल अमरोही ने उनकी बीमारी को ध्यान में रखते हुए ऐसी तरकीबें अजमाई की काम भी हो गया और कोई फ़िल्म का दृश्य कमजोर भी नजर नही आया ... उदाहरण के लिए यह गाना चलते चलते मुझे यूं ही कोई मिल गया था ..के फिल्माकन के दौरान उनसे खडा भी नही हुआ जा रहा था ऐसे में कमाल अमरोही जी ने उन्हें बिठा कर उनके चेहरे की सिर्फ़ भाव कैमरे में कैद कर लिए थे और डांस का बाकी हिस्सा अन्य नर्तकियों पर फिल्माया था वह भी इस खूबी के साथ यह गीत एक अमर क्लासिक गीत बन गया जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी उसका हर दृश्य ही क्लासिक था आज भी यह फ़िल्म उतने ही शौक से देखी जाती है ...गुलाम मोहम्मद द्वारा संगीत बद्ध गाने सभी सुपर हिट थे .....यह फ़िल्म शुरू में हिट नही हुई मगर बाद में यह सुपर डुपर हिट साबित हुई और मीना जी इस सफलता को नही देख पायी न ही गुलाम मोहम्मद साहब अपन संगीत की लोकप्रियता देख पाये से उस वक्त उन्होंने उस वक्त कहा था कि शायद यह ज़िंदगी का आखरी पड़ाव है मेरा सब हिसाब चुकता कर के ही खुदा के पास जाऊँगी और एक शेर अपनी दर्द भरी आवाज़ में सुनाया था ...

हर नए जख्म पर अब रूह बिलख उठती है
होंठ गर हंस भी पड़े तो आँख छलक उठती है

ज़िंदगी एक बिखरता हुआ दर्दाना है
ऐसा लगता है अब खत्म हुआ अफसाना है ..


मीना जी को को अपनी मौत का शायद पहले ही एहसास हो गया था तभी तो उन्होंने अपना यह आखरी हिसाब भी चुकता कर दिया था और जाते मीना कुमारी ख़ुद को ,पाकीजा को ,कमाल अमरोही को फिल्मी इतिहास के पन्नों में अमर कर गई वह वह फिल्मों के चमन का नायाब फूल थी जो बरसों बहुत इंतज़ार के बाद खिलता है और अपनी खुशबु से सारे चमन को महका देता है

मसरत पे रिवाजों का पहरा है
न जाने कौन सी उम्मीद पर दिल ठहरा है

तेरी आँख में झलकते हुए इस उम्र की कसम ,

ऐ दोस्त !दर्द से रिश्ता बहुत ही गहरा है ..
मीना कुमारी


पढी गए लेखो और किताबों के आधार पर है यह सब जानकारी ...अभी बहुत कुछ बाकी है वह अगले अंक में

Monday, May 12, 2008

विज्ञापन का असर कहानी से ज्यादा ?

