Monday, February 25, 2008

सच तू -सुपना भी तू अमृता इमरोज़ .

गतांक से आगे ....

एक बार इमरोज़ ने बताया कि जब वह लाहौल के आर्ट स्कूल में पढ़ते थे तो गर्मी की छुट्टियों में गांव चला जाता था ,वहाँ गाय भैंस चराने ले जाता और वह चरती रहती मैं आराम से एक और बैठा स्केच बनाता रहता ..

तब अमृता ने हंस कर पूछा कि क्या तुम रांझे की तरह बंजाली बजाते रहते थे और गाय भैंस आपे चरती रहती थी !"

इमरोज़ भी हंस पड़े और बोले हां... लेकिन वहाँ कोई हीर नही थी जो मुझे चूरी खिलाती !"

लेकिन क्या आर्ट स्कूल में तुम्हे कोई लड़की पसंद नही थी ? अमृता ने पूछा ..

कुछ लडकियां हाबी की तरह पेंटिंग्स सीखने आती थी लेकिन कभी कभी ..और उन में से मुझे एक लड़की पसंद थी उसका नाम मंजीत था ..उस को मैं कभी कभी दूर से देख लेता लेकिन पास कभी नही गया ..फ़िर कुछ सोच में डूब कर बोले ..मुझे पता चल गया था कि वह एक अमीर बाप की बेटी है इस लिए मेरा उस से बात करने का सवाल ही नही पैदा होता था मैं बस उसको दूर से देख लेता लेकिन उसके नाम का पहले अक्षर को मैंने अपने नाम के आगे लगा लिया था अब मैं एम् -इंदरजीत था !""

कितनी बदकिस्मत लड़की थी ! के उसको पता नही था की कोई फरिश्ता उसकी तरफ़ देख रहा था .अमृता ने पूछा !

अब उसके पास तुम्हारे जैसी नजर जो नही थी !" इमरोज़ ने हंस कर कहा

एम् -इंदरजीत कब इमरोज़ बना इसकी एक लम्बी कहानी है .उन्होंने बताया की स्कूल में तीन इंदरजीत थे ,,,टीचर इंदर जीत एक इंदर जीत दो और इंदर जीत तीन कह कर रोल काल लेती .हम तीनो को भी मुश्किल और टीचर को भी मुश्किल !!

मैं सोचता कि मेरा नाम इंदरजीत क्यों हैं ? शायद तब मेरे माँ बाप को और नाम सुझा नही होगा !!!

इमरोज़ एक फारसी का शब्द है जिसका अर्थ है आज ..यह नाम इमरोज़ को इसलिए भी पसंद था क्यूंकि इस के नाम के साथ कोई एतहासिक या कोई पुराणिक नाम नही जुडा था और यह किसी अन्य घटना से भी जुडा नही था सीधा साधा अर्थ था इसका आज ......अब

इमरोज़ वैसे भी आज में विश्वास रखते हैं वे आज में जीते हैं और आज के लिए जीते हैं
१९६६ में वह इंदरजीत से इमरोज़ हो गए !
वह जिस चीज को छुते हैं वह एक कलाकृति बन जाती है वहाँ एक लेम्प शेड देखा जिनके ऊपर उन्होंने कई शायर के कलाम लिखे .फैज़ ,फिराख, अमृता .शिव बटालवीऔर ऐसे ही कई दूसरे शायरों के..और इन में लाल रंग भर दिया है जब वह लैंप जलता है तो लाल रंग कमरे की खिड़की से दरवाज़े पर बिखर जाता है सारा कमरा तब लाल दिखायी देने लगता है ...कभी कभी अमृता उनसे पूछती कि इमरोज़ तुम मुझे कैसे मिल गए ..तब इमरोज़ शांत और छोटा सा जवाब देते जैसे तुम मुझे मिल गई !""

