नन्हा फूल मुरझाया
गर्भ गुहा के भीतर एक ज़िंदगी मुस्कराई ,
नन्हे नन्हे हाथ पांव पसारे..........
और नन्हे होठों से फिर मुस्कराई ,
सोचने लगी की मैं बाहर कब आऊँगी ,
जिसके अंदर मैं रहती हूँ, उसको कब"माँ " कह कर बुलाऊँगी ,
कुछ बड़ी होकर उसके सुख -दुख की साथी बन जाऊँगी..
कभी "पिता" के कंधो पर झुमूंगी
कभी "दादा" की बाहों में झूल जाऊँगी
अपनी नन्ही नन्ही बातो से सबका मन बहलाऊँगी .......
नानी मुझसे कहानी कहेगी , दादी लोरी सुनाएगी,
बुआ, मासी तो मुझपे जैसे बलिहारी जाएँगी......
बेटी हूँ तो क्या हुआ काम वो कर जाऊँगी ,
सबका नाम रोशन करूंगी, घर का गौरव कहलाऊँगी ,
पर............................
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यह क्या सुन कर मेरा नन्हा ह्रदय कंपकपाया,
माँ का दिल कठोर हुआ कैसे,एक पिता यह फ़ैसला कैसे कर पाया,
"लड़की "हूँ ना इस लिए जन्म लेने से पहले ही नन्हा फूल मुरझाया ..!!!!!!!!!
june 18 ....2006
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देखा है अजब चलन इस समाज का......
बदले है अनेक रूप इस दुनिया के.........
पर "नारी' के अस्तित्व पर आज भी प्रश्न चिन्ह सा पाया है..........
दिया है इसी समाज ने कभी उसको.......
अख़बार के पहले पन्ने पर दिया है उसको सम्मान ,
पर वही पिछले पन्नों पर उसकी इज़्ज़त को उजड़ता पाया है.......
उसने जन्म दिया मर्दो को.........
और उन्होने उस को बाज़ार का रुख़ दिखाया है.................
कही पूजा गया है उसको लक्ष्मी के रूप में........
वही उसको जानवरो से भी कम कीमत में बिकता हुआ पाया है..........
इसी समाज ने दी है उसको कोख में कब्र.........
आज भी देखा है उसको द्रोपदी बनते हुए......
आज भी उसको कई अग्निपरीक्षाओं से गुज़रता हुआ पाया है............
संवारा है अपने हुनर से, अपने हसीन जज़्बातों से......
उसने हर मुकाम को.............
पर फिर भी इस समाज ने उसके हुनर को कम.......
और हुस्न को ज्यादा आजमाया है.........................
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एक छोटी सी कली की इच्छा
मुझे भी आँखो में एक सपना सजाने दो
कल्पना के पंख लगा के मुझे भी कुछ दूर उड़ जाने दो
मुझे भी बनाने दो अपना एक सुनहरा सा जहान
मेरे दिल की कोमलता को मत यूँ रस्मो में बाँध जाने दो
मत छिनो मुझे से मेरा वजूद यूँ कतार रिवाज़ो से
एक अपनी पहचान अब मुझे भी अपनी बनाने दो
छुना है मुझे भी नभ में चमकते तारो को
एक चमकता सितारा .........
अब मुझे भी इस दुनिया में बन जाने दो !!
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मैं क्या हूँ ,यह सोचती खुद में डूबी हुई हूँ
मैं हूँ क्या ???
कोई डूबते सूरज की किरण
या आइने में बेबस सी कोई चुप्पी
या माँ की आंखों का कोई आँसू
या बाप के माथे की चिंता की लकीर
बस इस दुनिया के समुंदर में
कांपती हुई सी कोई किश्ती
जो हादसो की धरती पर
खुद की पहचान बनाते बनाते
एक दिन यूँ ही खत्म हो जाती हूँ
चाहे हो पंख मेरे उड़ने के कितने
फिर भी क्यों
कई जगह खुद को बेबस सा पाती हूँ ?
aug 10 2006