सिनेमा हमेशा से ही समाज पर अपना प्रभाव छोडती है ..और सबसे अधिक इस से परभावित होता है युवा वर्ग .हर फ़िल्म का इस में काम करने वालों का देखने वालों पर के असर होता है यह बात अब कहने की नहीं रह गई है ...युवा वर्ग अपना हीरो जिस को मान लेते हैं उसी के अनुसार उनकी चाल ढाल ढल जाती है ..बबिता कट बालों से ले कर बाबी ड्रेस तक धोनी के बालों से ले कर शाहरुख़ के सिक्स एप्स तक ..कौन अछुता रहा है इन सब से उनके हाव भाव उनकी उपयोग की गई चीजों की भी जबरदस्त मांग मार्केट में बढ़ जाती है ..और जाने अनजाने फ़िल्म और हीरो व्यवसायिक वस्तुओं के विज्ञापन की भूमिका निभाते रहते हैं .ताल में सुभाष घई ने जिस खूबसूरती से कोका कोला बेचने की शुरुआत की थी वह आज तक कायम है उस फ़िल्म में भारतीय संगीत भी इस की बिक्री के आगे फीका सा नज़र आने लगा था ...लक्स का विज्ञापन तो इस बारे में एक रेकॉर्ड ही माना जा सकता है की कोई हिरोइन सुंदर है तो वह लक्स का ही कमाल है ..हर चीज अब विज्ञापन बनती जा रही है जिस से न केवल युवा वर्ग बलिक आज की नई पौध भी अच्छी खासी प्रभावित है ...बिना उसका नुकसान जाने पहचाने बस लेने की जिद है .अब अभिताभ बच्चन डाबर गुलोकोज पी के ताक़तवर हो रहे हैं या वह चाकलेट खा रहे हैं तो उनको मानने वाले कैसे इन चीजों नही अपनाएंगे ..विज्ञापन बनाने वाले या फ़िल्म में इसका इस्तेमाल करने वाले जिस खूबसूरती से भावनाओं से जुड़ कर इस से आम जनता को जोड़ देते हैं वह काबिले तारीफ है ..याद करे ताल का कोका कोला का वह सीन जहाँ हीरो हिरोइन में कोई स्पर्श नही हुआ पर एक दूसरे का झूठा पीने का वह सीन कितनी देर तक परदे पर छाया रहा जो प्रेम का स्वीकृत रूप बना ..चिट्ठी पत्री , दोस्त सखी या कोई और अन्य साधन अब बीते वक्त की बात हो चुकी हैं ... आज सब बिकता है साबुन से लेकर फेयर एंड लवली तक ..बस बेचना आना चाहिए आख़िर बाज़ार की संस्कृति ने हमे हर चीज को बेचना सिखा ही दिया है ....टीवी पर आने वाले हर प्रोग्राम का यही हाल है आधे घंटे का प्रोग्राम नही की ५० तरह के विज्ञापन हर प्रकार के विज्ञापन से भरा पढ़ा है शायद इन में आने वाले सीरियल की कहानी लिखने वालों को पता है की यह दर्शकों को बाँध सके न सके पर शायद यह विज्ञापन तो कुछ ऐसे मजेदार बनाए जाए कि लोग देखते रहे ....कई बार कोई पुरानी फ़िल्म देखने को मिले तो उस में एक ख़ास बात नोट की मैंने कि नायक या नायिका के हाथ में कभी कभी अंग्रेजी लेखक या हिन्दी कवि की कोई किताब होती है जिस से उस किताब को पढने की इच्छा होती है पर आज की नई पीढ़ी शायद यही विज्ञापन देख के ही बेचैन रहेगी और इसी तरह हमारी फिल्म सीरीयल कहानी कम और विज्ञापन ज्यादा नजर आते रहेंगे !!

Sunday, May 11, 2008

माँ तुम्हारे बाद ...


तुम तो कहती थी माँ कि..
रह नही सकती एक पल भी
लाडली मैं बिन तुम्हारे
लगता नही दिल मेरा
मुझे एक पल भी बिना निहारे
जाने कैसे जी पाऊँगी
जब तू अपने पिया के घर चली जायेगी
तेरी पाजेब की यह रुनझुन मुझे
बहुत याद आएगी .....


पर आज लगता है कि
तुम भी झूठी थी
इस दुनिया की तरह
नही तो एक पल को सोचती
यूं हमसे मुहं मोड़ जाते वक्त
तोड़ती मोह के हर बन्धन को
और जान लेती दिल की तड़प

पर क्या सच में ..
उस दूर गगन में जा कर
बसने वाले तारा कहलाते हैं
और वहाँ जगमगाने की खातिर
यूं सबको अकेला तन्हा छोड़ जाते हैं

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ढल चुकी हो तुम एक तस्वीर में माँ
पर दिल के आज भी उतनी ही करीब हो
जब भी झाँक के देखा है आंखो में तुम्हारी
एक मीठा सा एहसास बन कर आज भी
तुम जैसे मेरी गलती को सुधार देती हो
संवार देती हो आज भी मेरे पथ को
और आज भी इन झाकंती आंखों से
जैसे दिल में एक हूक सी उठ जाती है
आज भी तेरे प्यार की रौशनी
मेरे जीने का एक सहारा बन जाती है !!


