Friday, March 21, 2008

यह तो रंग सजना प्यार का है


छलक रहा है जो रंग नजरों से
यह तो रंग सजना प्यार का है

दिल में उठ रही हैं जो धीरे से हिलोरे
यह नशा सब फागुनी बयार का है

उड़ा के ले गया है चैन-औ-करार मेरा
आंखो में ख्वाब इन्द्रधनुषी बहार का है

पलकों में बंद है बस एक सूरत तेरी
छाया हुआ खुमार तेरे ही दुलार का है

निहारूँ हर पल मैं राह तुम्हारी
नयनों को इन्तजार तेरे दीदार का है

बिखरे है फिजा में जो रंग टेसू के
ऐसा ही सपना तेरे मेरे संसार का है !!

Thursday, March 20, 2008

होली के रंग


रंग प्यार का सब तरफ़ हम फैलाये
अब के होली दिल से हम यूं मनाये

बढ़ गए हैं फासले दिलो के दरमियाँ
उस राह को फूलों से हम महकाए

प्यार की सरगम बरसे अब हवा में
डरे हुए दिलो से हर डर हम मिटाए

फाग के रंग अब के कुछ ऐसे महके
हर दिल में खुशी के गीत खिल जाए

रंगोली सजे हर आँगन में रंगीली
हर द्वेष भूल के वीरान बस्तियां बसाए !!

Wednesday, March 19, 2008

प्रेम में स्वतंत्रता

आरकुट में कविता जी ने अमृता प्रीतम के प्रेम के बारे में विचारों को पढ़ा और यह सवाल मुझसे पूछा ..तो मुझे लगा की इस विषय पर कुछ विचार यहाँ लिखूं ..आप सब का भी स्वागत है इस विषय पर अपने विचार जरुर दे ..
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अभी अभी आपके अमृता प्रीतम वाले पार्ट को पढ़ा ...उसमें एक बात है कि अमृता जी ने कहा है कि वो और इमरोज़ एक दूसरे में लीन नही ..वरना प्यार करने वाला कौन रहेगा ...इस बारे मेरी ऑरकुट पर बहुत लोगों से चर्चा करने की कोशिश की..किसी ने ख़ास इंटेरेस्ट नही लिया आप बताएं..प्रेम में स्वतंत्रता ...इस बारे में आप क्या सोचती हैं ??एक प्रेम मीरा का था ...जहाँ 'तू' ही था मीरा समाप्त हो गयी थी ...कहते हैं ना प्रेम गली आती सांकरी ता में दो ना समाए..??...किंतु स्वतंत्रता की बात करें तो उसकी सीमा क्या होगी...सोचियेगा और बताइयेगा ...फिर मैं बताऊँगी कि मुझे क्या लगता है??


कविता जी सबसे पहले आपने इसको इतने ध्यान से पढ़ा और समझा उसके लिए तहे दिल से शुक्रिया ...बहुत ही अच्छा सवाल है जो आपके जहन में आया है ..प्रेम में स्वतंत्रता ...बहुत जरुरी है क्यूंकि प्रेम बन्धन या बंधने का नाम नही है .प्रेम वही है जो एक दूसरे को समझे उसको वैचारिक आजादी दे ..प्रेम के बारे में इस से पहले मैं इसी ब्लॉग में ढाई आखर प्रेम के लिख चुकी हूँ ..अमृता जी यदि यह कहती है प्रेम में लीन नही इसका मतलब सिर्फ़ इस बात से है कि प्रेम किसी को अपने बन्धन में बांधने की कोशिश नही है ,यह तो एक दूसरे को समझने और जानने और उनके विचारों को भी उतनी ही आजादी देने का नाम है जितनी की अपनी .अमृता ने इमरोज़ को .वैचारिक .आजादी अपनी सोच की आजादी दी और इमरोज़ ने उन्हें ..दोनों ने कभी एक दूसरे के ऊपर ख़ुद को थोपा नही कभी ....शायद तभी .शायद अमृता जी की यही प्रेम की कशिश थी आजादी थी जो मैंने इमरोज़ जी की आंखो में उनके जाने के बाद भी देखी ....

पर आज कल कौन इस बात को समझ पाता है समय ही ऐसा आ गया है कि लोग प्रेम को सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं स्वार्थ वश दोस्ती करेंगे और मतलब के लिए प्यार केवल अपने लिए सोचेंगे और अपना मतलब पूरा होते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लेंगे ,,

अब आती है मीरा के प्यार की बात ..प्यार के लिए सबका अपना अपना नजरिया है कोई इस में डूब के पार लगता है तो उस में बह के ...फर्क सिर्फ़ समझने का है ..यहाँ न अमृता के प्यार को कम आँका जा सकता है न मीरा के ..दोनों ने अपने अपने तरीके से प्यार के हल पल को जीया और भरपूर जीया ....