एक जगह अमृता जी द्वारा बताया हुआ लिखा है कि ..पहले कोई इमरोज़ से मिलना चाहता था तो मुझे फ़ोन करता था .पूछता यह अमृता जी का घर है ..मेरे हाँ कहने पर वह फ़िर पूछता कि क्या इमरोज़ जी घर पर हैं ..मैं हाँ कह कर इमरोज़ को छू के कहती ..देखा आज कल लोग तुम्हे मेरे पते पर तलाश कर लेते हैं !!

वाह सजन
सच तू -सुपना भी तू
गैर तू -अपन भी तू
वाह सजन ..वाह सजन

खुदा का इक अंदाज तू
औ फज्र की नमाज़ तू
जग का इनकार तू
औ अजल का इकरार तू
वाह सजन ..वाह सजन !

फानी हुस्न का नाज़ तू
रूह की इक आवाज़ तू
जोग की इक राह भी तू
इश्क की दरगाह भी तू
वाह सजन ..वाह सजन !

आशिक की इक सदा भी तू
अल्लाह की इक रज़ा भी तू
यह सारी कायनात तू
खुदा की मुलाकात तू
वाह सजन ...वाह सजन !!

अमृता प्रीतम .
.शेष अगले अंक में



Thursday, February 21, 2008

रंजना, कौन हो तुम?

रंजना, कौन हो तुम?

अजीब सवाल है, ऐसा लगता है जैसे खुद से ही सवाल कर रही हूँ... "रंजना, कौन हो तुम?"

हमेशा की तरह आदतन टहलते टहलते आज जैसे ही ब्लॉगवाणी पहुँचें नजरे टीकी सीधी घघुती जी की पोस्ट पर और उसका लिंक पकड़कर हम पहूँच गये उनके ब्लॉग पर...http://ghughutibasuti.blogspot.com/2008/02/blog-post_06.html यहाँ तक सब ठीक था.. मगर जैसे ही उनका "रंजना" के नाम ख़त पढ़ना शुरू किया तो चौंक गई ..सवाल उठा कि आखिर "माजरा क्या है?"

हमारे नाम ख़त और हमे ही पता नही..पढ़ते गए तो हैरान परेशान? कोई हमारा नाम ही ले उड़ा न केवल नाम पोस्ट भी मार दी ..प्रोफाइल चेक करने कि कोशिश कि तो बड़ा बड़ा आ रहा है नाट अवेलेबल...

अब ब्लॉगर वाले अपने सगे वाले तो हैं नहीं.. वरना उनसे ही पूछ लेती... फिर सोचा की रंजना से ही क्यों न पूछा जाये कि तुम कौन हो? कम से कम हमनाम का वास्ता देकर इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है? ;-)

कौन हो तुम रंजना?, नही पायी तुझको पहचान

तेरे कारण देखो गये पकड़े मेरे कान

अपने भी पूछ-पूछकर लेने लगे हैं शान

बतला दे तू मैं नहीं, है कोई अनज़ान

है कोई अनज़ान, नहीं मुझसे लेना-देना

मैं कोई और, तू किसी और डाल की मैना

समझ रही हो बहना? ;-)

Tuesday, February 19, 2008

अगर वह न होतीअमृता इमरोज़ भाग 6

इमरोज़ अमृता को कई नामों से बुलाते थे उस में एक नाम था "बरकते "बरकते यानी बरकत वाली अच्छी किस्मत वाली सम्पन्न भरपूर.... वह कहते हैं कि बरकत तो उसके हाथ में थी, उसके लेखन में थी ....उसके होने में थी ,उसके पूरे वजूद में थी ....