रंजू



Saturday, May 10, 2008

ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं[मीना कुमारी]



अभिनय की हर बारीकी से सम्पन्न मीना कुमारी एक अभिनेत्री के रूप में ३२ साल तक भारतीय सिने जगत पर छाई रहीं फ़िल्म परिणीता की शांत अल्हड़ नवयौवना ,बैजू बावरा की चंचल हसीं प्रेमिका साहब बीबी और गुलाम की की सामंती अत्याचार व रुदिवादी परम्परा की निष्ठुर यातनाएं झेलने वाली बहू और शारदा की ममता मयी माँ और सबसे बेहतरीन पाकीजा की साहब जान इन मीना कुमारी को कौन नही जानता...

१ अगस्त १९३२ को जन्मी और गरीबी में पली इस अभिनेत्री का बचपन भी बहुत अच्छा नही गुजरा मात्र ८ साल की उम्र में यह फिल्मों में आ गई पहले यह गाने गाया करती थी कई गजल और गीत उन्होंने अपनों दर्द भरी आवाज़ में गाए हैं उपनाम नाज से वह लिखा भी करती थी ..कुछ कहानिया भी लिखी थी इन्होने ..यदि यह अभिनेत्री न होती तो एक बहुत अच्छी शायरा होतीं ....सन १९४७ में बनी पिया घर आजा के सभी गीत मीना जी ने गाए थे इन में देश पराए जाने वाले .नयन डोर में बाँध लिया आदि गीत बहुत लोक प्रिय भी हुए थे ...सन १९52 में बेजू बावरा बहुत हिट साबित हुई और इन्हे फ़िल्म फेयर अवार्ड भी मिला ज्यूँ ज्यूँ यह शोहरत की बुलन्दी पर पहुंचती गई उतनी ही अपनी ज़िंदगी में तन्हा होती गई हर वक्त खोयी खोयी उदासियों में जीने वाली मीना के अभिनय भी वह दर्द छल कता ही रहा सन १९७१ में बनी पाकीजा में जैसे उन्होंने अपनी सच्ची पीडा को ही फ़िल्म में उतार दिया उस फ़िल्म का एक संवाद भूले नही भूलता हम तो वह लाश है जिसकी कब्र खुली पड़ी रहती हैं इस को बोलते हुए उन्हें कोई अभिनय नही करना पड़ा क्यूंकि उनकी ज़िंदगी की सारी पीड़ा जैसे उस में सिमट के रह गई थी ...

बच्चो से मीना जो को बहुत लगाव था उन्होंने कई अनाथ बच्चों की मदद की कहते हैं कि कई बार वह सारा सारा दिन उन बच्चो के साथ बिता देती थी ..पर तकदीर ने उन्हें औलाद का सुख नही दिया परदे पर माँ कि ममता रूप जीने वाली सदा माँ बनने के लिए तरसती रहीं .अन्तिम दिनों में सावन कुमार टाक उनके साथ रहे उन्होंने मीना जी की सेवा मैं कभी कोई कमी नही आने दी उन्होंने उनक दिल रखने के लिए उनकी फ़िल्म गोमती के किनारे में भी काम किया उन्होंने पूरी ज़िंदगी में कभी किसी को निराश नही किया लेकिन कोई उनका नही हो सका तब उन्होंने शराब को उन्होंने साथी बना लिया सिर्फ़ ४० साल की छोटी सी उम्र में उन्होंने इस बेदर्द दुनिया से रुखसत ली यह कहते हुए

ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं जिस्म तन्हा है और जां तन्हा
मीना कुमारी का ही लिखा हुआ है
चाँद तन्हा है आसमं तन्हा
दिल मिला हैं कहाँ कहाँ तनहा
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है जां तन्हा

Thursday, May 08, 2008

मीना कुमारी [मेरी तरह संभाले कोई दर्द तो जानूँ ]