मेरी नज़र में प्यार वही है जो देहिक संबंधों से ऊपर उठ कर हो .प्रेम देह से ऊपर अध्यात्मिक धरातल पर ले जाता है और प्रेम की इस हालत में इंसान कई प्रकार के रूप लिए हुए भी समान धरातल में जीता है ..प्रेम की चरम सीमा वह है जब दो अलग अलग शरीर होते हुए भी सम्प्दनों का एक ही संगीत गूंजने लगता है और फ़िर इसका अंत जरुरी नही की विवाह ही हो ..प्रेम हर हालात में साथ रहता है .मीरा के प्रेम की सिथ्ती अध्यात्मिक थी वह उस परमात्मा का अंश बन गई थी उसी का रूप बन गई थी जहाँ कोई भेद नही ...कोई छुपाव नही ...


यह मेरे अपने विचार है ..प्रेम क्या है इस के बारे में सबके मत अपने अपने हो सकते हैं ..कविता जी मुझे आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा ..शुक्रिया

Friday, March 14, 2008

सिर्फ़ कुछ नज्म हैं --अमृता प्रीतम

अमृता बचपन से अकेली पली बड़ी है ...जब वह मात्र दस साल की थी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया !उनका बचपन वैसा नही था जैसा एक आम बच्चे का होता है ....उनके पिता लेखक थे जो रात में लिखते और दिन में सोया करते थे ....घर में सिर्फ़ किताबे और किताबे ही थी जिनमें वह दब कर रह गई थी! कई बार उन्हें लगता था कि वह ख़ुद एक किताब है मगर कोरी किताब सो उन्होंने उसी कोरी किताब में लिखना शुरू कर दिया !

तब उनके पिता ने उनकी प्रतिभा को पहचाना उसको संवारा तुक और छन्द का ज्ञान करवाया उन्हें भगवान की प्रशंसा के गीत और इन्सान के दुःख दर्द की कहानी लिखने को प्रेरित किया वह चाहते थे कि अमृता मीरा बाई की तरह लिखे पर यह नही हो सका !

अमृता ने चाँद की परछाई में से निकल कर अपने लिए एक काल्पनिक प्रतिमा बना ली थी जिसे वह घंटो चाँद की परछाई में देखा करती थी उसका काल्पनिक नाम उन्होंने राजन रखा था ....ग्यारह साल की अमृता ने अपनी पहली प्रेम कविता उसी राजन के नाम लिखी जो उनेक पिता ने उनकी जेब में देख ली थी ,अमृता डर गई थी और यह नही कह पायी की कविता उन्होंने ही लिखी है ......पिता ने उनके मुहं पर थप्पड़ मारा इसलिए नही कि उन्होंने कविता लिखी इस लिए कि उन्होंने झूठ बोला था !

पर उनकी कविता कोई दोष न ले सकी कि उसने झूठ बोला और बिना रोक टोक के कविता उमड़ पड़ी और बहने लगी ....

पंजाब सरकार ने अमृता को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से समानित किया !पंजाब प्रदेश के मुख्यमंत्री ख़ुद अमृता के घर उन्हें सम्मानित करने उनके घर पहुंचे...... अमृता अपने पीहर [पिता के घर से मिले ] सम्मान से बहुत भावुक हो गई थी और बहुत जज्बाती हो कर उन्होंने कहा कि बहूत साल बाद मेरे मायके वालों ने मुझे याद किया है पर इतनी देर कर दी कि अब मैं अपने पैरों पर खड़ी भी नही हो सकती ....इसका इस्तकबाल भी नही कर सकती हूँ ....

पीहर की याद उनके जहाँ में एक साथ उमड़ आई थी वह कुछ बोल नही पा रहीं थी उनके शब्दों में एक शिकायत थी कि उनके पिता के प्रदेश से उन्हें इतनी देर बाद पहचाना गया !!


अमृता प्रीतम
एक दर्द था -
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पिया है
सिर्फ़ कुछ नज्म हैं --
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाड़ी हैं !!

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मुद्दत से एक बात चली आती थी
कि वक्त की ताक़त रिश्वत देती
इतिहास से चोरी
इतिहास के पन्नों की खरीदती

वह जब भी चाहती रही
कुछ पंक्तियाँ बदलती
और कुछ मिटाती रहीं ,

इतिहास हँसता रहा
खीझता रहा ,
और हर इतिहास कार को
वह माफ़ करता रहा !