अमृता तो हीर है
और फकीर भी
तख्त हजारे उसका धर्म है
और प्यार
उसकी ज़िंदगी
जाति से वह भिक्षु है
और मिजाज़ से
एक अमीर
वह एक हाथ से कमाती है
तो
दूसरे हाथ से बांटती है

इमरोज़ और अमृता के मिजाज़ और पसन्द मिलती जुलती भी थी और अलग भी थी ! वह दोनों अलग कमरे में रहते थे .अमृता बहुत सवेरे काम करती थी जब इमरोज़ सोये हुए होते थे और इमरोज़ उस वक्त काम करते थे जब अमृता सोयी होती थी .दोनों के जीवन कर्म अलग अलग थे लेकिन स्वभाव एक से थे !न वह पार्टी में जाते थे न घर में इस प्रकार का कोई आयोजन होता था दोनों अपने साथ ही वक्त गुजारना पसंद करते थे, अलग अलग अकेले अपने साथ अमृता अपने लेखन में ,इमरोज़ अपनी पेंटिंग्स में ....दोनों के कमरे के दरवाज़े खुले रहते ताकि एक दूसरे की खुशबु आती रहे लेकिन एक दूसरे के काम में कोई दखल अंदाजी नही ....जब अमृता लिख रही होती तो इमरोज़ चुपचाप उसके कमरे में जा के उनकी मेज पर चाय का कप रख आते !पर जब अमृता के बच्चे कुछ मांगते तो अपना लिखना बीच में छोड़ के वह उनका कहा पूरा करती !


अमृता कवितायें बनाती नही थी वह केवल अपने जज्बात से कविता कागज पर उतार देती एक बार लिखने के बाद न तो उन्हें काटती न कुछ उस में बदलती थी जो जहन में आता वह उसको वैसा ही लिख देती !!
एक बार की बात इमरोज़ जी ने मुझे बताई की वह किसी काम से मुम्बई गए थे ....ख़त आदि का सिलसिला उनके और अमृता के बीच में चलता रहा ..ऐसे ही एक ख़त में अमृता ने उन्हें लिखा
जीती !!

तुम जितनी सब्जी दे के गए थे ,वह ख़त्म हो गई है !जितने फल लेकर दे गए थे वह भी ख़त्म हो गए हैं फिरज खाली पड़ा है ..मेरी ज़िंदगी भी खाली होती हुई सी लग रही है - तुम जितनी साँसे छोड़ गए थे ,वह खत्म हो रहीं है ....

दस्तावेज ;अमृता प्रीतम के ख़त ]

इमरोज़ अमृता से कई साल छोटे थे पर कभी उम्र उनके प्यार में नही आई ,दोनों अलग शख्सियत थे पर एक दूजे को दिल से चाहा !! क्या इस लिए कहते हैं कि विपरीत परस्पर एक दुसरे को आकर्षित करते हैं ? क्या प्यार इन्ही दो उलट लोगो के बीच की कशिश होती है !!

वह

हर कोई कह रहा है
कि वह नही रही
मैं कहता हूँ
वह है
कोई सबूत?
मैं हूँ
अगर वह न होती
तो मैं भी न होता ....

इमरोज़

Saturday, February 16, 2008

पुस्तक मेला और हिंद युग्म ..की कामयाबी

२ फरवरी जब यह पुस्तक मेरा शुरू हुआ तो एक जोश था इस बार इस मेले का ...मैं दिल्ली पुस्तक मेला हो या यह विश्व पुस्तक मेला जरुर जाती हूँ और जब तक लगा रहता है कई बार जाती हूँ ...किताबो की जादू नगरी लगती है मुझे जहाँ बेसुध हो के पुस्तक संसार में खोया जा सकता है ...पर इस बार इस मेले में मैं सिर्फ़ इस बार मैं सिर्फ़ पुस्तके देखने नही गई थी बलिक इस मेले में शिरकत करने वाला हिंद युग्म से जुड़ी हुई थी ..जोश हम सब में भरपूर है और जनून है हिन्दी भाषा को हिन्दी साहित्य से लोगो को जोड़ना ..और ३ फरवरी को विमोचन के बाद लोग हमे तलाशते हुए हमारे स्टैंड तक आए ...कोई उम्र की सीमा से नही बंधा हुआ ..यदि आज की युवा पीढ़ी हिन्दी से जुड़ना चाहती थी तो उम्र दराज़ लोग भी पीछे नही थे .सबसे अच्छा लगा जब कई जाने माने लेखक उदय प्रकाश जी ने हमारे इस प्रयास को सराहा और हमारे होंसले को बढाया .मीडिया वालो ने हमारी इस कोशिश को जन जन तक पहुचाने में अहम् भूमिका निभाई हम जिस उद्देश्य को ले कर यहाँ सब आए थे आखरी दिन पर उसकी कामयाबी की खुशी हम सब के चेहरे पर थी ..