मीना कुमारी एक नाम जो किसी की पहचान का मोहताज नही है ..अमृता जी की तरह मैं इनकी भी बहुत बड़ी फेन रहीं हूँ ..कहते हैं कि जब इनका इंतकाल हुआ हिन्दुस्तान के कई घर में उस दिन चूल्हा नही जला था ..उस में एक घर हमारा भी था मेरी माँ इनकी बहुत बड़ी फेन थी तब मैं बहुत छोटी थी पर माँ रो रही थी कुछ ख़बर सुन के यह आज भी याद है ..और सारा दिन उदास रही थी ..फ़िर कुछ बड़े होने पर किताबे पढने के कीडे ने मुझे काट लिया और सबसे अधिक रूचि मुझे आत्मकथा पढने में थी ..तभी अमृता की रसीदी टिकट और मीना कुमारी के बारे में किसी का लिखा हुआ पढ़ा ..और फ़िर तब से सिलसिला चल पढ़ा इन दोनों के बारे में जहाँ लिखा हुआ मिलता उसको जरुर पढ़ती ..इनकी सारी फिल्म्स भी देखी और फ़िर अमृता की तरह यह भी मेरे दिलो दिमाग पर चा गई ..अमृता के बारे में जब भी मैंने लिखा आप सब ने उसको प्यार से पढ़ा और सराहा .इन हस्तियों के बारे में जितना लिखा जाए उतना ही कम है ..अमृता के बारे में बहुत कुछ लिख के भी अधूरा रह गया है अभी उनकी लिखी किताबो की बात तो मैंने की ही नही .उसको मैं कुछ विराम के बाद फ़िर से शुरू करुँगी ..पर इस पहली कड़ी से मैं मीना जी के जीवन के बारे में जो पढ़ा वह एक श्रृंखला के रूप में लिखने जा रही हूँ ...उनके चाहने वाले आज भी होंगे और मुझे उम्मीद है की नई पीढ़ी भी इस नायाब अदाकारा के कई पहलुओं से वाकिफ हो कर इनकी दीवानी हो जायेगी ..आखिर यह कला ..साहित्य के वह नायाब हीरे हैं जिनके बारे में जितना लिखा जाए पढ़ा जाए वह कम ही मालूम होता है



हर दर्द को यूं जीती थी जैसे यह उसके ऊपर बीता हो ..और हर भूमिका को एक यादगार जीती जाती भूमिका बना देती थी बेहद भावुक सदा दूसरों का दुःख बांटने वाली इस महान हस्ती का नाम था मीना कुमारी .अपने जीवन से जिसे कभी मोह नही रहा
उस जैसी भावुक अदाकारा को बन्धन में बंधाना बहुत कठिन था तभी तो डॉ के मना करने के बावजूद वह पान जर्दा और शराब नही छोड़ पाती थी और न ही उन्होंने कभी दौलत की परवाह की जितनी दौलत थी सब लुटा दी ..धीरे धीरे मीना की सिर्फ़ रूह रह गई ...और उनको याद करते हुए जहन में रह गया पाकीजा का वह गाना इन्ही लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा ..सच में जिसके हाथ जो लगा वह उनसे वह लुट के ले गया फ़िर भी उन्होंने कभी किसी को दोष नही दिया ..

उन्होंने बालपन से ही फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था सन् १९४2 में बाल कलाकार के रूप में काम करती रही और सन् १९६ में १४ साल की आयु में महजबी मीना कुमारी का असली नाम में पहली बार बच्चो का खेल में नायिका बनी और यहीं से मीना कुमारी कहलाने लगी ..मीना कुमारी बनने के कुछ ही दिनों बाद माँ की मौत ने उन्हें एकांत में ला कर खड़ा कर दिया ..फ़िर बड़ी बहन खुर्शीद और छोटी बहन माधुरी ने भी विवाह कर लिया वह बिल्कुल तनहा रह गई ..