पर आज शायद
बहुत ही उदास है -----
एक हाथ उसकी जिल्द को उठा कर
कुछ पन्नों को फाड़ता
और उनकी जगह
कुछ और पन्ने सी रहा है
और इतिहास ---
चुपके से पन्नों से निकल कर
एक पेड़ के नीचे खड़ा
एक सिगरेट पी रहा है........

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Saturday, March 08, 2008

डायरी के पुराने पन्नों से महिला दिवस की कुछ पंक्तियाँ




नन्हा फूल मुरझाया

गर्भ गुहा के भीतर एक ज़िंदगी मुस्कराई ,
नन्हे नन्हे हाथ पांव पसारे..........
और नन्हे होठों से फिर मुस्कराई ,
सोचने लगी की मैं बाहर कब आऊँगी ,
जिसके अंदर मैं रहती हूँ, उसको कब"माँ " कह कर बुलाऊँगी ,
कुछ बड़ी होकर उसके सुख -दुख की साथी बन जाऊँगी..
कभी "पिता" के कंधो पर झुमूंगी
कभी "दादा" की बाहों में झूल जाऊँगी
अपनी नन्ही नन्ही बातो से सबका मन बहलाऊँगी .......

नानी मुझसे कहानी कहेगी , दादी लोरी सुनाएगी,
बुआ, मासी तो मुझपे जैसे बलिहारी जाएँगी......
बेटी हूँ तो क्या हुआ काम वो कर जाऊँगी ,
सबका नाम रोशन करूंगी, घर का गौरव कहलाऊँगी ,

पर.......................................................................
यह क्या सुन कर मेरा नन्हा ह्रदय  कंपकपाया,
माँ का दिल कठोर हुआ कैसे,एक पिता यह फ़ैसला कैसे कर पाया,
"लड़की "हूँ ना इस लिए जन्म लेने से पहले ही नन्हा फूल मुरझाया ..!!!!!!!!!

june 18 ....2006

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देखा है अजब चलन इस समाज का......
बदले है अनेक रूप इस दुनिया के.........
पर "नारी' के अस्तित्व पर आज भी प्रश्न चिन्ह सा पाया है..........
दिया है इसी समाज ने कभी उसको.......
अख़बार के पहले पन्ने पर दिया है उसको सम्मान ,
पर वही पिछले पन्नों पर उसकी इज़्ज़त को उजड़ता पाया है.......
उसने जन्म दिया मर्दो को.........
और उन्होने उस को बाज़ार का रुख़ दिखाया है.................

कही पूजा गया है उसको लक्ष्मी के रूप में........
वही उसको जानवरो से भी कम कीमत में बिकता हुआ पाया है..........
इसी समाज ने दी है उसको कोख में कब्र.........
आज भी देखा है उसको द्रोपदी बनते हुए......
आज भी उसको कई अग्निपरीक्षाओं से गुज़रता हुआ पाया है............



संवारा है अपने हुनर से, अपने हसीन जज़्बातों से......
उसने हर मुकाम को.............
पर फिर भी इस समाज ने उसके हुनर को कम.......
और हुस्न को ज्यादा आजमाया है.........................


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एक छोटी सी कली की इच्छा

मुझे भी आँखो में एक सपना सजाने दो
कल्पना के पंख लगा के मुझे भी कुछ दूर उड़ जाने दो
मुझे भी बनाने दो अपना एक सुनहरा सा जहान
मेरे दिल की कोमलता को मत यूँ रस्मो में बाँध जाने दो
मत छिनो मुझे से मेरा वजूद यूँ कतार रिवाज़ो से
एक अपनी पहचान अब मुझे भी अपनी बनाने दो
छुना  है मुझे भी नभ में चमकते तारो को
एक चमकता सितारा .........
अब मुझे भी इस दुनिया में बन जाने दो !!