Wednesday, February 13, 2008

फूल मुरझा गया पर अमृता भाग ५

जब मैं अमृता के घर गई थी तो वहाँ की हवा में जो खुशबू थी वह महक प्यार की एक एक चीज में दिखती थी इमरोज़ की खूबसूरत पेंटिंग्स ,और उस पर लिखी अमृता की कविता की पंक्तियाँ ..देख के ही लगता है जैसे सारा माहोल वहाँ का प्यार के पावन एहसास में डूबा है ..और दिल ख़ुद बा ख़ुद जैसे रूमानी सा हो उठता है ...इमरोज़ ने साहिर के नाम को भी बहुत खूबसूरती से केलीगार्फी में ढाल कर अपने कमरे की दिवार पर सजा रखा है ..उमा जी ने अपनी किताब में लिखा है की ..जब एक बार उन्होंने इमरोज़ से इसके बारे में पूछा तो इमरोज़ जी ने कहा कि जब अमृता कागज़ पर नही लिख रही होती थी तो भी उसके दाए हाथ कीपहली उंगली कुछ लिख रही होती थी कोई शब्द कोई नाम कुछ भी चाहे किसी का भी हो भले ही अपना ही नाम क्यों न हो वह चाँद की परछाई में में भी शब्द ढूँढ़ लेती थी बचपन से उनकी उंगली उन चाँद की परछाई में भी कोई न कोई लफ्ज़ तलाश कर लेती थी ..इमरोज़ बताते हैं की हमारी जान पहचान के सालों में वह उस को स्कूटर में बिठा कर रेडियो स्टेशन ले जाया करते थे ,तब अमृता पीछे बैठी मेरी पीठ पर उंगली से साहिर का नाम लिखती रही थी ,मुझे तभी पता चला था की वह साहिर से कितना प्यार करती थी ..और जिसे अमृता इतना प्यार करती थी उसकी हमारे घर में हमारे दिल में एक ख़ास जगह है इस लिए साहिर का नाम यूं दिख रहा है ..साहिर के साथ अमृता का रिश्ता खमोश रिश्ता था मन के स्तर का ,उनके बीच शारीरिक कुछ नही था जो दोनों को बाँध सकता वह अमृता के लिए एक ऐसा इंसान था जिस के होने के एहसास भर से अमृता को खुसी और जज्बाती सकून मिलता रहा !!

चोदाहा साल तक अमृता उसकी साए में जीती रही . दोनों के बीच एक मूक संवाद था ,वह आता अमृता को अपनी नज्म पकड़ा के चला जाता कई बार अमृता की गली में पान की दूकान तक आता पान खाता और अमृता की खिड़की की तरफ़ देख के चला जाता और अमृता के लिए वह एक हमेशा चमकने वाला सितारा लेकिन पहुँच से बहुत दूर ..अमृता ने ख़ुद भी कई जगह कहा है की साहिर घर आता कुर्सी पर बैठता ,एक के बाद एक सिगरेट पीता और बचे टुकड़े एशट्रे में डाल कर चला जाता .उसके जाने के बाद वह एक एक टुकडा उठाती और उसको पीने लगती ऐसा करते करते उन्हें सिगरेट की आदत लग गई थी !!


अमृता प्यार के एक ऐसे पहलु में यकीन रखती थी जिस में प्रेमी एक दूजे में लीन होने की बात नही करते वह कहती थी की कोई किसी में लीन नही होता है दोनों ही अलग अलग इंसान है एक दूजे से अलग रह कर ही वह एक दूजे को पहचान सकेंगे अगर लीन हो जाए तो फ़िर प्यार कैसे करोगे ?

