Tuesday, December 04, 2007

ज़िंदगी


ज़िंदगी कभी तू भी मुझे अपनो की तरह मिल
किसी ग़ैर की तरह क्यों सताती है मुझे
रोता है दिल मेरा तेरी बेरूख़ी देख कर
तेरी हर बात आज रुलाती हैं मुझे,

कभी थामा था दामन हमने ख़ुशी का
कभी हमने भी खिलते गुलो को देखा था
कभी मुस्कराया था जीवन मेरा भी
कभी हमने भी प्यार का मौसम देखा था

आज क्यों हर बात लगती है सपना
किसी किस्से सी तू नज़र आती है मुझे
यूँ ना दिखा संगदिली अपनी ऐ ज़िंदगी
कि अब मौत भी ठुकराती है मुझे

ज़िंदगी कभी तू भी मुझे अपनो की तरह मिल
किसी ग़ैर की तरह क्यों सताती है मुझे!!