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मैं क्या हूँ ,यह सोचती खुद में डूबी हुई हूँ
मैं हूँ क्या ???
कोई डूबते सूरज की किरण
या आइने में बेबस सी कोई चुप्पी
या माँ की आंखों का कोई आँसू
या बाप के माथे की चिंता की लकीर
बस इस दुनिया के समुंदर में
कांपती हुई सी कोई किश्ती
जो हादसो की धरती पर
खुद की पहचान बनाते बनाते
एक दिन यूँ ही खत्म हो जाती हूँ
चाहे हो पंख मेरे उड़ने के कितने
फिर भी क्यों
कई जगह खुद को बेबस सा पाती हूँ ?
aug 10 2006

Wednesday, March 05, 2008

कलम ने आज गीतो का काफिया तोड़ दिया

अमृता और इमरोज़ की आपसी बात चीत उनका एक दूसरे में में कहना सुनना बहुत दिल को अच्छा लगता है

एक दिन अमृता इमरोज़ से कहने लगी की तुम्ही मेरे इकलौते दोस्त हो !"
इमरोज़ ने जवाब दिया की क्या तुम मुझे अपना विश्वासपात्र समझती हो?"

तुम्ही ने तो कहा था की मेरी मेरी किताब डॉ देव के डॉ देव हो !! हालांकि यह नावल मैंने तुमसे मिलने से पहले लिखा था लेकिन इतने दोगले लोगों की भीड़ में से मैंने तुम्हे ही क्यों चुना .क्या यह सबूत कम है ?""

अमृता ने फैज़ अहमद का एक शेर पढ़ा

किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रकम
गिला है जो भी किसी से, तेरे सबब से हैं !

ऐसा कहते हुए वह हा बुराई का जिम्मेवार इमरोज़ को ठहरा देतीं थी फ़िर चाहे वह अखबार की खबर क्यों न हो या किसी ड्राइवर ने किसी महिला से अभद्र व्यवहार क्यों न किया हो या फ़िर वह चीन की चालाकी हो या रूस की धोखे बाजी बस इमरोज़ पर बरस पड़ती थी .उधर इमरोज़ कहते की अमृता शुरू से ही आदर्शवादी थी गुस्से में या चिढ कर वह कुछ भी कह दे 'लेकिन लोगों के अविश्श्नीय व्यवहार के बावजूद अमृता का इंसान की अच्छाई से विश्वास कभी नही उठा !"

ऊपर से चाहे वह जितनी आग बबूला हो जाए पर भीतर से वह बेहद शांत और शीतल थी !अपने जीवन के इतने कड़वे अनुभवों के बाद भी वह इंसानियत पर फ़िर से यकीन जमा लेती थी आमतौर पर वह ऐसे मौकों पर एक दो शोक गीत लिख कर शांत हो जाती थी इमरोज़ बताते हैं हैं समकालीन साहित्यकारों के प्रति अमृता के दिल में बहुत प्यार था यदि उन्हें किसी दूसरे का लिखा कविता या शेर पसंद आ जाए तो दिन भर उसको गुनगुनाती रहती थी और दूसरों को भी सुनाती ऐसा करते हुए वह ख़ुद सूरज सी चमकती जबकि उनके समकालीन उनके प्रति बहुत सख्त और सकीर्ण सोच के थे !

इमरोज़ के अनुसार अमृता कभी किसी पर आर्थिक निर्भर होना पसन्द नही करती थी लाहौर में जब अमृता रेडियो स्टेशन पर काम करने जाती तो एक दिन घर के एक बुजर्ग ने पूछा उन्हें काम पर कितने पैसे मिलते हैं ?

अमृता ने जवाब दिया १० रुपए !"

तो बुजर्ग बोले की तुम मुझसे २० रुपए ले लो पर यह रेडियो पर काम करना छोड़ दो ! अमृता नही मानी क्यूंकि पैसे से जायदा उन्हें अपनी आजादी पसंद थी अपना आत्मनिर्भर होना पसन्द था !

एक बात पर इमरोज़ और अमृता दोनों एक दम से सहमत थे वह मानते हैं की धर्म और माँ बाप दोनों ही बच्चो को दबा कर डराकर अपने अधिकार में रखना चाहते हैं लेकिन भूल जाते हैं की डरा हुआ बच्चा डरा हुआ समाज बनाता है और ऐसे समाज में सम्बन्ध स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित नही होते अच्छा सम्बन्ध तभी बनता है जब वह सहज और सामान्य और स्वभाविक हो !!



कलम ने आज गीतो का काफिया तोड़ दिया
मेरा इश्कुए यह आज किस मुकाम पर आ गया है

देख नज़र वाले , तेरे सामने बैठी हूँ ,
मेरे हाथ से हिज़रे का काँटा निकल दे

जिसने अंधेरे के अलावा कभी कुछ नही बुना,
वह मोहब्बत आज किरने बुनकर दे गयी .....

उठो!!!!!अपने घरे से पानी का एक कोटरा दो,
राह के हादसे में इस पानी से धो लूँगी.............

अमृता प्रीतम

उमा त्रिलोक की पुस्तक पर आधारित