इमरोज़ जी के लफ्जों में अमृता के लिए कुछ शब्द ..

कैसी है इसकी खुशबु
फूल मुरझा गया ,
पर महक नही मुरझाई
कल होंठो से आई थी
आज आंसुओं से आई है
का यादो से आएगी
सारी धरती हुई वैरागी
कैसी है ये महक जो इसकी
फूल मुरझा गया पर महक नही मुरझाई !!
--

Monday, February 11, 2008

फ़िर आया वसंत


सखी फ़िर आया वसंत
फ़िर से लिखा गया एक लफ्ज़ प्यार का
और रख दिया इसको बंद करके
दिल के किसी कोने में
जब आहट होगी फ़िर से किसी धड़कन की .
इस कोने से निकल से यह लफ्ज़
कुछ पल तो जीया जायेगा
ज़िंदगी का सफर है चंद लम्हों का
यह कुछ तो हसीन हो जायेगा !! [रंजू ]
--
जी हाँ आ गया आज फ़िर से वसंत ,वसंत प्यार का उत्सव ,प्रकति का उत्सव ,यह बात और है कि आज इस साल अभी तक ठंड पूरे जोरों पर है ..पर शायद वसंत है आज ,यह सोचना दिल में एक अजब सी उमंग भर देता है ,भर देता है यह जीवन में जोश उमंग और आशा ..पूरे वातावरण में जाग उठती है एक नई प्रेरणा ...पर हमारी आज
की युवा पीढ़ी वसंत से ज्यादा वेलेंटाइन दिवस को ज्यादा पहचानती है ..यदि हम पीछे गुजरे अपने आतीत को देखे तो वसंत लाखों सालों से हमे प्रेम की प्रेरणा दे रहा है जबकि वेलेंटाइन का इतिहास कुछ साल ही पुराना है हमारा वसंत जहाँ हमे एक नव जीवन से भर देता है वहाँ वेलेंटाइन कि कहानी कुछ अजब सी है ....इसकी कहानी जो पढने में आती है कि रोम का राजा क्लाउडिस बहुत कठोर दिल का राजा था अपनी सेना में अनुशासन बना रहे इस के लिए आदेश दिया की कोई सेनिक विवाह नही करेगा ..सेंट वेलेंटाइन ने चुचाप शादी करवानी शुरू कर दी राजा ने उनके जेल में बंद कर दिया ...और एक दिन सेंट वेलेंटाइन ने जेल के अकेलेपन से उब कर जेलर की बेटी को एक ग्रीटिंग कार्ड दे कर अपने प्रेम का इजहार किया .तब से इसको मनाने की परम्परा चल पड़ी ..पर आज का प्यार उस गहराई को नही छू पाता ,आज प्यार का मतलब सिर्फ़ स्वार्थ रह गया है .इस में अब वो गहरी भावना नही दिखती है ..और प्यार के लिए सिर्फ़ एक ख़ास दिन की जरुरत नही है ..और न ही किसी पैमाने की .यह कहाँ कब कैसे हो जाए कौन जानता है ? हर किसी की पसंद अपनी और अपने विचार हैं इस बारे में ..प्यार में सागर सी गहराई है तो नदी से बहने का प्रवाह भी ...जीवन की सारी कठोरताओं ,मुसीबतों को झेल कर भी यदि प्रेम बना रहे तो वही प्रेम है ...प्रेम का काम है जोड़ना ,....तोड़ना नही . और यह इसी रूप में सुंदर लगता है ..वसंत का आगमन प्रतीक है नए उमंगो के खिलने का .और यह उमंग सकरात्मक रूप से रहे .वही अच्छा लगता है ..प्रेम के इस पावन पर्व वसंत का स्वागत .इमरोज़ जी की लिखी इन पंक्तियों से बेहतर और क्या हो सकता है .