फ़िर १950 में अनार कली बनने की बात हुई और इसी सिलसिले में उनकी मुलाक़ात कमाल अमरोही से हुई इसी फ़िल्म की बात चीत के बीच एक बार पुणे से आते हुए मीना कुमारी की कार का एक्सीडेंट हो गया वहाँ सब मीना से मिलने पहुंचे उन में कमाल अमरोही भी थे वह उनके पास वही हॉस्पिटल में काफ़ी देर बैठे रहे ..दोनों में कोई कुछ नही बोल रहा था तभी मीना की नज़र उठी कमाल अमरोही की तरफ़ नही बलिक मौसमी के उस गिलास की तरफ़ जिसे वह कमजोरी के कारण उठा के पी नही पा रही थी .तब कमाल ने अपने हाथो से वह मौसमी का रस उन्हें पिलाया और यह मुलाकाते फ़िर बदती गई यही पर कमाल ने मीना के सामने शादी का प्रस्ताव रखा मीना भी यही चाहती थी फ़िर २४ मई १९५२ को मीना ने कमाल से शादी कर ली चुपके से ..कमाल अमरोही ने उन्हें एक छोटा सा नाम दिया मंजू और मीना ने उन्हें नाम दिया चन्दन ...आनार कली तो बन नही सकी पर उसके बाद कई फिल्म बनी और वह कामयाब रही मीना कुमारी ने कमाल अमरोही से बेपनाह मोहब्बत की थी पर वह विवाह के सिर्फ़ दो वर्षों को ही जन्नत कहा करती थी ..कमाल साहब ख़ुद बहुत बड़े फिल्मकार थे पर मीना के नाम के बगैर उनका परिचय पूरा नही होता था ..यही कमाल के दुःख का बहुत बड़ा कारण था और यही उनके विवाह के टूटने का कारण भी बना .
पति के प्यार से महरूम मीना ने बाहर प्यार तलाश करना शुरू किया एक रिश्ते की चाहत ने कई लोग उनकी ज़िंदगी में आए सबने उन्हें धोखा दिया उन्हें मिला तो सिर्फ़ दुःख और दर्द हर रिश्ते से ..मीना जी के कराबी लोगो में आज भी कई लोग मौजूद हैं जो आज मीना जी की वजह से कामयाब जाने जाते हैं ..



टुकड़े टुकड़े दिन बीता
धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था
उतनी ही सौगात मिली

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मेरी तरह संभाले कोई दर्द तो जानूँ
एक बार दिल से हो कर परवर दीगार गुजर !

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मीना कुमारी


शेष आगे अगली कड़ी में ...

Wednesday, May 07, 2008

दुनिया के महान आश्चर्य में से एक हैं मिस्त्र के पिरामिड


दुनिया के सात महान आश्चर्य में मिस्त्र के पिरामिड भी एक अदभुत आश्चर्य हैं ...और यह मुझे हमेशा से ही अपनी तरफ़ आकर्षित करते हैं इनेक बारे में जितना पढो हर बार नया सा लगता है .भारत की तरह ही मिस्त्र की सभ्यता भी बहुत पुरानी है कभी यह देश विश्व सभ्यता का अनुपम उदाहरण माना जाता था पर समय के फेर ने इस देश को पतन की और धकेल दिया अज यह अपनी कई जरूरतों के लिए अनेक मुल्कों का मोहताज है ..पर आज भी वहाँ बचे हुए अवशेष वहाँ की गौरव गाथा कहते हैं जिन्हें देख के आज के वैज्ञानिक , कला पारखी और इंजिनियर भी दांतों तले उंगुली दबा लेते हैं

पिरामिड एक तरह के स्तम्भ को कहते हैं जिनके नीचे का हिस्सा चौडा होता है और ज्यूँ ज्यूँ यह ऊपर की और बढता जाता है पतला होता जाता है ..अधिकतर पिरामिड चकौर होते हैं और मिस्त्र में इस तरह के हजारों छोटे बड़े पिरामिड हैं इतिहास के लेखकों का मत है कि पुराने जमाने में राजा अपने लिए मृत्यु से पहले ही अपनी कब्र बना लेते थे और इन्ही कब्रों को पिरामिड कहते हैं वैसे तो यहाँ कई पिरामिड हैं पर गिजा के पिरामिड बहुत ही विशाल और सुंदर बने हुए हैं पहाड़ के आकार के समान दिखायी देने वाले यह पिरामिड कैसे बनाए गए होंगे यह आज भी एक हैरानी का विषय है यहाँ चारों तरफ़ सिर्फ़ बालू ही बालू रेत ही रेत है कैसे कहाँ से इतने बड़े विशाल पत्थर ला कर यह बनाए गए होंगे यह सवाल भी हैरान कर देने वाला है कैसे इसको किन्होने बनया होगा .क्या इसको बनाने वाले मानव ही थे ? कितने जीवट वाले वह इंसान रहे होंगे ? पहले इन्हे मानव द्वारा नही बना हुआ माना गया था पर बाद में धीरे धीरे मनाना पड़ा कि यह मानव का ही काम है अब से हजारों वर्ष पूर्व भी मानव की बुद्धि बल कार्यकुशलता किसी से कम नही थी ..कहते हैं की इन पिरामिडों में इतने वजनी पत्थर लगे हैं कि आज के बड़ी बड़ी पत्थर ढोने वाली मशीने भी क्रेन भी इसको नही उठा सकती हैं ..