सारे शब्द
सारे रंग
मिल कर भी
प्यार की तस्वीर
नहीं बना पाते
हाँ प्यार की तस्वीर
देखी जा सकती है
पल पल मोहब्बत जी रही
ज़िंदगी के आईने में !!

Tuesday, February 05, 2008

मैं तुझे फ़िर मिलूंगी ...अमृता प्रीतम ...भाग 4

बहुत हैरानी होती है मुझे जब हिन्दी साहित्य को पढने वाले यह कहते हैं कि वह अमृता के बारे में नही जानते .इमरोज़ कौन है? नही पहचानते ...? और कुछ मेरे जैसे अमृता को पढने वाले मुझे अमृता की दीवानी कहते हैं .दिल को छू जाता है उनका यह कहना ..खैर इस बारे में क्या कह सकते हैं . .सबकी अपनी पसंद हैं और अपने पसंद का ही पढ़ते हैं .:) हम अमृता के पढने वाले चलिए आज उनकी ज़िंदगी का एक पन्ना और पढ़ते हैं ...

अमृता के लिए इमरोज़ ने लिखा है ..

ओ कविता ज्युंदी है
ते ज़िंदगी लिखदी है
ते नदी वांग चुपचाप वसदी
सारे पासियां नूं जरखेजी वंडदी
जा रही है सागर वल
सागर होण

[हिन्दी में ]

वह कविता जीती
और ज़िंदगी लिखती
और नदी सी चुपचाप बहती
जारखेजी बाँटती
जा रही है सागर की ओर
सागर बनने !!


अमृता जी अपने आखरी दिनों में बहुत बीमार थी ,जब इमरोज़ जी से पूछा जाता की आपको जुदाई की हुक नही उठती ? वह आपकी ज़िंदगी है ,आप उनके बिना क्या करोगे ? वह मुस्करा के बोले जुदाई की हुक ? कौन सी जुदाई? कहाँ जायेगी अमृता ? इसे यहीं रहना है मेरे पास ,मेरे इर्द गिर्द ..हमेशा !!हम चालीस साल से एक साथ हैं हमे कौन जुदा कर सकता है ? मौत भी नही !मेरे पास पिछले चालीस सालों की यादे हैं .शायद पिछले जन्म की भी ,जो मुझे याद नहीं ,इसे मुझ से कौन छीन सकता है ...

और यह बात सिर्फ़ किताबों पढी नही है जब मैं इमरोज़ जी से मिलने उनके घर गई थी तब भी यह बात शिद्दत से महसूस की थी कि वह अमृता से कहीं जुदा नही है ...वह आज भी उनके साथ हर पल है ..उस घर में वैसे ही रची बसी ..उनके साथ बतयाती और कविता लिखती ...क्यूंकि इमरोज़ जी के लफ्जों में मुझसे बात करते हुए एक बार भी अमृता थी नही आया .अमृता है यहीं अभी भी आया ...एक बार उनसे किसी ने पूछा की मर्द और औरत् के बीच का रिश्ता इतना उलझा हुआ क्यों है ? तब उन्होंने जवाब दिया क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही !"" इमरोज़ पंजाब के गांव में पले बढे थे वह कहते हैं कि प्यार महबूबा की जमीन में जड़ पकड़ने का नाम है और वहीं फलने फूलने का नाम है !""जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारा अहम् मर जाता है ,फ़िर वह हमारे और हमारे प्यार के बीच में नही आ सकता ...उन्होंने कहा कि जिस दिन से मैं अमृता से मिला हूँ हूँ मेरे भीतर का गुस्सा एक दम से शान्त हो गया है मैं नही जानता यह कैसे हुआ .शायद प्यार कि प्रबल भावना इतनी होती है कि वह हमे भीतर तक इतना भर देती है कि हम गुस्सा नफरत आदि सब भूल जाते हैं .हम तब किसी के साथ बुरा व्यवहार नही कर पाते क्यूंकि बुराई ख़ुद हमारे अन्दर बचती ही नही ...


महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता ,और न ही भगवान श्री कृष्ण के आगे सिर झुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता ! केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं ! हमे अपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरत .शैतानियत कहाँ रह जाती है ?""

यह था प्यार को जीने वाले का एक और अंदाज़ ...जो ख़ुद में लाजवाब है ..

अमृता के लफ्जों में कहे तो

मैं तुझे फ़िर मिलूंगी
कहाँ. किस तरह ,पता नही
शायद तेरे ख्यालों कि चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरुंगी

या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
या फ़िर सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगों में घुलुंगी
या रंगों की बाहों में बैठकर
तेरे केनवास को वलुंगी
पता नही ,कहाँ किस तरह
पर तुझे जरुर मिलूंगी !!


उमा त्रिलोक की लिखी किताब पर आधारित जानकारी !!



हिन्द-युग्म के पहले साहित्यिक-संगीतमयी एल्बम 'पहला सुर' का भव्य विमोचन

एलबम का विमोचन इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री अशोक बाल्यान (एच आर निदेशक, ओ एन जी सी) ने किया।

दिनांक ३ फरवरी २००८ को प्रगति मैदान, नई दिल्ली के हॉल नं॰ ६ के कॉन्फ्रेन्स रूम १ में विश्व पुस्तक मेला २००८ के दौरान हिन्द-युग्म के पहले साहित्यिक-संगीतमयी एल्बम 'पहला सुर' का भव्य विमोचन हुआ। इस विमोचन समारोह में ८० से अधिक दर्शकों ने भाग लिया।

इंटरनेट के सहयोग से बने १० कविताओं व १० संगीतबद्ध गीतों से ओत-प्रोत इस एलबम का विमोचन इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री अशोक बाल्यान (एच आर निदेशक, ओ एन जी सी) ने किया।

श्री अशोक बाल्यान के अतिरिक्त इस विमोचन समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री अमित दहिया बादशाह (संस्थापक, देलही पोएट्र), श्री प्रदीप शर्मा (वरिष्ठ उद्‌घोषक, आकाशवाणी), श्री बुद्धिनाथ मिश्र (वरिष्ठ कवि, ओ एन जी सी), श्रीमती रेणु बाल्यान आदि ने पधारकर इस आयोजन की शोभा बढ़ाई।

श्री अशोक बाल्यान ने अपने संभाषण में कहा कि हिन्दी को नई तकनीक से जोड़कर ही इसको आज से जोड़ा जा सकता है, युवाओं से जोड़ा जा सकता है। उन्होंने आगे कहा कि जिस प्रकार से पुस्तकों की महिमा है, उसी तरह इस साहित्यिक अलबम की अपनी महत्ता है।

श्री प्रदीप शर्मा ने आकाशवाणी से इस अलबम के प्रसारण का विश्वास दिलाया। उन्होंने कहा कि नये कवियों की आवाज़ों तक जन-जन तक पहुँचाने में वो जितने मदद कर सकते हैं, करेंगे।

श्री अमित दहिया ने कविता-पाठ को लिखने-पढ़ने से अधिक महत्व दिया और कहा कि हिन्दी ५ प्रतिशत का सम्मान न बने ८० प्रतिशत का बने, इसके लिए हिन्द-युग्म जैसे युवा समूहों का जन्म आवश्यक है।

कार्यक्रम दोपहर २ बजे से शुरू होकर संध्या ४ बजे तक चला। श्री बुद्धिनाथ मिश्र ने अपनी बूढ़ी काकी पर लिखे गीत को गाकर सबका मन मोह लिया। बुद्धिनाथ मिश्र हिन्द-युग्म की उद्‌घोष पंक्ति 'हिन्दी को खून चाहिए' का समर्थन किया।

हिन्द-युग्म की ओर से गायक-संगीतकार जोड़ी दीपक-कमल ने एक सोलो गीत पेश किया, निमेकरी की।