आखिर इतने रेतीले रेगिस्तान में यह बड़े बड़े पत्थरकैसे पहुँचाये गए होंगे सोचने की बात है यह आज से लगभग चार हज़ार वर्ष पूर्व बने हुए हैं पर हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी यह आज भी अपनी उसी चमक के साथ खड़े हैं मानों हाला में ही बने हों इन में ऐसी कारीगरी की गई है कि आज भी यह वैसे ही चमक रहे हैं ..इनके बारे में जो कहनियाँ परचलित है वह सब जानते हैं कि राजा के मरने पर इस में उसको समान और उसके नौकरों के साथ अन्दर बने खंडो में बंद कर दिया जाता था इस मान्यता के साथ कि मरने के बाद भी जीवन है और उस मरने वाले को वहाँ भी इन चीजों की जरूरत होगी ..जो कई वैज्ञानिक इसके अन्दर गए हैं और वहाँ जो मृत शव मिले हैं उन्हें देखने से पता चलता है की जैसे यह अभी हीकुछ समय पहले रखे गए हैं ..और यह भी पता चला है कि उस समय भी मानव का औसत कद काठी आज के मनुष्य जैसी ही थी उनके आकार प्रकार में कोई खास अन्तर नही था .इसके बारे में एक इतिहास कार ने लिखा है कि सबसे बड़ा पिरामिड मिस्त्र देश के राजा चिआप्स का है अपनी कब्र केलिए बनवाया था इसका निर्माण काल इस्वी सं ९०० वर्ष पूर्व किया गया था एक लाख मजदूरों ने प्रतिदिन काम करके इस पिरामिड को बनाया था इसको बनाने वाले बादशाह का शव पिरामिड के नीचे के कमरे में रखा गया है इस कमरे के चारों और एक सुरंग भी है और इसी सुँरंग से हो कर नील नदी का पानी पिरामिड का पानी नीचे नीचे से बहा करता है .इस इतिहास कार ने वहां के पुजारी से पूछा था कि यह बड़े पत्थर कैसे एक दूसरे के ऊपर जमाये गए हैं ,उसने जवाब दिया की तब लकड़ी की मशीने होती थी इसी मशीन की सहयता से पहला चबूतरा बने गया फ़िर इसके ऊपर दूसरे चबूतरे के पत्थर जमाये गए ..जिस काम को आज को आज कि इतनी बड़ी बड़ी लोहे की मशीने नही कर पाती उस वक्त कैसे कर पाती होंगी .इनकी जुडाई इतनी कुशलता से की गई है की कहीं भी नोक भर अन्तर देखने को नही मिलाता कंही भी कोई गलती नही देखने को मिलती .जिन लोगों ने अन्दर घुस के इन कमरों का पता लगया है वहाँ कई लेख भी मिले हैं ..जो कही अरबी और कहीं रोमन में लिखे हुए हैं ..इनसे पता चलता है की पुराने जमाने में रोम और अरब के निवासी इन में प्रवेश कर चुके थे ..इनका रहस्य पता लगाने में कितने लोगो ने अपनी जान दी है सिर्फ़ यह पता लगाने के लिए इनके अन्दर ऐसा क्या रहस्य है तभी यह दुनिया के सामने आए हैं ..एक इतिहास कार ने लिखा है की इनको बनाने में अनेक बड़े बड़े कारीगर और कला कौशल जाने वालों के अतिरिक्त एक लाख मजदूरों ने वर्षों तक काम किया है प्रत्येक तीन वर्ष पर आदमी बदल दिए जाते थे और नए आदमी रखे जाते थे भीतर लिखे लिखों से पता चलता है की इनको बनाने वाले मजदूरों को हर रोज़ रोटी और प्याज बँटा जाता था इस प्रकार एक दिन में कई हज़ार दीरम अरब देश का सिक्का खर्च हो जाता था काम करने वाले मजदूरों को कोई मजदूरी नही दी जाती थी उनसे बेगार ली जाती थी और कोई बादशाह को काम करने से मना नही कर सकता था मना करने पर कोडे बरसाए जाते थे मिस्त्र के बादशाहों की यह क़ब्रे आज पूरी दुनिया के लिए हैरानी का विषय है और मानव श्रम का एक अदभुत नमूना है मेरी विश लिस्ट कोई बहुत बड़ी नही है :) पर कभी वक्त ने मौका दिया तो उस लिस्ट में सबसे पहले मुझे इनको देखना है ..