हिन्द-युग्म की ओर से गौरव सोलंकी, मनीष वंदेमातरम्, शोभा महेन्द्रू और निखिल आनंद गिरि ने काव्य पाठ किया।

इस कार्यक्रम का सफल संचालन श्री निखिल आनंद गिरि ने श्री मोहिन्दर कुमार की अध्यक्षता में किया।

स्टैंड का पता- हॉल नं॰ १२, स्टैंड नं॰ एस १/१०

Friday, February 01, 2008

बात कुफ्र की ..अमृता प्रीतम और इमरोज़ भाग ३

अमृता प्रीतम और इमरोज़ भाग ३

-अमृता प्रीतम और इमरोज़ ...इनके बारे में जानना और लिखना सच में एक अदभुत एक सकून सा देता है दिल को ..एक लेखिका के रूप में अमृता जी को बहुत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा ,उनका बहुत विरोध भी हुआ ,उनके स्पष्ट ,सरल और निष्कपट लेखन के कारण और उनके रहने सहने के ढंग के कारण भी ..लेकिन उन्होंने कभी भी अपने विरोधियों और निन्दकों की परवाह नही की !उन्होंने अपने पति से अलग होने से पहले उन्हें सच्चाई का सामना करने और यह मान लेने के लिए प्रेरित किया की समाज का तिरिस्कार और निंदा की परवाह किए बिना उन्हें अलग अलग चले जाना चाहिए ,उनका मानना था की सच्चाई का सामना करने के लिए इंसान को सहास और मानसिक बल की जरुरत होती है

एक बार एक हिन्दी लेखक ने अमृता जी से पूछा था की अगर तुम्हारी किताबों की सभी नायिकाएं सच्चाई की खोज में निकल पड़ी तो क्या सामजिक अनर्थ न हो जायेगा ?

अमृता जी ने बहुत शांत भाव से जवाब दिया था कि यदि झूठे सामजिक मूल्यों के कारण कुछ घर टूटते हैं तो सच्चाई की वेदी पर कुछ घरों का बलिदान भी हो जाने देना चाहिए !!

अमृता और इमरोज़ दोनों मानते थे कि उन्हें कभी समाज की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी !आम लोगो की नज़र में उन्होंने धर्म विरोधी काम ही नही किया था बलिक उससे भी बड़ा अपराध किया था ,एक शादीशुदा औरत् होते हुए भी सामजिक स्वीकृति के बिना वह किसी अन्य मर्द के साथ रहीं जिस से वह प्यार करती थी और जो उनसे प्यार करता था !

एक दिन अमृता ने इमरोज़ से कहा था कि इमरोज़ तुम अभी जवान हो .तुम कहीं जा कर बस जाओ .तुम अपने रास्ते जाओ ,मेरा क्या पता मैं कितने दिन रहूँ या न रहूँ !"

तुम्हारे बिना जीना मरने के बराबर है और मैं मरना नही चाहता " इमरोज़ ने जवाब दिया था !

एक दिन फ़िर किसी उदास घड़ी में उन्होंने इमरोज़ से कहा था कि तुम पहले दुनिया क्यों नही देख आते ? और अगर तुम लौटो और मेरे साथ जीना चाहा तो फ़िर में वही करुँगी जो तुम चाहोगे !"
इमरोज़ उठे और उन्होंने उनके कमरे के तीन चक्कर लगा कर कहा "लो मैं दुनिया देख आया ! अब क्या कहती हो ?"

अब ऐसे दीवाने प्यार को क्या कहे ?

अमृता जी के लफ्जों में कहे तो ..

आज मैंने एक दुनिया बेची
एक दीन विहाज ले आई
बात कुफ्र की थी
सपने का एक थान उठाया
गज कपडा बस फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली ...

शेष अगले अंक में ....

अमृता जी पर लिखी एक किताब पर आधारित है यह जानकारी !!