Monday, May 05, 2008

कुछ यूं ही चंद लफ्ज़

राज़

यादों से भरे बादल को
वक्त की हवा उडाये जाती है
पीड़ा आंखो से बस यूं ही
बरस बरस जाती है
छा जाती है नर्म फूलों
सोई उदासी भी
सन्नाटे में धड़कन भीएक राज़ बता जाती है !!


आस की किरण

आस की किरण
बोली मुझसे कि
बसने दे
अपने दिल में
सजने दे आशियाना
मिटा दूँगी तमस
तेरे मन का
और भर दूँगी दरार
जिसमें से छन कर
मैं तेरे दिल तक पहुँच रही हूँ...

Saturday, May 03, 2008

छोटी छोटी बातें

किताबे पढ़ना मेरा जनून है :) और इसी के चलते कई बार ऐसी बातें पढने में आती है जो सबके साथ शेयर करने का दिल होता है साथ ही यह विचार आता है की कई बार छोटी छोटी घटनाये भी कैसे सुंदर संदेश दे जाती हैं ...हम जाने अनजाने में जिन बातों को सरलता से समझ नही पाते हैं वह कई बार एक छोटी सी पढी हुई घटना या सामने घटी घटना हमे सिखा जाती है ... .इस छोटे से किस्से में बताया गया था कि जापानी कितने मेहनती होते हैं और कैसे देशभक्त होते हैं इस किस्से को लिखने वाला लेखक अपने परिवार अपनी पत्नी और दो साल की बेटी के साथ घूमने गया ..रास्ते में एक रेस्टोरेंट में खाने के लिए रुके ..वहाँ पर एक जापानी पर्यटक अपने कुछ साथियों के साथ नाश्ता कर रहा था .लेखक ने कुछ चिप्स और बिस्कुट खा के उसके रैपर वही फेंक दिए ..तभी वहाँ बैठे जापानी पर्यटक में से एक बुजुर्ग पर्यटक उठा और वह खाली रैपर उठा लिए और
अपने बेग में से केँची निकाल कर उसके कई छोटे छोटे टुकडे कर डाले जब तक इस किस्से को लिखने वाला लेखक कुछ समझ पाता उस जापानी से उन टुकडों से एक खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड तैयार कर के इन लेखक महाशय को दिया और टूटी फूटी अंग्रेजी में कहा की किसी भी वस्तु को कभी भी बेकार मत समझो जब तक वह सच में काम की न रहे यही सफलता का मूल मन्त्र है और इसी से आगे बढ़ा जा सकता है ..बात बहुत छोटी सी है पर हम कहाँ आसानी से यह बात समझ पाते हैं हम में से कितने लोग इस तरह बेकार चीजों का उपयोग कर पाते हैं ..हाँ इनको इधर उधर फेंक के अपने पर्यावरण को और बिगाड़ कर रहे हैं ...